धुरंधर की उलझन
हिन्दी फिल्मों के दर्शकों की या तो निर्माता-निर्देशकों को कोई कद्र नहीं है, या उन्होंने दर्शकों को मूर्ख मानना शुरु कर दिया है कि हम जो भी बना कर परोसेंगे, वे उसे ग्रहण कर ही लेंगे। पहले सैयारा और अब धुरंधर, हाल की दो बेहद प्रचारित फिल्मों को देखकर ऐसा ही लगा;
हिन्दी फिल्मों के दर्शकों की या तो निर्माता-निर्देशकों को कोई कद्र नहीं है, या उन्होंने दर्शकों को मूर्ख मानना शुरु कर दिया है कि हम जो भी बना कर परोसेंगे, वे उसे ग्रहण कर ही लेंगे। पहले सैयारा और अब धुरंधर, हाल की दो बेहद प्रचारित फिल्मों को देखकर ऐसा ही लगा। सैयारा एक लचर प्रेम कहानी से ज्यादा कुछ नहीं है, कोरी भावुकता के कारण फिल्म चल गई। मगर धुरंधर तो सैयारा से भी खराब फिल्म निकली।
नाम बड़े और दर्शन छोटे का मुहावरा इस फिल्म पर सटीक बैठता है। निर्देशक आदित्य धर ने मानो दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लिया है। भारत और पाकिस्तान की दुश्मनी, दोनों देशों के बीच की लड़ाइयां, आईएसआई और रॉ के जासूसों के कारनामे, आतंकवाद को बढ़ावा, आतंकी हमलों की साजिशें, पाकिस्तान के सैन्य तानाशाहों की भारत के लिए नफरत, कश्मीर को राजनैतिक तौर पर अस्थिर करने की कोशिश ऐसे कथानकों पर कई फिल्में और वेब सीरीज़ बन चुकी हैं। इनमें कुछ कहानी के हिसाब से अच्छी बनी हैं, कुछ मनोरंजन के नजरिए से बढ़िया हैं। लेकिन धुरंधर में इन सबका घालमेल कर दिया गया है। फिल्म पूरी तरह दिशाहीन है और दर्शकों को भी उलझाए रखती है।
जैसे उत्तरपुस्तिका में केवल पन्ने भरने के लिए स्पष्ट उत्तर लिखने की जगह बेवजह के संदर्भ ठूंस कर उसे बढ़ाया जाता है, ताकि जांचने वाले को लगे कि छात्र काफी जानकार है, कुछ इसी अंदाज में फिल्म को एक विषय पर केन्द्रित रखने की जगह ये भी और वो भी, सब मिलाकर बनाया गया है। निर्माता-निर्देशक पहले तो शायद इसी उलझन में रहे कि भारत-पाकिस्तान के कड़वे संबंधों पर सीरीज़ बनानी है या फिल्म। क्योंकि आम फिल्मों की तरह इसमें शुरुआत, मध्यांतर और अंत नहीं हुआ। बल्कि चैप्टर वन से फिल्म शुरु हुई और आखिरी चैप्टर के आने पर भी फिल्म खत्म नहीं हुई है, अब इसका अगला हिस्सा मार्च में आएगा, इसकी घोषणा की गई है। हर चैप्टर का एक शीर्षक है और उसी हिसाब से कहानी को आगे बढ़ाया गया है। खैर, इसे प्रयोग मानकर नजरंदाज किया जा सकता है। लेकिन फिल्म बनाने वाले शायद ये भी तय नहीं कर पाए कि उन्हें किस घटना, किस पात्र पर फिल्म को केन्द्रित करना है। सबसे शुरु में कंधार घटना दिखाई गई है, जहां इंडियन एयरलाइन्स के विमान को हाईजैक कर आतंकवादी ले गए थे। पाठक जानते हैं कि इस हाईजैक मामले में सात दिनों के बाद विमान से यात्रियों को छुड़वाया जा सका, जिसके लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने भारत की जेल में बंद तीन खूंखार आतंकियों मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद उमर सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को रिहा किया था और अपहरण करने वालों को भारी भरकम राशि भी दी थी। इस घटना में विदेश मंत्री जसवंत सिंह और मौजूदा एनएसए अजित डोभाल सरकार की तरफ से आतंकियों के सामने गए थे। फिल्म के अस्वीकरण यानी डिस्क्लेमर में काल्पनिक घटनाओं और पात्रों का जिक्र है। लेकिन फिल्म में सच और कल्पना दोनों मिला दिए गए हैं। अजित डोभाल अजय सान्याल बना दिए गए हैं। जो आतंकियों से आंख से आंख मिलाकर बात करते हैं, सात दिनों तक विमान में कैद रहने वाले आम यात्रियों से भारत मां की जय के नारे लगवाना चाहते हैं। कंधार ले जाए गए विमान में एक यात्री की हत्या आतंकियों ने की थी, जिसे बेहद वीभत्स तरीके से फिल्म में दिखाया गया है, हालांकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी।
यह वीभत्सता यहीं नहीं रुकी, आगे कई और दृश्य ऐसे आए हैं, जिनमें एक-दूसरे के खून के प्यासे इंसान दिखाने के लिए उन्हें हैवानों से भी बदतर दिखाया गया है। इन दृश्यों को पूरा देख लें तो आम इंसानों का कलेजा मुंह को आ जाए। ऐसा नहीं है कि हिन्दी फिल्मों में क्रूरता पहले नहीं दिखाई गई है। फिल्म शोले का वह दृश्य भी काफी डरावना है जिसमें गब्बर सिंह एक चींटे को मसल देता है और दर्शक समझ जाते हैं कि इमाम साहब का नौजवान बेटा अहमद मारा गया है। कहने का अर्थ यह कि क्रूरता का संदेश संप्रेषित करने के लिए किसी की बोटी-बोटी करते दिखाना, खोपड़ी फाड़ देना, शरीर में छोटे-छोटे छेद करना जरूरी नहीं है। लेकिन धुरंधर के निर्देशक ने ऐसा ही किया है। फिल्म में संपादन का भी पूरी तरह अभाव दिखा है। कई दृश्य बेवजह लंबे खींचे गए हैं।
बहरहाल, कंधार के बाद 2001 में संसद पर किया हमला भी दिखाया गया और इसमें एक आतंकी वही है, जो विमान अपहरण में शामिल था। संसद हमले के कई असली फुटेज फिल्म में दिखाए गए हैं। एक बार फिर अजय सान्याल आते हैं जो लगातार इस कोशिश में हैं कि पाकिस्तान को जवाब देने के लिए नए तरीकों का इस्तेमाल हो। वे एक योजना बनाते हैं, जिसे आखिरकार अमल में लाया जाता है। धुरंधर के नाम पर चीयर्स करते हुए इस योजना के तहत रणवीर सिंह को हमजा अली मजारी बनाकर पाकिस्तान में भेदिए की तरह पठाया जाता है। करांची के ल्यारी में दो माफिया गुटों की अदावत का फायदा उठाते हुए रहमान डकैत के गुट में मजारी शामिल होता है, और रहमान का दाहिना हाथ बन जाता है। रहमान का किरदार अक्षय खन्ना ने निभाया है। रहमान डकैत को पीएनपी नाम के राजनैतिक दल की सरपरस्ती में आगे बढ़ते दिखाया गया है, जो असल में बेनजीर भुट्टो की पार्टी पीपीपी है, पीएनपी के पोस्टर्स पर बेनजीर का चेहरा और नाम बाकायदा इस्तेमाल हुआ है। ये हकीकत है कि कराची के ल्यारी में रहमान डकैत का खौफ बना हुआ था और 2009 में उसके एनकाउंटर तक उसकी दहशत बनी रही। पाकिस्तान के बड़े नेताओं और अफसरों तक उसकी पहुंच थी। रहमान को मारने वाले चौधरी असलम की भी 2014 में आत्मघाती हमले में मौत हो गई। हालांकि धुरंधर में मजारी रहमान को मारता है। फिल्म में चौधरी असलम का किरदार संजय दत्त ने निभाया है। जिनका अभिनय सतही लगा। चौधरी असलम को बलूचों से नफरत करते दिखाया गया है, लेकिन इसकी वजह नहीं बताई गई।
बहरहाल, रहमान के जरिए मजारी उन लोगों तक पहुंचता है जो हवाला, नकली नोट, हथियारों के कारोबार से अकूत धन कमाते हैं, आईएसआई इन लोगों को बढ़ावा देता है और इनके जरिए आतंकी कैंप चलाता है। हमज़ा अली मज़ारी मुंबई हमलों की तैयारी से वाकिफ होता है और इसकी सूचना भारत तक भेजता है। लेकिन फिर भी इस हमले को रोका नहीं जा सका। इस हमले के फिल्मांकन में भी कई असली फुटेज दिखाए गए हैं। रहमान की मदद से ही आईएसआई को मुंबई हमलों के लिए हथियार मिले ऐसा फिल्म में बताया गया है। इस काम में जिन व्यापारी बंधुओं की मदद ली गई है, वो भारत के नकली नोट छापते हैं और बताया गया है कि नकली नोट छापने के लिए करेंसी प्लेट उन्हें भारत के एक मंत्री और बेटे ने दुबई में दी है। फिल्म में एक अधिकारी अजय सान्याल को बताता है कि मंत्री और उसका बेटा लंदन से ये प्लेटें ला रहे थे और बीच में दुबई रुक गए, वहीं आईएसआई और पाकिस्तानी व्यापारी को प्लेट्स दे दी गई। ये दृश्य हास्यास्पद और सच से कोसों दूर है। भारत में नोट प्रिंट करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक और सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड के बीच अहम जिम्मेदारियां बंटी होती है। देवास (मध्य प्रदेश), नासिक (महाराष्ट्र), मैसूर (कर्नाटक) और सालबोनी (पश्चिम बंगाल) इन चार जगहों पर ही नोट छापे जाते हैं। इन प्रेसों की सुरक्षा ऐसी होती है कि इसके अंदर आने की बात तो दूर, बाहर भी आसपास खड़े रहने की आम लोगों को इजाजत नहीं होती। कुछ अनुमति प्राप्त उच्चाधिकारी ही इन प्रेस में विशेष अनुमति मिलने के बाद आ सकते हैं। सरकारी प्रेस में एक बेहद सीक्रेट जगह पर नोट छापने की प्लेट्स रखी होती हैं। प्रेस में इसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए भी नियम बनाए गए हैं। कैमरा, बायोमेट्रिक, सुरक्षा गार्ड और अन्य अत्याधुनिक सिक्योरिटी तकनीक की निगरानी में ये प्लेट्स रखी रहती हैं। जब इसका इस्तेमाल किया जाता है तो एक प्रोटोकॉल के तहत इन्हें गुप्त दराजों से निकाला जाता है। कब कौन सी प्लेट का इस्तेमाल हुआ। कितनी देर ये तिजोरी से बाहर रही, कब इसे फिर से तिजोरी में रखी गईं, हर एक चीज का रिकॉर्ड रखा जाता है। इन करंसी प्लेट्स का एक समय तक इस्तेमाल होता है, फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है। ये काम भी एक निश्चित नियम के तहत होता है। फिल्म में करेंसी प्लेट की चोरी या नकल जितनी आसान दिखाई जाती है, वो असल में नामुमकिन है, क्योंकि, ऐसे प्रेस बहुस्तरीय सुरक्षा घेरे में होते हैं। प्लेट्स की चोरी तो दूर उसके पास भी अगर कोई पहुंच जाए तो पूरे सिस्टम को अलर्ट चला जाता है और जांच शुरू हो जाती है।
यह सही है कि नकली नोटों का कारोबार होता है, लेकिन यह उस तरीके से नहीं होता, जैसा फिल्म में दिखाया गया है। धुरंधर में भारत से जुड़ी तीन बड़ी आतंकी घटनाओं के तार पाकिस्तान से जुड़े होने का सच तो दिखाया गया है, इसमें पहली दो घटनाएं एनडीए शासनकाल में हुई हैं, और तीसरी यूपीए के शासन में हुई है। इसी में सुरक्षा में चूक और मंत्री का भ्रष्टाचार दिखाया गया है, जो जाहिर तौर पर कांग्रेस पर निशाना है। फिल्म के आखिरी में ये नया भारत है घर में घुस कर मारता है, जैसे संवाद का आ जाना पक्के तौर पर मुहर लगा देता है कि धुरंधर भाजपा के प्रचारतंत्र की देन है। दुनिया के हर आतंकी हमले के पीछे इसमें पाकिस्तान का हाथ बताया गया है। अजित डोभाल या अजय सान्याल बने माधवन शुरु से हैरान, परेशान और काफी हद तक कुंठित नजर आते हैं कि देश को आतंकी हमलों से बचा नहीं पा रहे।
फिल्म का अगला भाग लाने के लिए रणवीर सिंह को जसकीरत सिंह रंगी दिखाया गया है, जिसे जेल से निकालकर अजय सान्याल पाकिस्तान में जासूसी के लिए तैयार करते हैं। इसे अनूठे प्रयोग के तौर पर दिखाया गया है, जबकि कई फिल्मों में ऐसा दिखाया जा चुका है कि किसी कैदी को देश की सेवा के लिए तैयार किया जाता है। फिल्म में आईएसआई के मेजर इकबाल (अर्जुन रामपाल) से लेकर चौधरी असलम तक सब बड़े साहब का •िाक्र करते हैं, लेकिन ये कौन है शायद इसका पता धुरंधर के अगले भाग में पता चले। कुल मिलाकर फिल्म बेहद ढीली और कमजोर है, जिसे बड़े-बड़े सितारों से मजबूत बनाने की कोशिश दिखाई दी है। राकेश बेदी ने राजनेता की भूमिका बहुत अच्छे से निभाई है और रहमान डकैत बनकर अगर अक्षय खन्ना फिल्म न संभाले तो इसमें देखने लायक कुछ नहीं है। रणवीर सिंह खली-बली के कबीलाई अंदाज से न जाने कब बाहर आएंगे।