मौतों वाली कार्य संस्कृति
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ताज़ा रिपोर्ट बतलाती है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी बहुत खराब हालात में काम करती है;
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ताज़ा रिपोर्ट बतलाती है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी बहुत खराब हालात में काम करती है। स्थितियां इतनी बुरी हैं कि उनके कारण लाखों श्रमिक और कर्मचारी किसी न किसी वज़ह से दम तोड़ देते हैं, फिर वह चाहे काम का बोझ हो या कार्य स्थलों पर होता प्रदूषण। यह एक तरह से क्रूर पूंजीवाद के उसी चेहरे का प्रतिबिम्ब है जो मुनाफा कमाने के लिये अमानवीयता की तमाम सरहदें लांघता है। पिछले कुछ अरसे से पूंजी के मुकाबले श्रम की घटती महत्ता का भी यह साक्ष्य है।
आईएलओ की इस 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक काम से सम्बन्धित दुर्घटनाओं और विभिन्न तरह की बीमारियों के चलते विश्व में 30 लाख लोगों ने जान गंवाई। यह आंकड़ा साल 2000 के मुकाबले 12 फीसदी ज्यादा तथा 2015 की तुलना में 5 प्रतिशत अधिक है जो यह बतलाने के लिये पर्याप्त है कि लोगों का मरना बदस्तूर जारी है। जो तथ्य प्रमुखता से सामने आया वह यह है कि मौतों का सबसे बड़ा कारण है प्रति सप्ताह 55 घंटों से अधिक समय तक की काम की अवधि का होना। अकेले इसी कारण से करीब 7.5 लाख कर्मचारियों व श्रमिकों ने प्राण खोये। ऐसे में इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति के उस बयान का भी स्मरण हो आता है जिन्होंने हाल ही में एक चर्चा के दौरान कहा था कि 'अगर भारत को चीन से मुकाबला करना है तो यहां के प्रत्येक युवा को सप्ताह में कम से कम 60 घंटे काम करना चाहिये।'
दुनिया जब 55 घंटे से अधिक अवधि तक काम करने का नतीज़ा बड़ी संख्या में लोगों की मौत के रूप में देख रही है, तो नारायण मूर्ति का यह बयान निष्ठुर ही कहा जा सकता है। यह पूंजीवाद का वह विद्रूप पक्ष है जिसमें कारोबारियों को लोगों की जान की परवाह नहीं होती और वे आर्थिक लाभ को ही तरज़ीह देते हैं। ये वे मौतें हैं जिनकी रिपोर्ट हुई है या जानकारियां दस्तावेज़ों तक पहुंच सकी हैं। बड़ी संख्या में ऐसे गैर-संगठित क्षेत्र के लोग हैं जो जान तो गंवाते हैं परन्तु वे घोषित आंकड़ों के हिस्से नहीं बन पाते। यह पूरी दुनिया का हाल है, लेकिन तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों में श्रमिकों की स्थिति बहुत ही दयनीय व चिंतनीय है जो 21वीं सदी में हासिल की गई वैज्ञानिकता, तकनीकी विकास एवं आधुनिक प्रबंधन शैली के भी विपरीत है। एशियाई, अफ्रीकी एवं लातिन अमेरिका के कई अविकसित व विकासशील देशों में लोगों को खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। ये मौतें व्यापक पैमाने पर मानवाधिकार की दुर्दशा को भी बयान करती हैं।
वर्गीकृत मौतों के अलावा सोचे-समझे बिना थोपे जाने वाले सरकारी निर्णयों के कारण भी बड़ी संख्या में कार्य स्थलों पर मौतें होती हैं। भारत में नोटबंदी एक ऐसा ही उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सनक व अदूरदर्शिता से उपजे इस फैसले का नतीज़ा देश ने बैंकों के बाहर लोगों की तथा बैंकों के भीतर कर्मचारियों की मौतों के रूप में देखा था। इसी प्रकार कोरोना काल में भी लोगों से लिये जा रहे काम के दौरान भी हजारों लोगों ने जानें गंवाई थीं। उत्तर प्रदेश में कोविड के दौरान स्थानीय निकायों के चुनाव कराये गये थे। नौकरी खोने के डर से राज्य सरकार के हजारों कर्मचारियों व अधिकारियों ने दूर-दराज जाकर चुनावी ड्यूटी की थी। पर्याप्त ऐहतियात बरतने की सुविधा न होने और इलाज की अनुपलब्धता के कारण बड़ी तादाद में मौतें हुई थीं।
आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार अन्य कारण तथा उनसे मरने वाले लोगों की संख्याएं इस प्रकार हैं- गैस रिसाव व आगजनी से 4.5 लाख, काम के दौरान घायल होकर 3.63 लाख, एसबेस्टस 2.09 लाख, सिलिका 42 हजार से ज्यादा, कार्य जनित अस्थमा लगभग 30 हजार, विकिरण 18 हजार, डीज़ल इंजिन एग्जास्ट 14700, अर्सेनिक 7600 एवं निकल से 7300। जो सेक्टर सर्वाधिक खतरनाक माने गये हैं और जिनमें सर्वाधिक घटनाएं हुई हैं, उनमें खनन, विनिर्माण, बिजली तथा प्राकृतिक गैस हैं। इस रिपोर्ट पर सिडनी में चल रही 23वीं कांग्रेस में चर्चा होगी जिसमें सुरक्षित कार्य पद्धति विकसित करने सम्बन्धी उपाय सुझाए जायेंगे। काम के दौरान घायल होने वालों की संख्या तो करोड़ों में है जो यह बतलाता है कि कामकाजी जनता के लिये सुरक्षित कार्य संस्कृति विकसित करने की दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह रिपोर्ट ऐसे वक्त पर आई है जब भोपाल गैस त्रासदी के करीब 40 साल पूरे होने जा रहे हैं। 2 व 3 दिसम्बर, 1984 की मध्य रात्रि को यहां स्थित यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से 45 टन मिथाइल आईसोसाइनेट का रिसाव हुआ था। इससे 15 से 20 हजार लोग मारे गये थे और करीब 6 लाख लोगों पर उसका प्रभाव पड़ा था। इनमें बड़ी तादाद में सामान्य जनता के अलावा संयंत्र के कर्मचारी थे जो या तो कार्यरत थे अथवा आसपास ही रहते थे। बेशक मरने वाले गैर कर्मचारी अधिक हैं परन्तु यह बतलाने के लिये ये आंकड़े पर्याप्त हैं कि कर्मचारियों को किन हालात में काम करना पड़ता है। इस त्रासदी को अब तक की दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक आपदा के रूप में निरूपित किया जाता है।
कारखानेदारों की औद्योगिक सुरक्षा एवं पर्यावरण संरक्षण पर खर्च न करने की प्रवृत्ति से काम करने वालों की जान हमेशा जोखिम में रहती है। शासकीय विभाग एवं नियामक एजेंसियां भी इस ओर ध्यान नहीं देतीं। संवेदनहीन सरकारी मशीनरी व सरकारें सर्वहारा की बजाये पूंजीपतियों की पक्षधर होती हैं जिसका परिणाम यह मौतों वाली कार्य संस्कृति है।