तीन युवा कवियों की पदचाप : त्रिपथ

बोधि प्रकाशन जयपुर से 'त्रिपथ' के नाम से तीन कवियों का कविता संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है;

Update: 2023-10-29 10:50 GMT

- राज बोहरे

शायद वो समझ गया है कि/ वह अब अकेला ठूंठ सा ही रहने वाला है / किसी अनचाहे बुजुर्ग की तरह/ और गांव तो अब केवल एक जगह बन गया है /अपने यौवन की यादों को समेटे हुए/ जर्जर बुढ़ापे में सांस लेते हुए/ अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में/ जिसकी किसी को खबर तक नहीं होगी/

बोधि प्रकाशन जयपुर से 'त्रिपथ' के नाम से तीन कवियों का कविता संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है, जिसका संपादन और कविता चयन ब्रज श्रीवास्तव ने किया है, संपादक का कौशल सँग्रह में झांकता है। इस त्रिपथ (तीन पथ) के नाम से ख्यात संग्रह में तीन युवा कवि आनंद सौरभ उपाध्याय की 30, पद्मनाभ की 31 और मिथिलेश राय की 30 कविताएं सम्मिलित हैं । संग्रह में तीन खंड हैं, प्रत्येक खंड में कवि का आत्मकथ्य व प्रत्येक कवि पर संपादक की टिप्पणी भी लिखी गई है।

पहला खंड आनंद सौरभ उपाध्याय पर केंद्रित है। कवि खुद के बारे में लिखते हैं 'आसपास की समस्याएं जिंदगी के रंग समाज में व्याप्त अंधविश्वास, भौतिकवादी दौड़, राजनीतिक उथल-पुथल मेरी कविताओं के लिए प्रेरक स्थिति पैदा करती हैं।' ब्रज श्रीवास्तव ने आनंद सौरभ के बारे में लिखा है, 'वह वस्तु तथा राजनीतिक और सामाजिक चिताओं के संभावनाशील कवि हैं ।'कविता के बारे में आनंद की दो कविताएं हैं -कवि के हाथ की चाय और समीक्षक ।

विचार और दर्शन प्रधान कविताओं के शीर्षक हैं, दुख ही जन्मा, तेरी मिट्टी, धारणा, मौन, बुराई, फ़िक्र, सच का संघर्ष, धुंधली याद, इंतजार, और मर्यादाहीन । मन में धीमे से प्रवेश पाती बुराई के बारे में कविता 'बुराई' का अंश दृष्टव्य है-आखिर/आकर बैठ गई/अंतर्मन में/कोई लगाव नहीं/कोई चाह नहीं/फिर भी/बचते बचाते/आ ही जाती/बुराई/और मैं/बुरा हो जाता...

'घटिया निर्माण' कविता देखिए-हिस्सों में सबका ख्याल/उछलकर शराफत की पगड़ी/वो रचते हैँ झूठ का संसार/और बनाते हैं हर बार/बूंद-बूंद टपकती छतें/छत के गिरने तक !

आनंद सौरभ को कभी-कभी धार्मिक पाखंड और धार्मिक विद्वेष से क्षोभ होता है । कवि अपना ईश्वर 'दुख से उपजा ईश्वर ' बताते हैं। धर्म से जुड़े हुए उनके विचार रचनागत रूप में पाठकों के सामने कविता के रूप में अमूमन आते हैं और उनकी इस तरह की कविताएं धर्मांधता, मेरे ईश्वर का जन्म, हमको देखने को मिलती है,एक अंश देखिए-ईश्वर का जन्म तो/मेरे दुखों के बाद हुआ/विषम परिस्थिति में पुस्तकों के प्रति कवि को बहुत प्रेम है, वे कहते हैं कि किताबें अपना काम करना बंद नही करतीं,जबकि मनुष्य उनकी बेकदरी करता है। उन्होंने किताबें 1 व 2 शीर्षक से कविताएं लिखी हैं! एक अंश देखिए-एक तुम हो कि/घर की साफ सफाई में/निकालते रहे उन किताबों को ही/जिन्हें पढ़कर सभ्य/हुए तुम/इतने सभ्य?/कि थोड़े लालच में रद्दी के भाव/बेच दिया/उन्हें।

संकलन के संपादक ब्रज श्रीवास्तव ने पद्मनाभ के बारे में लिखा है 'प्रेम, स्त्री और सत्ता इस कविता के केंद्रीय पद कहे जा सकते हैं।'

पद्मनाभ के भी कुछ अपने प्रिय विषय हैं, उनके अपने कुछ अनूठे विचार हैं । व्यवस्था के विरोध में वे चुप नहीं रहते , अपनी कविता के माफ़र्त, अपने रोष और असंतुष्टि को प्रकट करते हैं । 'यह दौर तुम्हारे साथ हूं' का अंश देखिए-अगर तुम गाय हो/तो मुद्दा बना देंगे/अगर तुम बैल हो/तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता/अगर तुम शेर हो/तो पिंजरा तैयार है/अगर तुम गूँगे हो/तो ये अच्छी बात है/यह दौर तुम्हारे साथ है।

अपने दार्शनिक विचारों को अनूठे ढंग से प्रकट करने वाले पद्मनाभ की कविताओं में एक तंज, एक रोष और क्षोभ दिखाई देता है। मृत्यु' कविता का अंश देखिए-जहां है कोई मुझसे चाहता है/मेरा शरीर एवं मुझसे जुड़े लाभ/पर वह स्वीकार करती/मुझे नि:शरीर/समेटती मुझे राख से/चाहती केवल मेरी आत्मा/उसकी यही आत्मीयता मुझे प्रिय है!

राजनीति भी पद्मनाभ के निशाने से हटी नहीं है, जब उन्हें राजनैतिक विचार और सत्ताधीश की कार्यवाहियों से क्षोभ होता है, तो वह आग उगलती कविता लिखते हैं। सत्तानामा का अंश देखिए-आगे उसने भी भरोसा नहीं किया/किसी पर, सिवाय खुद के/न ही खुद/भरोसेमंद बना किसी के लिए/इसी 'अ'' भरोसे के भरोसे /वह एक/ताक़तवर राजा बना रहा!

अपनी प्राचीन परंपरा से मोह रखते हुए कवि ने बड़ी सशक्त कविता 'बूढ़ा गांव ' कविता लिखी है , इसका अंश देखिए-
मेरा गांव /जब भी अपने गांव से लौट कर आता हूं /स्मृतियों य और विस्मृतियों से भर जाता हूं/ कितना जवान था वो
शायद वो समझ गया है कि/ वह अब अकेला ठूंठ सा ही रहने वाला है / किसी अनचाहे बुजुर्ग की तरह/ और गांव तो अब केवल एक जगह बन गया है /अपने यौवन की यादों को समेटे हुए/ जर्जर बुढ़ापे में सांस लेते हुए/ अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में/ जिसकी किसी को खबर तक नहीं होगी/

पर्यावरण से जुड़ी कविताओं में पेड़ का विश्वासघात (पृष्ठ 78) भी उल्लेखनीय है। क्लासिक ग्रंथ या शास्त्रीय पुस्तक से अनुराग प्रकट करती और उसके प्रति निष्ठा बताती कविता काश मुझे पढ़ लिया होता(59) उन्होंने लिखी है, तो स्त्री की संवेदना उसके दुख दर्द और अनुभूतियों को प्रकट करती उनकी कविता देह(60) स्त्रियों ने रची है सभ्यता यह (पृष्ठ 82) पठनीय है। कविता के बारे में कवि बहुत गम्भीर हैं, इस विषय मे 'नहीं लिखी कोई कविता'(58) जैसी कविता में वे कविता और उसके सृजन के बारे में लिखते हैं, - कई दिनों से नहीं लिखी कोई कविता/ ऐसा नहीं है कि मेरी लेखनी की आग बुझ गई है/ या कि मेरे विषय चुक चुके हैं/ अथवा मेरी संवेदना समाप्ति की ओर है

इस संग्रह के तीसरे खंड के कवि हैं मिथिलेश राय, उन्होंने आत्मकथ्य में लिखा है 'मैं भूख, गरीबी, शोषण, अत्याचार ,जाति, नस्ल भेद पर कविता लिखते हुए प्रेम और सुंदरी को परे हटाकर नहीं देखता, क्योंकि दोनों ही जीवन के जरुरी हिस्से हैं। मिथिलेश की कविताओं में के बारे में संपादक ब्रज श्रीवास्तव ने लिखा है 'मिथिलेश की कविता में विषयों और अनुभवों की विविधता है, इसलिए उनके पास कविता के भरे पूरे संसार का एक प्रतिदर्श है।

मिथिलेश के सरोकार समाज के सब पक्षों से हैं, सारे संसार से हैं। गांव और पुरानी परंपरा के बारे में जब कविता लिखते हैं, तो अपनी आत्मीयता उड़ेलञ्ज देते हैं. कविता किताब में वे किताब को सम्बोधित हो कर कहते हैँ- तुम्हीं ने सिखाया हर मुश्किल /समय की बारहखड़ी पढ़ना/ और कसकर थामें रहना धैर्य की डोर/
सिखाया तुम्हीं ने खूब और उदासी के बीच सुनना
आहट उम्मीद की
तुम ही से सीखा बार-बार
उठना गिरकर
जीवन जीना भी सिखाया
तुम्हीं ने ओ मेरी किताब
धर्म व ईश्वरीय सत्ता पर उनकी कविता ईश्वर पठनीय है

उठो /ए ईश्वर /तुम कब तक लड़ते रहोगे /अपनी ही धर्म ध्वजा के खातिर (ईश्वर 1)
सभी ने रखा केवल अपने ही/ अनुयायियों का ख्याल/ उन्हें ही किया उपकृत /केवल उन्हीं के सुख-दुख का/ लिया जिम्मा/
हर ईश्वर के अनुयाई /भरते रहे आपस में /अपने ईश्वर के लिए वे बने रहे/ एक दूसरे की जान के दुश्मन!

नासमझ कविता का यह अंश देखिए- कौए ने /कोयल से जने/ उन चूजों को भी/ अपने चूजों के/ समान ही पाला-पोसा/ दुलारा अपना ही/ समझकर/ कौए से बड़ा नासमझ/ तो देखा ही नहीं कहीं/ आज तक/ फिर भी/ कभी-कभी सोचता हूं/ दुनिया रहने तक/ बना रहे प्रेम/ इसके लिए उतना बुरा तो नहीं है/ कौए की तरह/ बेवकूफ बने रहना!
समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में उनकी कविता बारिश में कसक एक विशिष्ट प्रकार के भाव से भर देती है, तो काव्य करने के बारे में मोची का छाता की कविता उनको समकालीन कवियों से कुछ ऊंचा खड़ा कर देती है - मोची का छाता/ एक/ भरोसे जैसा है /जैसा भी है उसका है /काम करने की सहूलियत देता हुआ/ कविता, जैसी भी है मेरी है/ इंसान की तरह जीने में मदद करती हुई!

इस संकलन में शामिल तीनों कवि अभी उदीयमान कवि हैं, उन्होंने अभी कुछ वर्षों से लिखना शुरू किया है, उन सबके कविता के मुहावरे विकसित होने के दौर में हैं। उन्हें यश मिलेगा लेकिन तब जब वे खुद की शैली को एक पहचान देंगे। निश्चित ही तीनों की कविता सहित विचार और शैली की हिंदी साहित्य में पहचान कायम होगी, यानि तब बिना नाम पढ़े भी उनकी कविता को देख पाठक को उनका नाम याद आएगा। वह पहचान कर सकेगा कि यह आनंद सौरभ की या पद्मनाभ या मिथिलेश राय की है ।

तीनों कवियों ने प्रचलित विषयों से हटकर कविताएं लिखी हैं और हरेक ने कुछ विशिष्ट अनुभूतियां और विषयों पर कविताएं रची हैं यह एक उल्लेखनीय बात है । अभी तक कविता के दायरे से बाहर रहे भाव, विषयों पर कविता लिखना ऐसे युवा रचनाकारों की नई दृष्टि और विशिष्ट रचना धर्मिता कहीं जा सकती है । सामान्य बोलचाल की भाषा में अपनी काव्य परंपरा को ग्रहण कर यह तीनों कवि अपने रचना कर्म की पहली झलकी से एक संकलन के रूप में पाठकों को आत्म परिचय प्रदान करते हैं और पाठक इन्हें पढ़कर उत्साह के भाव से भर जाता है, तीनों के प्रति सराहना का भाव प्रकट होता है। निश्चित ही तीनों कवि आगे जाकर अपना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेंगे। यह संकलन ब्रज श्रीवास्तव की दूरदर्शिता और एक सुविचारित नीति का पहला पुष्प है, यह संकलन उनके संपादकीय हुनर के लिए भी पाठक को आश्वस्त करता है ।

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