ईरान पर अमेरिकी हमला

डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेताओं के हाथ में सत्ता आ जाने का कितना खतरनाक अंजाम होता है;

Update: 2025-06-23 02:48 GMT

डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेताओं के हाथ में सत्ता आ जाने का कितना खतरनाक अंजाम होता है, इसका उदाहरण रविवार को फिर से दुनिया ने देख लिया। इजरायल और ईऱान के बीच पिछले 10 दिनों से चल रहे युद्ध में अमेरिका भी कूद पड़ा। ईरान के फोर्डो, नतांज और एस्पहान इन तीन परमाणु संयंत्रों पर अमेरिकी बमवर्षक विमानों ने बम गिराए और वापस लौट गए। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने व्हाइट हाउस से राष्ट्र को संबोधित करते हुए इस अभियान को एक 'शानदार सफलता' बताया। साथ ही उम्मीद जताई कि उनका यह क़दम एक स्थायी शांति का रास्ता खोलेगा, जिसमें ईरान के पास परमाणु शक्ति बनने की संभावना नहीं रहेगी।

अभी गुरुवार तक ट्रंप कह रहे थे कि वो दो हफ्ते तक विचार करेंगे, इसके बाद कोई फैसला लेंगे। इससे पहले कनाडा से लौट कर ट्रंप ने ईरान को बिना शर्त समर्पण करने कहा था। ट्रंप को लगा होगा कि ऐसी घुड़की काम कर जाएगी, लेकिन ईरान की तरफ से सुप्रीम नेता अयातुल्लाह अली खामनेई ने भी बता दिया कि ईरान सरेंडर करने वाली कौम नहीं है। खामनेई ने यह भी कहा कि मुझे मारकर भी अमेरिका को कुछ हासिल नहीं होगा, क्योंकि ये युद्ध ईरान की सेना, उसके युवा लड़ रहे हैं। खामनेई को ऐसा वक्तव्य शायद इसलिए देना पड़ा क्योंकि इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने खुलेआम उन्हें मारने की धमकी दी। दुनिया में बहुत से बड़े युद्ध हुए हैं, लेकिन किसी देश के नेता ने दुश्मन देश के नेता की हत्या की धमकी दी हो, इसके उदाहरण कम हैं। युद्ध में एक देश, दूसरे देश को मात देने की बात करता है, गुंडों की तरह हत्या की नहीं। मगर अमेरिका और इजरायल ये दोनों इस समय पूरे दुनिया में अपनी गुंडागर्दी चलाते दिख रहे हैं और इनकी वजह से फिर विश्व युद्ध का खतरा खड़ा हो गया है।

विडंबना ये है कि ट्रंप और नेतन्याहू कहते हैं कि शक्ति से ही शांति आएगी। यानी अब विश्वशांति की परिभाषा भी इनके हिसाब से लिखी जाए, ऐसा माहौल बनाया जा रहा है। इसके बाद अगर ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार मिल भी जाए, तो क्या आश्चर्य। जब शांति के तकाजे बदल रहे हैं तो फिर गुंडों को ही रक्षक और शांतिदूत माना जाएगा।
दुख की बात ये है कि इस पूरे प्रकऱण में भारत की भूमिका दुनिया की निगाह में संदिग्ध हो रही है।

नरेन्द्र मोदी से पहले किसी प्रधानमंत्री ने अमेरिका या इजरायल के खिलाफ इस तरह की असमर्थता नहीं दिखाई कि उनके गलत फैसलों पर कुछ न बोलें, पीड़ितों के साथ खड़े न हों। शनिवार को कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने मोदी सरकार को आगाह किया था कि अब भी देर नहीं हुई है, इजरायल के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए। वहीं रविवार को फारुख अब्दुल्ला ने कहा कि आज ईरान की बारी है, कल हमारी होगी। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री का कोई आधिकारिक बयान इस पर नहीं आया है।

जबकि भारत स्थित ईरानी दूतावास और इजरायली दूतावास अपने-अपने देशों का पक्ष रख रहे है। ट्रंप को नोबेल पुरस्कार देने की सिफारिश करने वाला पाकिस्तान भी अमेरिका के हमले को अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताते हुए उसकी निंदा कर रहा है, लेकिन हमारा नेतृत्व अभूतपूर्व तरीके से चुप है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने चेतावनी दी है कि अमेरिकी फ़ैसले से संघर्ष बढ़ने पर 'अराजकता का सिलसिला' शुरू हो सकता है क्योंकि मध्य पूर्व पहले से ही 'तनाव की स्थिति' में है। लेकिन ट्रंप की धमकी है कि जरूरत पड़ी तो इस तरह के हमले और किए जाएंगे। दरअसल इस हमले के बाद भी ईरान ने इजरायल पर मिसाइलें दागी हैं। वहीं अंतरराष्ट्रीय परमाणु निगरानी एजेंसी आईएईए ने बताया है कि ईरान के तीन परमाणु ठिकानों, जिनमें फ़ोर्दो भी शामिल है, पर हुए हमलों के बाद अभी तक वहां के आसपास के इलाके़ में रेडिएशन बढ़ने की कोई ख़बर नहीं है। इसका मतलब ये है कि अमेरिका जो नुकसान पहुंचाना चाहता था, वह ईरान को नहीं पहुंचा है। तो अब सवाल है कि क्या अमेरिका फिर से कोई नया हमला करेगा। हालांकि अब ट्रंप अपनी मनमानी जारी रख पाएंगे, इसमें संदेह है क्योंकि अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना किया गया हमला अब ट्रंप को भारी पड़ सकता है।

ट्रंप को उम्मीद है कि अमेरिकी हमलों से ईरान बातचीत की मेज़ पर ज़्यादा रियायतें देने को मजबूर होगा। लेकिन ऐसा लगता नहीं कि अब ईरान अमेरिका से बातचीत को तैयार होगा। वैसे ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में कोई नया युद्ध शुरू न करने पर गर्व किया था और इस बार चुनाव प्रचार में ट्रंप ने उन पूर्व राष्ट्रपतियों की आलोचना की, जिन्होंने अमेरिका को विदेशी युद्धों में झोंक दिया। बराक ओबामा के लिए उन्होंने कहा था कि बातचीत से मुद्दों को सुलझाने का कौशल उनमें नहीं है, इसलिए अमेरिका को युद्ध में झोंक दिया। अब ट्रंप क्या खुद के लिए ऐसा कह पाएंगे।

अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश माना जाता है, क्योंकि उसके पास परमाणु हथियारों के बड़े जखीरे के अलावा दुनिया के तमाम शक्तिशाली हथियार और सैन्य उपकरण हैं। अमेरिकी जनता के टैक्स का बड़ा हिस्सा सैन्य संसाधन पर खर्च होता है। यह सब अमेरिका इसलिए करता है ताकि दुनिया पर उसका दबदबा बना रह सके। जिन देशों के पास प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन वे आर्थिक या सैन्य शक्ति संपन्न नहीं हैं, उन्हें अपने चंगुल में फंसा कर मुनाफा कमाना पूंजीवादी अमेरिका को बहुत अच्छे से आता है। अमेरिका की सत्ता की डोर सीधे-सीधे बड़े कारोबारियों, हथियारों के व्यापारियों के हाथ में है। इसलिए ट्रंप को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अपनी सेना के साथ, सेना के साजो सामान की भी तारीफ करनी पड़ी। यानी युद्ध का मामला विशुद्ध व्यापारिक है, यह जाहिर हो चुका है। मगर इस बार ईरान पर वार कर ट्रंप ने अपनी सत्ता दांव पर लगा दी है।

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