भारत को लेकर अमेरिका की चिंता
अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए बने अमेरिकी आयोग यूएससीआईआरएफ ने बाइडेन सरकार से अमेरिकी धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम के तहत भारत को 'विशेष चिंता वाला देश' घोषित करने का आह्वान किया है;
अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए बने अमेरिकी आयोग यूएससीआईआरएफ ने बाइडेन सरकार से अमेरिकी धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम के तहत भारत को 'विशेष चिंता वाला देश' घोषित करने का आह्वान किया है। यह आयोग 2020 से लगातार ऐसी ही मांग उठाते आया है। इस साल फिर आयोग ने कहा है कि भारत व्यवस्थित तरीके से लोगों की धार्मिक आजादी और आस्था को निशाना बना रहा है।
इसलिए भारत को विशेष चिंता का देश नामित किया जाए। खास बात यह है कि इस बार भारत के लिए यह नकारात्मक टिप्पणी विदेशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों को कथित रूप से निशाना बनाने का हवाला देते हुए की गई है। कुछ समय पूर्व कनाडा में खालिस्तान आंदोलन से जुड़े हरदीप सिंह निज्जर की हत्या और उसके बाद अमेरिका में इसी तरह गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश को आयोग ने चिंताजनक बताया है। हालांकि इन दोनों मामलों पर भारत की प्रतिक्रिया को लेकर विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने कहा है कि जरूरी नहीं कि दोनों मुद्दे एक जैसे हों। उन्होंने कहा कि भारत एक ऐसा देश है जहां हम जो करते हैं जिम्मेदारी से करते हैं।
अच्छी बात है कि भारत सरकार कहीं तो ये स्वीकार कर रही है कि वो जो करती है जिम्मेदारी से करती है। वर्ना पिछले कुछ सालों में तो यही दिख रहा है कि बड़े-बड़े फैसले बिना किसी जिम्मेदारी के लिए जा रहे हैं। नोटबंदी और लॉकडाउन जैसे फैसले इसकी मिसाल हैं, जिनमें लाखों लोग प्रभावित हो गए और फिर भी कहीं किसी की जिम्मेदारी नहीं तय हुई। अभी संसद पर इतने सनसनीखेज तरीके से धुएं का हमला किया गया, उस पर भी सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग, जिम्मेदार तरीके से जवाब देने से बचते रहे हैं। अब कम से कम विदेश मंत्री ने जिम्मेदारी से काम करने की बात तो मानी है। इसके बाद अब विदेश मंत्री को इस बात का जवाब भी दे देना चाहिए कि आखिर क्यों अमेरिकी आयोग लगातार तीसरे साल भारत की धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर चिंताजनक टिप्पणी कर रहा है। जिस तरह प्रेस की स्वतंत्रता से लेकर भुखमरी के आंकड़ों तक भारत हर अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग को गलत बताता आया है, और इससे पहले अमेरिकी आयोग की धार्मिक स्वतंत्रता की रिपोर्ट को भी खारिज करता आया है, इस साल की रिपोर्ट को भी रद्दी की टोकरी में डाला जा सकता है। लेकिन अयोध्या के बाद मथुरा और काशी में अपने संकल्प को पूरा करने के लिए तैयार बैठी भाजपा क्या यह बताएगी कि आखिर साल दर साल एक जैसी ही चिंता क्यों व्यक्त की जा रही है। कहीं कोई चिंगारी सुलग तो रही है, जिसका धुआं अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नजर आने लगा है।
अयोध्या में राम मंदिर तो बन कर लगभग तैयार हो ही चुका है, इस बीच पिछले साल काशी में ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे के लिए अदालती आदेश जारी हुआ था और अब मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले में कोर्ट की निगरानी में सर्वे कराने की मांग स्वीकार कर ली गई है। 1991 में लागू किया गया प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट अब अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है, जिसमें कानूनी प्रावधान है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। जब यह कानून बनाया गया था, उस वक्त किसी ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने का उन्माद इतने व्यापक तौर पर असर दिखाने लगेगा। लेकिन 30 सालों में गंगा-जमुना में इतना पानी बह गया है कि गंगा-जमुनी संस्कृति भी वक्त की धार में खो गई है। अब जो जितनी नफरत के साथ राजनैतिक सौदेबाजी करेगा, वो उतना बड़ा नेता कहलाएगा। तो इस वक्तदेश में सत्ताधारी लोगों में बड़ा नेता बनने की होड़ लगी हुई है।
केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने हलाल और झटके के मांस पर राजनीति करते हुए कहा है कि मैं उन मुसलमानों की प्रशंसा करता हूं जो केवल हलाल मांस ही खाते हैं। अब हिंदुओं को अपनी धार्मिक परंपराओं के प्रति इसी तरह की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी चाहिए। गिरिराज सिंह ने कहा कि हत्या करने का हिंदू तरीका झटका है। इसलिए हिंदुओं को हमेशा झटका पर कायम रहना चाहिए। अब तक नवरात्रि और सावन के महीने में मीट की दुकानें बंद करने की मुहिम छेड़ी जाती थी। फिर कई जगहों पर धार्मिक स्थलों के आसपास मांस की दुकानें बंद करवाई गईं। जयपुर में मांसाहारी खाद्य वस्तुओं के ठेले बंद करवाने का अभियान छेड़ा गया, हालांकि पांच सितारा होटलों पर ऐसा कोई जोर नहीं दिखाया गया। और अब हलाल और झटके के मांस को लेकर राजनेता सलाह देने लगे हैं कि किसे क्या खाना चाहिए और क्यों खाना चाहिए।
उधर असम में बीते बुधवार सरकार संचालित और सरकारी सहायता प्राप्त 'एमई मदरसों' यानी मिडिल स्कूल मदरसों को तत्काल प्रभाव से सामान्य स्कूलों में बदलने का निर्देश दिया गया है, जिसके बाद राज्य के 1,281 मदरसे अब एम ई स्कूल कहलाएंगे, मदरसा नहीं। अरबी के शब्द मदरसा का अर्थ पाठशाला, विद्यालय या स्कूल ही होता है। लेकिन धर्म के नाम पर भेदभाव करने वाले लोग भाषा के भेद को समझ नहीं सके। उन्हें इस्लाम से ही नहीं, अरबी के शब्द से भी तकलीफ होने लगी। क्योंकि अपने संकुचित नजरिए में वे यह देख ही नहीं पाए कि मदरसा केवल धार्मिक शिक्षा तक सीमित नहीं होता है, जहां कहीं भी ज्ञान की शाला लगती है, वो मदरसा ही कहलाएगा।
दरअसल असम में भाजपा सरकार ने 2021 में मदरसा शिक्षा-संबंधित दो अधिनियमों को समाप्त करने के लिए एक कानून बनाकर सभी सरकारी और प्रांतीय मदरसों को बंद करने की प्रक्रिया शुरू की थी, तब हिमंता बिस्वासरमा शिक्षा मंत्री थे। अब वे मुख्यमंत्री हैं और उनकी सरकार मदरसों को बंद करने पर तुली है। भाजपा का तर्क है कि सरकारी पैसे पर धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। लेकिन क्या यह तर्क सरस्वती शिशु मंदिर जैसे शिक्षा संस्थानों पर भी लागू होगा, यह विचारणीय है।
बहरहाल, हलाल, झटका और मदरसा बनाम स्कूल तक के तमाम विवाद कपड़ों की पहचान के गुजरात मॉडल को ही अभिव्यक्त कर रहे हैं। जब तक सत्ता हाथ में है, तब तक इस बात की फिक्र क्यों की जाए कि भारत में बढ़ रही धार्मिक असहिष्णुता को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसी छवि बन रही है।