स्पीकर चुनाव: मत विभाजन न कराकर क्या विपक्ष ने एक बड़ा अवसर खोया?
लोकसभा चुनाव के मिश्रित नतीजों के बाद से राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए सबसे ज़्यादा जिज्ञासा का विषय यह था कि अठारहवीं लोकसभा की स्पीकर की कुर्सी पर कौन बैठेगा;
- आलोक बाजपेयी
दीपेंद्र हुड्डा के साथ कठोर व्यवहार से विपक्ष की आंखें खुल गई हैं। विपक्ष के नेता खुलकर अघोषित इमरजेंसी और श्री बिड़ला के एकतरफा व्यवहार का मुद्दा उठा रहे हैं। श्री हुड्डा के कथित अपमान के राजनीतिक दोहन की भी तैयारियां हैं। विपक्ष की रणनीति यह दिखती है कि सदन के भीतर बिड़ला जी विपक्षी सांसदों को भड़काकर उनके खिलाफ़ कार्यवाही का मौका ढूंढ रहे हैं तो उनका विरोध उन नेताओं से कराया जाए तो सदन में हैं ही नहीं। इसी रणनीति के तहत प्रवक्ताओं ने श्री बिड़ला और मोदी सरकार पर खुलकर हमला बोला है।
लोकसभा चुनाव के मिश्रित नतीजों के बाद से राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए सबसे ज़्यादा जिज्ञासा का विषय यह था कि अठारहवीं लोकसभा की स्पीकर की कुर्सी पर कौन बैठेगा? पहले यह कयास लगे कि एनडीए के बहुमत के लिए ज़रूरी घटक दल ख़ासकर टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू इस पद को अपने पास रखने की शर्त रखेंगे। नीतीश कुमार और नायडू दोनों अपने दलों को संभावित टूट से बचाने के लिए यह पद भाजपा को सौंपने का खतरा नहीं मोल लेंगे। लेकिन मोदी 3.0 ने मंत्रिमंडल गठन में भी सभी महत्वपूर्ण मंत्रालय भाजपा के पास रखकर और स्पीकर का पद भी भाजपा के लिए रखकर घटक दलों की आशाओं पर पानी फेर दिया। लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में दूसरा पेंच तब आया जब संसदीय परंपरा की दुहाई देकर स्पीकर के चुनाव में समर्थन देकर अपने लिए डिप्टी स्पीकर की मांग कर रहे इंडिया ब्लॉक को मध्यस्थता कर रहे राजनाथ सिंह ने कोई आश्वासन नहीं दिया और इंडिया ब्लॉक ने नाराज़ होकर स्पीकर चुनाव में अपना प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी और लगभग 46 साल बाद देश में लोकसभा अध्यक्ष हेतु चुनाव देखा।
यूं देखा जाए तो स्पीकर से पहले प्रोटेम स्पीकर के चुनाव से ही इंडिया ब्लॉक और एनडीए के बीच तनातनी शुरू हो गई थी। इस पद पर सबसे वरिष्ठ सांसद को आसीन कर उन्हें सम्मान देने की परंपरा रही है। लेकिन इन दिनों चौतरफा आक्रमण झेल रहे मोदी-शाह की जोड़ी ने सिर्फ अपने आप को पहले की तरह मजबूत और सभी दबावों से ऊपर दिखाने के लिए प्रोटेम स्पीकर के पद पर भी सबसे वरिष्ठ आठ बार के सांसद कांग्रेस के के. सुरेश की बजाए भाजपा के भर्तृहरि महताब को आसीन किया। एक तरह से टकराव की शुरुआत होने भाजपा की ओर से होने के बाद विपक्षी दलों ने लोकसभा अध्यक्ष पद हेतु अपना स्टैंड रखने की सोची और पुरानी परंपरा के अनुसार डिप्टी स्पीकर का पद अपने लिए मांग लिया। यहां ध्यान रहे कि पिछली अर्थात सत्रहवीं लोकसभा में बहुमत के मद में भाजपा सुप्रीमो ने डिप्टी स्पीकर पद खाली ही रखा था और स्पीकर श्री ओम बिड़ला ने पूरी तरह मोदी -शाह के हितों के लिए ही काम करते हुए संसदीय मर्यादा के कई प्रतिमान ध्वस्त किए थे। वास्तव में बड़ी संख्या में सांसदों के निलंबन, निष्कासन और विपक्ष को बाहर कर लगभग बिना बहस के बिलों को पास कराने के आरोप उन पर लगे। यदि लोकसभा अध्यक्षों के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो ओम बिड़ला का पहला कार्यकाल बहुत नीचे की पायदान पर आएगा। ज़ाहिर है, ऐसे में न तो विपक्ष और न ही एनडीए के घटक दल चाहते थे कि श्री बिड़ला की स्पीकर पद पर वापसी हो। शिवसेना सांसद श्री संजय राउत ने तो यहां तक कहा कि श्री ओम बिड़ला ने एक साथ सौ से अधिक सांसदों को निलंबित कर दिया था और ऐसा लोकतंत्र विरोधी कदम तो इमरजेंसी में भी नहीं उठाया गया था। लेकिन, अठाहरवीं लोकसभा के संख्या बल की चुनौतियों को समझ रहे नरेन्द्र मोदी ने अपने जाने-परखे व्यक्ति पर ही भरोसा जताया। इसका नतीजा यह निकला कि संसद के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब चुने गए लोकसभा अध्यक्ष के स्वागत भाषण में सांसदों ने ख़ूब उलाहने और भविष्य में संतुलन बनाकर काम करने की ताक़ीद ज़्यादा दी गई।
लेकिन उन सारे उलाहनों से इस सच्चाई पर कोई फ़क़र् नहीं पड़ता कि तमाम विरोधों के बाद भी मोदी-शाह अपनी पसंद का स्पीकर चुनने में क़ामयाब रहे। इंडिया ब्लॉक के हिस्से स्पीकर चुनाव में सिफ़र् यह आया कि नेता प्रतिपक्ष के रूप में श्री राहुल गांधी प्रधानमंत्री के साथ उन्हें आसंदी तक छोड़ने गए और उनसे हाथ मिलाया। जबकि जिस ढंग से विपक्ष ने स्पीकर चुनाव को निर्विरोध ना होने देने के लिए टाल ठोंकी थी या कहें कि उन्हें ताल ठोंकने के लिए मजबूर किया गया था, उसे देखते हुए लग नहीं रहा था कि सब कुछ इतनी आसानी से हो जाएगा। कांग्रेस के उम्मीदवार श्री के. सुरेश के दलित होने से उन्हें कुछ अतिरिक्त लाभ की उम्मीद थी। जब सारा देश क़यास लगा रहा था कि के. सुरेश कितनी कड़ी टक्कर दे पाएँगे या क्या उन्हें नीतीश-नायडू का साथ भी मिल सकेगा, तभी दो दिक्कतें इंडिया ब्लॉक के सामने आईं। पहली तकनीकी थी। प्रोटेम स्पीकर के चयन में भाजपा की मनमानी का विरोध करने के लिए सात निर्वाचित सांसदों ने लोकसभा की सदस्यता की शपथ नहीं ली थी। लेकिन जिस वक्त शपथ नहीं ली थी उस समय किसी को स्पीकर पद हेतु चुनाव का अंदाज़ा नहीं था। बिना शपथ के ये सांसद चुनाव में भाग लेने के पात्र नहीं थे और इस तरह विपक्ष का संख्या बल थोड़ा कम हो गया।
स्पीकर चुनाव के लिए इंडिया ब्लॉक की मुहिम को अच्छा समर्थन मिला था और कुछ राजनीतिक विश्लेषक तो गुप्त मतदान होने की सूरत में अप्रत्याशित नतीज़ो की संभावना भी देखने लगे थे। चुनाव हार जाने की सूरत में भी सरकार को स्पष्ट विरोध का संदेश तो मिलना ही था। लेकिन संभवत: तभी श्री राहुल गांधी के सलाहकार सक्रिय हुए और उन्हें शुरुआत सकारात्मक समन्वय और सामंजस्य की राजनीति से करने इत्यादि के पक्ष में मनाया जाने लगा। श्री राहुल गांधी एक बार फिर अपने प्रतिद्वंदियों की फितरत समझे बिना अपने सलाहकारों की बातों में आ गए और बिना मत विभाजन के मांग के सिर्फ ध्वनि मत से स्पीकर के चुनाव के लिए तैयार हो गए। हुआ भी ऐसा ही और देश में सबसे ज़्यादा विपक्ष विरोधी लोकसभा अध्यक्ष कहे जाने वाले श्री ओम बिड़ला लगातार दूसरी बार लोकसभा के अध्यक्ष चुने जाने का गौरव पा गए।
इतने जोर शोर से ऐलान के बाद कांग्रेस बिना वोटिंग के स्पीकर का चुनाव हो जाने देगी, इस बात पर सहज यक़ीन करना मुश्किल था। ध्वनि मत से श्री बिड़ला के चुने जाने की घोषणा के बाद मत विभाजन की मांग की आवाज़ भी सुनाई दी। मज़े की बात यह है कि सबसे पहले किसी विपक्षी सांसद नहीं बल्कि एनडीए के घटक दल जेडीयू के सांसद लल्लन सिंह ने पूछा कि क्या वोटिंग नहीं होगी? यह भी इस बात का संकेत करता है कि यदि गुप्त मतदान होता तो श्री बिड़ला के व्यवहार को पसंद न करने वाले कुछ सांसद क्रॉस वोटिंग कर सकते थे। वहां टीएमसी के सांसद अभिषेक बैनर्जी ने तो प्रोटेम स्पीकर पर आरोप ही लगा दिया कि उन्होंने मांग करने पर भी मत विभाजन नहीं होने दिया। इस पर कांग्रेस के जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि सकारात्मक राजनीति से शुरुआत करने के लिए कांग्रेस ने मत विभाजन की मांग की ही नहीं थी। इंडिया ब्लॉक के दो महत्वपूर्ण नेताओं का इस तरह अलग-अलग बयान देना कहीं न कहीं रणनीति और आपसी संवाद की कमज़ोरी की ओर इशारा करता है। ज़ाहिर है नेता प्रतिपक्ष के रूप में अपनी भूमिका बेहतर ढंग से निभाने के लिये राहुल गांधी को ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचना होगा।
प्रधानमंत्री श्री मोदी के भाषण में जिस सकारात्मक, समन्वय वाली और समावेशी राजनीति की बात से प्रभावित होकर और अपने सलाहकारों की बातों में आकर राहुल गांधी ने मत विभाजन का अवसर गंवाया, उसकी असलियत कुछ ही घंटों में सामने आ गई। कोई पचास साल पहले लगाई गई इमरजेंसी के खिलाफ़ निंदा प्रस्ताव स्वयं नव निर्वाचित स्पीकर लेकर आए। सदन के भीतर और बाहर इमरजेंसी को लेकर सत्ता पक्ष विपक्षी दल की तरह तेवरों के साथ प्रदर्शन करता रहा। डिप्टी स्पीकर पद को लेकर भी कोई स्थिति अब तक स्पष्ट नहीं है।
जिस तरह से भाजपा आलाकमान का पूरी तरह अनुसरण करने वाले स्पीकर महोदय पहले ही दिन से इमरजेंसी पर निंदा प्रस्ताव लाने के साथ ही स्कूल के हेडमास्टर के अंदाज़ में विपक्षी सांसदों को धमकाया कि स्पीकर खड़े हो जाए तो सदस्यों को बैठ जाना चाहिए और ये बात उन्हें पांच साल में दोबारा न कहनी पड़े, उससे विपक्ष के श्री बिड़ला द्वारा पहले दिये गये घाव हरे हो गए। उन्हें याद आ गया कि श्री बिड़ला के नाम एक सत्र में सर्वाधिक लगभग 146 सांसदों को निलंबित करने का रिकॉर्ड है। बार-बार विपक्षी सांसदों के माइक बंद करने, एक घंटे से भी कम चर्चा में बिल पास कराने और बिना विपक्ष की उपस्थिति के बिल पास कराने जैसी सारी पुरानी बातें याद आ गईं। इतना ही नहीं दूसरे दिन भी पांच बार के सांसद और इस बार लगभग साढ़े तीन लाख मतों की मार्जिन से जीते सर्वथा अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाने वाले सांसद श्री दीपेंद्र हुड्डा को बुरी तरह फटकार कर श्री बिड़ला ने संकेत दे दिया कि वे विपक्षी सांसदों पर कार्यवाही का कोई मौका चूकेंगे नहीं। ज्ञातव्य है कि पिछले कार्यकाल में भी उन्होंने भाजपा के एक भी सांसद, यहां तक कि संसद भवन में अपशब्द कह देने वाले भाजपा सांसद के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की थी। इसी तरह नई लोकसभा की शपथ के समय संविधान की भावना के विपरीत जय हिंदू राष्ट्र का नारा लगाने वाले भाजपा सांसद पर वे खामोश रहे और श्री शशि थरूर द्वारा जय संविधान का नारा लगाने पर भड़क गए। निश्चय ही पहले दो दिन में जो ट्रेलर दिखा है, उसके कई एपिसोड आने वाले दिनों में दिखेंगे और हर ऐसी घटना के बाद विपक्ष सोचने पर मजबूर होगा कि बिना मत विभाजन चुनाव का निर्णय ग़लत था।
दीपेंद्र हुड्डा के साथ कठोर व्यवहार से विपक्ष की आंखें खुल गई हैं। विपक्ष के नेता खुलकर अघोषित इमरजेंसी और श्री बिड़ला के एकतरफा व्यवहार का मुद्दा उठा रहे हैं। श्री हुड्डा के कथित अपमान के राजनीतिक दोहन की भी तैयारियां हैं। विपक्ष की रणनीति यह दिखती है कि सदन के भीतर बिड़ला जी विपक्षी सांसदों को भड़काकर उनके खिलाफ़ कार्यवाही का मौका ढूंढ रहे हैं तो उनका विरोध उन नेताओं से कराया जाए तो सदन में हैं ही नहीं। इसी रणनीति के तहत प्रवक्ताओं ने श्री बिड़ला और मोदी सरकार पर खुलकर हमला बोला है। ज़ाहिर है अठारहवीं लोकसभा का हनीमून पीरियड शुरू होने के साथ ही समाप्त हो चुका है और आने वाले दिनों में सरकार और विपक्ष के बीच लगातार हर संभव मौके पर तनातनी के आसार हैं। रोचक रहने वाले हैं आने वाले सत्र, इसके पहले की दो लोकसभाओं से ठीक उलट।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक एवं संस्कृतिकर्मी हैं।)