पर्दे के राम और अयोध्या
एक शहर में सड़क से निकल रहा था। कॉलेज का समय था;
- हरिशंकर परसाई
एक शहर में सड़क से निकल रहा था। कॉलेज का समय था। आज भी जगह-जगह लड़कियाँ छेड़ी जा रही थी। उन्हे धक्का देकर गिराया जा रहा था । मगर आसपास के लोग ऐसे चल रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही नही हो । मुझसे चुप रहते ना बना और मैने एक आदमी से पूछ लिया, 'नारी की इज़्ज़त लूटी जा रही है और तुम सैकड़ों लोग विरोध नहीं करते, उनकी रक्षा नही करते । तुम लोग क्या सब नपुंसक हो?'
उसने कहा, 'आप साधु हैं । दुनियादारी समझते नहीं हैं । छेड़ने वाले भी छात्र ही हैं । मारपीट करते हैं । हम बीच में पड़कर क्यों पीटें । हम अपने काम से काम रखते हैं ।'
मैंने पास खड़े एक पुलिस इंस्पेक्टर से कहा तो वह बोला, 'हम क्या करें? ये लड़कियाँ पर हमला करनेवाले छात्र हैं और अच्छे घरों के हैं। आपका पाला अभी छात्र नेताओं से नही पड़ा । इतनी बात करने पे ही वो आपको ठोंक देते । बात यह है स्वामीजी, कि हम छात्रों से नही उलझते । हम पेशेवर गुंडे को पकड़कर हवालात में डाल दें और पिटाई कर दें, तो उसके समर्थन में गुण्डों का जुलूस नही निकलेगा । मगर इनमें से एक भी बदमाश छात्र का हाथ पकड़ लें, तो कल पुलिस के खिलाफ छात्रों का जुलूस निकल जाएगा । वे नारे लगायेंगे - छात्र वर्ग पर अत्याचार ! इंस्पेक्टर को सस्पेंड करो । छात्रों ने अपने को वर्ग बना लिया है । हम गुंडे, हत्यारे, डाकू से नहीं डरते । छात्रों से डरते हैं । समाज को ख़तरा पेशेवर गुण्डों से कम है। इन छात्रों से ज़्यादा !'
तुलसी ने पूछा, 'इंस्पेक्टर साहब क्या सभी छात्र ऐसे हो गये हैं?'
इंसपेक्टर ने कहा, 'नहीं सिफ़र् दो-तीन प्रतिशत । मगर राज़ यही करते हैं । बस में ये औरतों के चेन छीन लेते हैं । अगर बस में बैठे चालीस-पचास आदमी सिफ़र् चिल्लायें, तो भी ये डरकर ढेर हो जाएँ । पर कोई चिल्लाता भी नही है। जब पब्लिक का यह हाल है, तो हम क्या करें? जिसमें पब्लिक की रज़ामंदी है, वह होने देते हैं । हम 'पब्लिक सर्वेंट' कहलाते हैं ना!'
तुलसीदास आगे बढ़ा तो इंस्पेक्टर ने पुकारा, बोला, 'आप लड़कियाँ भगाते हैं क्या? या अफ़ीम की तस्करी करते हैं? योग क्लास चलाते हैं कहीं और राजनेताओं के लिए अनुष्ठान करते हैं ? किन तस्करों से मिले हैं ? क्या सी आई ए के एजेंट हैं?'
तुलसी ने कहा, 'मैं इनमें से कुछ नही करता ।'
इंस्पेक्टर ने कहा, 'तो क्यों ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हो? अरे जुए का अड्डा ही खोल लो मेरे क्षेत्र में । हफ़्ता देते जाना बराबर ।'
तुलसीदास को हँसी आ गयी और दारोगा समझ गया की यह किसी काम का साधु नहीं ।
तुलसीदास की भेंट शाम को एक हिन्दी के प्रोफेसर से हो गयी । वह विश्वविद्यालय परिसर में अपने बंगले ले गया ।
तुलसी ने कहा, 'अब गुरु कितने आराम से रहते हैं- बंगला है, फर्निचर है, फ्रिज है, कूलर है, बगीचा है। अब आप लोग बड़े मनोयोग से पढ़ाते होंगे ।'
आचार्य ने कहा, 'नहीं पढ़ाते । पढ़ते भी नहीं हैं । जिस दिन हमारी नियुक्ति होती है, उस दिन से हम अध्ययन बंद कर देते हैं । कारखाने का मिस्त्री तो काम करते-करते नयी कुशलता प्राप्त करता जाता है, पर हमने जो पढ़ा है, उसे भी भूल जाते हैं । हम गुटबंदी में, एक-दूसरे की टाँग खींचने में और माया जोड़ने में लगे रहते हैं । पढ़ाते भी नहीं हैं क्योंकि छात्रनेता क्लास ही नहीं लगने देते ।'
बात हो ही रही थी कि छात्रों को मेरा पता लगा । दो तीन छात्र नेता आ गये । बोले, 'तुम तुलसीदास हो न! तुमने इतना कठिन क्यों लिखा?'
तुलसी ने कहा, 'मैंने बहुत सरल लिखा है।'
छात्र नेताओं ने कहा, 'नहीं, फिर भी कठिन है । तुम 'गीतवली' फिर से सरल लिख कर जाओगे । वह कोर्स में है । छात्रों को परेशानी होती है।'
तुलसी ने कहा, 'काव्य इस तरह कह देने से नहीं लिखा जाता ।'
वे बोले, 'तुम्हें लिखना होगा, वरना विश्वविद्यालय से बाहर नही जा सकोगे। हम तुम्हारी हड्डी-पसली तोड़ देंगे ।'