शिक्षा में नवाचार का अनूठा प्रयोग है- ' नीलबाग'

आजादी के बाद देश में शिक्षा के क्षेत्र में कई नवाचार हुए हैं, उनमें से एक है कर्नाटक का नीलबाग स्कूल;

Update: 2025-04-19 02:26 GMT

- बाबा मायाराम

स्कूल की मान्यता थी कि किसी भी गतिविधि का अपना अनुशासन होता है। यानी प्रत्येक वस्तु की अपनी प्रकृति होती है, उसका अपना अनुशासन होता है। उदाहरण के लिए गीली मिट्टी के साथ सही तरह का व्यवहार करना, जिससे वह तिड़के नहीं और टेढ़ी-मेढ़ी भी न हो और जो भी आकृति हम बनाना चाहते है, बना पाए। स्वयं सामग्री का अपना अनुशासन होता है।

आजादी के बाद देश में शिक्षा के क्षेत्र में कई नवाचार हुए हैं, उनमें से एक है कर्नाटक का नीलबाग स्कूल। यह सत्तर- अस्सी के दशक में चलने वाला बहुत ही अनूठा प्रयोगशील ग्रामीण स्कूल था। इसकी शुरूआत एक ब्रिटिश शिक्षाविद् डेविड ऑसबरॉ ने की थी। आज भी इस स्कूल को शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सम्मान से याद किया जाता है। इस कॉलम में इसकी कहानी बताना चाहूंगा, जिससे शिक्षा को समग्रता से समझा जा सके।

डेविड ऑसबरॉ (David Horsburgh), अंग्रेज थे। वे दूसरे विश्व युद्ध के दौरान रॉयल एयर फोर्स में भरती हुए और भारत आए। उस समय वे भारत में ग्रामीण इलाके में रहे और उन्हें यहां के लोगों से नजदीकी से जुड़ने व उनके जीवन में झांकने का मौका मिला। युद्ध के बाद वे वापस अपने देश चले गए। लंदन में पढ़ाई पूरी की और फिर भारत आ गए। डेविड ने कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के ऋ षि वैली स्कूल में पढ़ाने का काम किया। बाद में नीलिगरी के ब्लू माउंटेन स्कू ल गए, और फिर मैसूर में अंग्रेजी महाविद्यालय शुरू किया।

मद्रास में गरीब बच्चों के लिए किताबें बनाई। ब्रिटिश काउंसिल में काम किया। और आखिर कर्नाटक के कोलार जिले में नीलबाग स्कूल शुरू किया और अंत तक इसी स्कूल को चलाते रहे। वर्ष 1984 में उनका निधन हो गया। 3-4 साल तक उनके बेटे व परिवार ने इसे चलाने की कोशिश की पर वे असफल रहे।

लेकिन नीलबाग स्कूल कैसा था, क्यों इसे शिक्षा के क्षेत्र में याद किया जाता है। मुझे इस स्कूल के बारे में शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अरविंद गुप्ता ने बताया। मैंने उनके द्वारा संपादित किताब 'नीलबाग के डेविड' पढ़ी। डेविड, एक प्रयोगशील शिक्षक थे। यह स्कूल उनकी कर्मस्थली भी थी। इस स्कूल के मकान बनाने से लेकर खेती और स्कूली पाठ्यक्रम का विचार उनका अपना था।

डेविड, एक शिक्षाविद्, प्रयोगशील शिक्षक, लेखक और संवेदनशील कवि थे। वे लकड़ी व मिट्टी के काम में भी पारंगत थे। संगीत मर्मज्ञ थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व ने ही इस स्कूल को गढ़ा और नया स्वरूप दिया।

इस स्कूल के भवन प्रसिद्ध वास्तुकार लॉरी बेकर ने बनाए थे। लॉरी बेकर, स्थानीय सामग्री से और कम कीमत में मकान बनाने के लिए जाने जाते हैं।
यह स्कूल कई मायनों में अनूठा था। यहां एक शिक्षक, एक कक्षा जैसा कुछ नहीं था। बल्कि कक्षा में सभी आयु के बच्चे एक साथ बैठ सकते थे। परीक्षा प्रणाली का कोई अस्तित्व नहीं था। यहां न तो कोई परीक्षा होती थी, और न ही किसी तरह कोई बंधन था। कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी, और न ही अन्य बच्चों से किसी बच्चे की तुलना की जाती थी। बच्चों को पूरी स्वतंत्रता थी, आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था। किसी भी तरह का दंड नहीं दिया जाता था।

इस स्कूल की न तो कोई फीस थी, और न ही स्कूल में प्रवेश की कोई औपचारिकताएं। इस स्कूल का पाठ्यक्रम भी धीरे-धीरे विकसित हुआ था। डेविड ऑसबरॉ की इसमें प्रमुख भूमिका थी। यहां का पाठ्यक्रम सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं था, बल्कि गतिविधियों पर आधारित था। इसमें हाथ से काम करके सीखने पर जोर दिया जाता था।
यहां लकड़ी का काम, मिट्टी का काम, बागवानी, कढ़ाई-बुनाई, चित्रकला, नाटक, संगीत और पर्यावरण इत्यादि कई गतिविधियों को प्राथमिकता दी जाती थी। यहां इसके लिए मिट्टी का चाक, लकड़ी काटने के औजार, संगीत के लिए वाद्य यंत्र व सभी जरूरत की चीजें उपलब्ध थीं। बच्चे लकड़ी की कई चीजें खुद ही बना लेते थे।

डेविड मानते थे कि मौजूदा शिक्षा सूचना देने का जरिया होती है, जबकि हमें बच्चों को सीखने की पूरी प्रक्रिया में शामिल करना चाहिए जिससे वे उसे समझ सकें, उसका आनंद ले सके और इससे उनमें निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो सके। इसलिए वे बच्चों को गतिविधियों में शामिल करने का मौका देते थे।

इस स्कूल में संगीत के लिए ज्यादा समय रखा गया था। यहां के बच्चे 10 भाषाओं के करीब 100 गाने गा सकते थे। डेविड मानते थे कि गाना सीखने की प्रक्रिया में बच्चे सुनना भी सीखते हैं, और यह दूसरे विषयों को सीखने में काफी मददगार होता है। यहां की गीत में बच्चों में एक दूसरे से ज्यादा ऊंचा सुनाने की होड़ नहीं थी, बल्कि वे लय व ताल व संयत स्वर में गीत गाते थे।

यहां जो भी बाहरी अतिथि आता था, बच्चे उनसे गाना सीखते थे और उसे अपने पसंदीदा गानों में शामिल कर लेते थे। वे भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषाओं के गाने भी सीखते थे। यहां बच्चे 5 भाषा सीखते थे।

सीखने-सिखाने में बड़े बच्चे छोटे बच्चों की मदद करते थे। अगर दोनों को कोई कठिनाई आती थी, तब वे शिक्षक के पास जाते थे और सब मिलकर सीखते थे। यहां की कक्षाएं समूहों में होती थीं, जिसमें शिक्षकों का बच्चों के साथ मित्रवत् व्यवहार होता था।

यहां बाहरी अनुशासन का डंडा नहीं होता था। स्कूल की मान्यता थी कि किसी भी गतिविधि का अपना अनुशासन होता है। यानी प्रत्येक वस्तु की अपनी प्रकृति होती है, उसका अपना अनुशासन होता है। उदाहरण के लिए गीली मिट्टी के साथ सही तरह का व्यवहार करना, जिससे वह तिड़के नहीं और टेढ़ी-मेढ़ी भी न हो और जो भी आकृति हम बनाना चाहते है, बना पाए। स्वयं सामग्री का अपना अनुशासन होता है।

यहां के बच्चे नाटक भी करते थे। ज्यादातर नाटक डेविड ने खुद लिखे थे। वे मंच की साज-सज्जा भी खुद ही करते थे, जिसमें स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल करते थे। प्रकाश की व्यवस्था के लिए डेविड की कार की बैटरी का इस्तेमाल किया जाता था। अगर कम ज्यादा प्रकाश करना है, तो उसकी भी व्यवस्था की जाती थी। यहां के बच्चों ने मद्रास ( अब चेन्नई) में भी नाटकों की प्रस्तुति दी।

यहां डेविड की जीवनशैली, उनके घर, खेती सब कुछ गांव की ही तरह थी। एक बैलगाड़ी भी थी, जिसे वे अतिथियों का सामान लाने ले जाने के लिए इस्तेमाल करते थे। बिजली नहीं थी, लालटेन व लैम्प से प्रकाश किया जाता था। यहां का अधिकांश काम बच्चे, शिक्षक, डेविड व उनका परिवार मिलकर करता था।

यहां शिक्षकों को भी प्रशिक्षण दिया जाता था। यहां से प्रशिक्षित शिक्षकों ने अपने स्कूल खोले, नवाचारों के लिए जाने गए। यहां से निकले शिक्षक बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं। इस तरह बहुत से लोग उनके काम से प्रेरणा लेते हैं।

यहां न केवल बच्चों को बल्कि उनके पालकों भी पढ़ाने का काम होता था। जिसमें ज्यादातर बच्चे खुद गांव के लोगों को पढ़ाते थे। इनमें से कई तो बिलकुल भी पढ़े-लिखे नए थे, जो बाद में कहानियां व किताबें पढ़ने में सक्षम हो गए। डेविड और उनका नीलबाग़ स्कूल नामक फिल्म भी हाल में बनी है, जो यूट्यूब पर उपलब्ध है।
कुल मिलाकर, यह ऐसा स्कूल था जिसका वातावरण खुला था, तनावमुक्त था, मैत्रीपूर्ण था, यहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी, बल्कि आपसी सहयोग था। सीखने-सिखाने का रचनात्मक माहौल था, एक दूसरे की मदद करने वाली मजेदार गतिविधियां थीं। यहां जो भी कार्य किया जाता, पूरी लगन से और अच्छे से किया जाता। शिक्षा सिर्फ एक दिमागी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक नए व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक है, जो इस प्रयोग से साफ दिखता है। यह प्रयोग ऐसा है, जिसे भारत में शिक्षा के नवाचार में सदैव याद किया जाएगा, और इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए राह दिखाता रहेगा।

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