ललित सुरजन की कलम से - राहुल! आप किस सोच में डूबे हैं?
'नेहरूजी ने संगठन की कभी परवाह नहीं की। उनका ध्यान हर समय आम जनता की ओर ही लगा रहता था;
'नेहरूजी ने संगठन की कभी परवाह नहीं की। उनका ध्यान हर समय आम जनता की ओर ही लगा रहता था। पार्टी में अनेक वरिष्ठ व प्रभावशाली साथी उनकी नीतियों और विचारों से असहमत रहते थे लेकिन खुलकर विरोध इसीलिए नहीं करते थे कि वे जनता के दिलों में वास करते थे।
1952 के आम चुनावों के पहले संगठन के कर्णधारों ने उन्हें चुनौती देने की ठानी थी। उनके इशारे पर 1951 में मध्यप्रदेश के गृहमंत्री डी.पी. मिश्र ने पद से इस्तीफा देकर विद्रोह का बिगुल बजाया था, लेकिन उनकी यह दुरभिसंधि सफल नहीं हो सकी।
उल्टे मिश्राजी को ही ग्यारह-बारह साल का वनवास भुगतने पर विवश होना पड़ा। इंदिराजी के समय भी ऐसे षड़यंत्र रचे गए जो सफल नहीं हुए। फर्क इतना था कि अजातशत्रु नेहरू क्षमा करना जानते थे। वह गुण इंदिराजी में नहीं था। इतना सब लिखने का प्रयोजन यही है कि आपको जनता के बीच जाकर ताकत हासिल करना चाहिए। आपका अपना राजनैतिक भविष्य भी उसी पर निर्भर करता है।'
(देशबन्धु में 4 जुलाई 2019 को प्रकाशित)