जात्रा का आशियाना
मेरी जात्रा शुरू हो गई। यह प्रतिदिन का क्रम बन गया;
- डॉ, सत्यभामा आडिल
मेरी जात्रा शुरू हो गई। यह प्रतिदिन का क्रम बन गया।
बात 1986 जनवरी की है। मेरा लोकसेवा आयोग,म,प्र, से हिन्दी प्राध्यापक पद के लिए चयन हो गया और रायपुर से भटापारा कॉलेज में पोस्टिंग व स्थानांतरण हो गया। चूंकि बच्चे पढ़ रहे थे,अत: प्रतिदिन सुबह की ट्रेन से भाटापारा जाती व शाम की ट्रेन से वापस रायपुर आती। तब जाने आने के लिए उस वक्त एक-एक ट्रेन थी। प्रतिदिन एक ही दिनचर्या ।आपाधापी में घर से निकलना, वापसी में भी वही आपाधापी! यदि ट्रेन छूट गई तो? गए काम से, नौकरी छूटने का भय। बात बहुत पुरानी है। यही कोई 36 साल हो गए। .. मैं ट्रेन में बैठी हूँ। छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस रायपुर से छूटी। ड्राईवर ने पहचान लिया...
'जल्दी आइए, रूका हूँ... .अक्सर ऐसा ही बोलता वह। रोज-रोज जाने वाले हम 5 लोग एक साथ बैठ जाते... जब जल्दी में रहते। रायपुर से उरकुरा, मांढर, सिलियारी, बैकुंठ, तिल्दा, हथबन्ध, भाटापारा! हम उतरते। ड्राईवर हाथ हिलाता। हम चले शहर की ओर, रिक्शा करके कॉलेज की ओर, उधर ट्रेन चली बिलासपुर लाईन में।
शाम होते ही कॉलेज से रिक्शे में आते, फिर ट्रेन पकड़ते। तब दूसरी ट्रेन होती। लेट होने पर मूंगफल्ली लेकर बेंच में बैठ जाते। पाँचों महिलाएं! रोज जाने वाले बहुत से लोग परिचित हो गए।
लो आ गई ट्रेन। फल्ली समेटे और बैठ गए ट्रेन में आज भीड़ बहुत है। पर एक पूरा बर्थ हमने ले लिया।
वह आया डफली बजाता, छन्न-छन्न करता...थाप देता.. खनकती आवाज में गाता, फिर थाम कर पुकारता 'कोई दाता मालिक '
'दे दे अधन्ना पैसा '
'ले फल्लीवाला '
'रेवड़ी वाला '
'केला दो रूपया दर्जन'
'सिगरेट वाला'
तीखा स्वर गूँजते ही हम खीझ उठे। ये सब तेजी से निकलते गए। ये हमें रोज देखते!
'माता जसोदा फूलथे मन मा . देखे राम के झूलना '
फकीर का मधुर स्वर गूँजा ! तीन तार के वाद्य में ऊंगलियाँ चलाता गा रहा था। हम मुग्ध हो गए।
'पान बीडी ले पान बीड़ी!'
फिर तीखा स्वर ? ऊँह!! हमने मुँह फेर लिया, पीछे से स्वर गूँजा--
'कटुक वचन झन बोल रे मनुवा,
कटुक वचन झन बोल मधुर वचन हे ओसधी कटुक वचन हे तीर रे मनुवा,
कटुक वचन हे तीर!!'
हम संत वचन में डूब गए। यह संत वचन आगे.........
'कहत कबीर सुनो रे साधो
बचन भेदे सरीर हो वचन भेदे सरीरर!'
कबीर के पद संशोधित होते जा रहे। जन कवि थे कबीर। जन भाषा थी, तो जगह-जगह अपने अनुसार, ढलते गए शब्द! सचमुच बहुत मोहक पद। उपदेश वही, पर शब्द अपने अनुसार जन कवि की कविता चुराई नहीं जाती, संशोधित होती जाती है। जैसे जैसे जात्रा आगे बढ़ेगी, बानी बदलेगी और गीत, कविता वैसे ही ढलती जाएगी, पर भीतरी बात तो वही रहेगी। कबीर मानों रूप बदलकर, भेस बदलकर घूम रहे हैं।
लो ,भजन गूँजने लगा अब :
'राम कृपा होई दाता
गाऊँ मैं तोर गाथा
मोर कोनो नई ए रामा
(पुकारकर) अन्धे सूरदास पर कृपा करो माता।।'
हमारा पर्स खुला किसी ने एक, किसी ने दो का सिक्का निकाला और उसकी हथेली में डाला।
फिर तीखा स्वर गूँजा ---
'आए नीम्बू मसाला
खाए चटर पटर
खाले दही बड़े
चना चटपटी खाए
धनी होए
आए नीम्बू मसाला '
वापसी की यात्रा में-रात होते-होते दही बड़े कैसे खाएं? मन पसन्द चीजें परोस रहे, पर हम नहीं ले रहे। एक ने कहा -- 'चलो चटपटी ले लें क्या? भूख भी लगी है ।'
मैंने मना किया : 'देखो रायपुर आ रहा है। घर ही तो जाना है। मत लो! वह मान गई : 'सच तो है! पर रोज-रोज देखते देखते मन
कुलबुलाने लगता है खाने के लिए!'
'तो दिन में खा लेना कल?' -- मैंने कहा।
'ओह, तब तो खाना खाकर और टिफिन लेकर निकलते हैं ना? आखिर कब खाएं? इस समय भूख लगती है। इनकी आवाज सुनकर ही भूख बढ़ जाती है।'
'हां, ये तो है! मैं भी अपने को रोकती हूँ!! क्या करूँ? घर में बच्चों का ख्याल आ जाता है, वे रास्ता देख रहे हैं, और हम ट्रेन में खाते पीते मजा कर रहे हैं।'-- मैंने उदास स्वर में कहा।
'हाँ, आखिर मां का दिल !!' तीसरी ने कहा।
'पर मैं तो फ्री हूँ, न पति, न बाल बच्चे!' चौथी ने कहा।
'पर बूढ़ी मां तो राह देख रही है?'
'मां कहती है रास्ते में खा-पी लिया कर!'
'फिर भी, सोचना चाहिए!' मैंने बड़े बूढ़े की रोल अदा की।
'ओह मैडम, आप भी!!' वह लाड़ से बोली! लो रायपुर स्टेशन आ गया। हम जल्दी-जल्दी उतरे। तीसरी की एक चप्पल ट्रेन के चके के नीचे फिसल कर गिर गई! 'हाय हाय!!' वह चिल्लाई।
'मत झुक। कल दूसरी चप्पल ले लेना। बल्कि अभी घर जाते-जाते खरीद लो । अबकी सेन्डिल लेना। पकड़ बनी रहेगी।' मैंने समझाते हुए कहा।'
मेरे पति आए थे, बाकी तीनों के भी पति आए थे लेने! रोज का क्रम!!!
दूसरे दिन जल्दी-जल्दी घर, पति व बच्चों का सब काम, टिफिन तैयार कर निकली मैं। रोज का क्रम !
ट्रेन आई छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस ड्राईवर ने हाथ हिलाया। हम पाँचों चढ़ गईं। ट्रेन में सफाई चल रही थी। दो छोटे-छोटे लड़के बर्थ के नीचे भी आराम से झाड़ने लगे। मैंने सैंडिल बर्थ के नीचे रख दी. पालथी मार कर खिड़की के पास बैठ गई। आज सारे बर्थ खाली थे। शायद भाटापारा से बैठेंगे लोग!!!
ट्रेन चली, जनवरी का महिना। ठंडी हवा। शाल से कान ढंक लिए। वीरान थ्री टायर में सुनाई दिया--
'दू दिन के जिनगी मा
कोनो नइए चिन्हारी
बैरी बनाके चल देये नयना
कोनो नइए चिन्हारी'!
'अन्धे को माई, पाँच पईसा दे दे भाई ।।'
खनकती आवाज के साथ, दीनता का स्वर.. .! यह स्वर न जाने कितने दिलों को बेध देता है, चीर देता है !! रोज एक अठन्नी इसके हिस्से में!
'गरम फल्ली
गरम फल्ली '
खाली बोगी में जल्दी आ गया हम तक गरम फल्ली वाला। एक-एक पैकेट हम सबने ली। यह भी रोज फल्ली देता है। 'टाईम पास फल्ली !!'
तिल्दा में ट्रेन पाँच मिनट रुकी। छ: लोग चढ़े-उस दरवाजे से। उधर ही बैठे। दोनों लड़के झाडू लगाकर जा चुके थे। हमने ध्यान ही नहीं दिया। ट्रेन चली। और कोई चढ़ा!
मार्मिक स्वर गूँजा--
'दो दिन की जिनगी रे दानी
तन को बिखरते जाना है !!
दान तो देते जाना है।
काशीधाम पहुँच जाना है !!
दो दिन की जिनगी रे दानी
तन को बिखरते जाना है
तन को बिखरते जानाहै!'
पूरा महासागर 'जात्रा' पर है. ....माया मोह को समेटे उमड़ता मानवों का समूह किसी सागर से कम नहीं। रोज का आवाजाही है यह, तो उसमें 'तन को बिखेरते जाना' की बात कहना किसी संत की सीख या बानी से कम नहीं!
यह ट्रेन की बोगी संसार है। इस दरवाजे से आये, उस दरवाजे से उतरे। यही जीवन है। कितना बड़ा जीवन दर्शन इस अनपढ़ फकीर ने हमें बता दिया। इससे बढ़कर ज्ञानी और कौन हो सकता है?
बैकुण्ठ सीमेंट फैक्टरी का लाल-भूरा धुँआ मानों सूर्य को निगलने लगता है।
'फल्ली बादाम फल्ली
पापकार्न फल्ली नमकीन '
विचार श्रृंखला टूटती है। आम आदमी को ले जाने वाली लोकल ट्रेनों और पैसेंजर ट्रेनों का एकमात्र सहारा 'टाईम पास' सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाता है।
मैं लगातार ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रही हूँ..
बबूल...... बबूल...... कहीं पूरा का पूरा जंगल बबूल के वृक्षों का, तो कहीं बबूल कतार में बंधे हुए। कहीं कहीं खेतों की मेड़ों पर .कतार......
मेरे मन में बबूल उग आया है। बबूल के काँटे..... निकालते हैं। बचपन में मैं बबूल के काँटों की सुई बनाती थी। बहुत चुभे काँटों को मेहनत के बाद एक काँटे से दूसरे काँटे के मोटे सिरे पर छेद करती थी। अपने अथक प्रयास से बनी सुई को देखकर अपने आविष्कार पर स्वयं ही मुग्ध हो उठती थी। और बबूल के फूल....बीज ?
'तोर पैरी के झनर-झनर तोर पैरी के छनर-छनर'!
लड़की गाती हुई मेरे पास आई। मैंने अठन्नी दी। मेरे सपनों को उसने आगे बढ़ाया......
बबूल के बीजों की बिछिया बनाकर पहनती। उन बीजों की लड़ी गूँथती और पायल बनाकर पहनती। बचपन की वे सारी शोख हरकतें याद आने लगी---
'तोर पैरी के छनर-छनर '
वह आगे बढ़ती गई। ध्वनि कम होती गई। बबूल का लासा (गोंद) निकालकर शीशियों में भरती। बबूल की कोमल टहनी तोड़कर काँटे निकालती। फिर दतुवन (दातौन) भी करती। बबूल की यह उपयोगिता क्या कभी भुलाई जा सकती है?
लो बबूल के वृक्षों की कतार समाप्त हुई, तालाब दिखाई दे रहा है, लोग नहा रहे हैं, शायद उधर गाँव होगा। मांढर से सिलियारी के बीच जगह-जगह बबूलों की पात देखकर मेरा बचपन लौट आया!
मेरे पीछे के बर्थ पर बैठी दोनों महिलाओं में से एक उतर गई। उसके घर परिवार की कथा मैंने सुन ली। सास ने बहू की कहानी सुना दी। जात्रा में अनजान अधिक विश्वसनीय हो जाते हैं, घर का दुख दर्द सुनाने में। क्योंकि वे उसके घर आएंगे नहीं। भेद खुलेगा नहीं। भेद न खुलने के आनन्द में मनुष्य अपना सब कुछ खोल देता है। पूरा कच्चा चि_ा खुल जाता है जिन्दगी का , कौन किससे दुबारा मिलेगा इस यात्रा में? यही बात आनन्द का कारण है। मन हल्का हो जाता है।
जैसे ही वह महिला उतरी, खंजेड़ी और इकतारा पकड़े दो वृद्ध दाढ़ीवाले डिब्बे में चढ़े। भाटापारा आने में अभी समय था। गाड़ी चली। उनकी डफली बजी।
'जै राम श्री राम जै जै राम
जै दाता राम...... की
जै जै राम, जै जै राम,
जै हो माई !!'
पर्स खुला अठन्नी निकली। असीस की गंगा बह चली। आगे बढ़े वे। फिर वही भजन गाते इस जात्रा -जात्रा -यात्रा ने मुझे भजनों के संसार में, अथाह सागर में डूबो दिया। यह रेल यात्रा भजनों का महासागर। मैं तो इसी गंगासागर में स्नान कर रही हूँ प्रतिदिन । यह जात्रा मेरा तीरथ धाम है। मुझे चार धाम की यात्रा की क्या आवश्यकता?
यह यात्रा अपरिचितों को एक साथ खड़ा कर देती है - एकत्रित कर देती है। मन की परतें ऐसी खुलती हैं कि तीसरे की चिन्ता ही नहीं रहती। जिन्दगी को समझने का ऐसा निष्छल क्षेत्र और कहाँ मिलेगा? कामकाज, दुख सुख, हँसी मजाक से लेकर जीवन के सत्य का ज्ञान कराने वाली जात्रा....
तू मेरे जीवन में वरदान बनकर आ गई। नौकरी के भागमभाग में दौड़धूप का कष्ट अवश्य है, पर आम लोगों में धनहीन से लेकर धनवान तक का वर्ग अपने मन को खोलता है।
मेरी यात्रा का पड़ाव आ गया।
मैं भाटापारा स्टेशन में उतरी। अरे ये क्या? बर्थ के नीचे रखी मेरी सेन्डिल कहाँ गई। सभी ने ढूंढा... कहीं नहीं मिली सेन्डिल !! क्या वे झाडू लगाने वाले लड़के ले गए?
ओह! एक नया अनुभव नाबालिग लड़के! नई सेन्डिल ? बेचेंगे, पैसे के लिए कितने चतुर हो जाते हैं, ये अनाथ, निराश्रित बच्चे। पेट की आग इन्हें सब सिखा देती है। यात्रा में यह नया अनुभव!! सोचने पर विवश ! नीचे उतरी। हम पाँचों सहेलियाँ 2 रिक्शे में बैठकर पहले चप्पल की दुकान गई जल्दी जल्दी में चप्पल खरीदी, जैसी भी मिली। 'लो मैडम, कल मैंने चप्पल खरीदी, आज आपकी बारी आ गई।'
हम सब ठहाके लगाते लगाते दुकान से बाहर आए और कालेज चले गए।
रेल के डब्बे में इस दरवाजे से उस दरवाजे तक - वह फकीर, डफली वाला, सूरदास, फल्लीवाला, चना चटपटी वाला, पान वाला - ये सब 'आज' में जीने वाले, एक दिन पूरा जीते हैं। यही जात्रा इनका जीवन है। यह रेल का डब्बा पूरी दुनिया है।
यह फकीरों का यात्रियों का आशियाना, जात्रा ही है। जात्रा का यह भाग ही निश्चित जीवन है। बाकी आगे पीछे का जीवन अनिश्चित है। मैं इस जात्रा में सहगामिनी हूँ, इसलिए इसी जात्रा में मेरा भी आशियाना है। जात्रा का आशियाना एक सत्य है, बाकी सब स्वप्न है। यह जात्रा असंदिग्ध है, बाकी आगे पीछे संदिग्ध है। कौन जाने कब, कहाँ, क्या हो जाए? इसलिए इस वृतांत का नाम 'जात्रा का आशियाना' है।