ताबूत
रात का यही कोई ग्यारह-बारह का व$क्त रहा होगा । जग्गू के घर में कोहराम मचा हुआ था;
- देव वंश दुबे
रात का यही कोई ग्यारह-बारह का व$क्त रहा होगा । जग्गू के घर में कोहराम मचा हुआ था । बच्चे चीख-चिल्ला रहे थे। उनके मुख से कभी 'माँ' की आवाज़ निकल रही थी , तो कभी 'पापा' की ।
ऐसी दर्द भरी चीत्कार सुनने के बावज़ूद पड़ोसियों ने उधर कान नहीं दिये । इसके कई कारण हो सकते हैं । जैसे-यह कि 'उसके घर का आंतरिक मामला है , किसी की दख़लअंदाज़ी ठीक नहीं '..... 'पति-पत्नी का झगड़ा है,कौन छुड़ाए ! आज लड़ेंगे,कल एक ही होंगे'..... या?..........या एक कारण यह भी हो सकता है कि उस घर के लिए यह कोई नई बात नहीं थी । मैंने भी कुछ अधिक सोच-विचार नहीं किया । खाना खाने के बाद अपने बिस्तर में जा घुसा ।
अगले दिन पता नहीं क्यों मेरी नींद तभी खुली जब शहर की तमाम सड़कें जाग चुकी थीं । मैं हर दिन की तरह बाहर के कमरे में चाय की चुस्कियाँ लेने लगा और सामने की सड़क से लोगों का आना-जाना देखने लगा
इतने में जग्गू सामने आकर खड़ा हो गया और अपने आँसू पोंछते हुए कहने लगा- 'साहब , बहुत मारी है , बुधनी ! देखिए , ये खून के धब्बे ! सिर भी फट गया है ।......और देखिएगा ?.. ये देखिए ! ' वह अपनी कोहनी की फटी चमड़ी दिखाने लगा , जिस पर चूने का लेप चढ़ा हुआ था ।
ख़ून के धब्बे देखकर मेरे रोएँ खड़े हो गये ; सिर चकराने लगा । मैंने समझाने की मुद्रा में उससे कहा , 'तुम पीते ही क्यों हो ? अपनी सारी कमाई पीने में उड़ा देते हो और ऊपर से उसपर शेख़ी बघारते हो । मैं सब जानता हूँ । वह कई घरों में जा-जाकर चौका-चूल्हा करती है , घर में चरखा चलाती है ,सूत कातती है और उनसे मिले पैसों से घर चलाती है , तीन बच्चों को पालती है ।...बच्चे क्या उसी के हैं या तुम्हारे भी हैं ? .....सब कसूर तुम्हारा ही है ।' मेरी आवाज़ में रुखाई तो नहीं थी,पर मेरे बोलने के लहजे से कोई भी जान सकता था कि मैं क्या कह रहा हूँ , क्या सोच रहा हूँ
उसने सुबकते हुए कहा , 'नहीं साहब , कल रात मैंने उसे कुछ नहीं कहा था । केवल खाना माँग रहा था । कभी-भी वह खाना नहीं देती ,साहब ! '
मैंने धिक्कारते हुए कहा , 'छि: ! छि: ! तुम औरत पर निर्भर हो । खाना माँगते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती । काम तो करते ही हो । फिर अपनी कमाई से घर के खर्चे क्यों नहीं चलाते !...मुझे नहीं लगता , कोई पति अपनी घर-गृहस्थी संभालेगा,तो उसकी पत्नी उस पर हमला करेगी ।'
'नहीं साहब ! आजकल काम-धंधा बिल्कुल ठप्प है । सौ-पचास से अधिक नहीं मिलते हैं । और वो भी तब , जब किसी के यहाँ बिजली खराब होती है,पंखे नहीं चलते हैं ।..........कोई दूसरा काम तो कर भी नहीं सकता , साहब ! 'उसके चेहरे पर दीनता उभर आई।
मैंने कहा ,' कुछ तो काम करना ही पड़ेगा तुम्हें । बेचारी कब तक तुम्हें पालती रहेगी । देखो , शाँति से रहो । मुहल्ले के बच्चों पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है ।'
मैंने उसे का$फी कुछ समझाया और सौ रुपये का एक नोट देकर कहा , 'जाओ-जाओ , ख़ून के धब्बे सा$फ कर स्नान कर लो !.......और सुनो ! कुछ दवा-दारू भी करा लेना , हाँ !'
वह चला जा रहा था । अभी जब पास था तो आदमी जैसा तो लग भी रहा था , पर दूर जाते हुए अजीब दिख रहा था । यदि वह खड़ा हो जाए , तो दूर के लोग यही समझेंगे कि किसी नर-कंकाल ने कपड़े पहन रक्खे हैं । हवा का एक हल्का झोंका भी उसे उड़ा ले जाएगा ।
उसके जाने के बाद मैंने अपनी शेष चाय पर दृष्टि डाली , तो देखा, असंख्य चीटियाँ मौके का नाजायज़ $फायदा उठा रही हैं । मैंने अपनी दृष्टि उधर से हटा ली और अंदर के कमरे में जाकर चारपाई पर लेट गया। मुझे कई वर्ष पूर्व की उसकी कहानी याद आ रही थी, जिसे मैंने कई लोगों से सुना था ।
उसकी कहानी भी अजीब है ।... पहले वह किसी दफ़्तर में नौकरी करता था । तब बुधिया विधवा थी । गाँव से दूध लेकर आती और बड़े साहब को दे जाती। उन दोनों में प्रेम हुआ और वे दोनों विवाह के धागे में बंध गये । कई मुसीबतें आयीं , लेकिन उन्हें तोड़ नहीं सकीं । उनकी जि़ंदगी हँसी-खुशी से, बड़े मज़े से आगे सरकती रही।
जि़ंदगी का उनका यह सुहाना स$फर वर्षों तक नहीं चल सका । जग्गू एकदिन दफ्तर से निकाल दिया गया । उसकी शराब की लत ने उसे पटरी से नीचे उतार दिया।
ये शराब की लत भी अजीब होती है । पहले जमा रकम को फूँकती है । फिर अपने घर को !...
अचानक मेरी तंद्रा भंग हो गई ।
बाहर की कुंडी कोई खटखटा रहा था । दरवाज़ा खोला , तो सामने बुधिया को खड़ी देखकर मेरा मन एक बारगी आग बबूला हो उठा । मगर उसके माथे पर चढ़ी पट्टी को देखकर शीघ्र ही संभल गया । मुझे लगा मामला कुछ गंभीर है ।
मैंने जानते हुए भी उससे अनजान-सा पूछा , 'क्यों ? क्या हुआ ?'
वह रोने लगी । अपने आँचल से आँखें पोंछते हुए कहा , 'चलिए बाबू , पहले मेरे घर चलिए । चलकर स्वयं ही उसकी करनी देख लीजिए ,कि कल रात हम लोगों पर क्या बीती है । पास-पड़ोस में रहकर भी आप लोग मेरी मदद नहीं करेंगे , तो मैं कैसे जिऊँगी ? कैसे बाल-बच्चों को पालूँगी !'
मैंने कहा , 'भई , तुम लोगों का यह आपसी झगड़ा है । पति-पत्नी का घरेलू झगड़ा । कौन किसे समझाएगा ! आज लड़ोगे,कल मेल कर लोगे । बीच में कौन पड़ना चाहेगा, बताओ न ! कल रात तो तुमने उसे मारा- पीटा भी है । कितना ख़ून बहा है उसका । देखो , भविष्य में ऐसी $गलती कभी मत करना , समझी ! यदि वह थाने चला जाए , तो बुरी तरह फँस जाओगी । वह रोता-बिलखता चारों तुम्हारी निंदा करता चल रहा है । क्या तुम्हें यह सब अच्छा लग रहा है !
'नहीं बाबू , मैं उसके हाथ-पाँव तोड़ दूँगी । जब मुझे ही अपनी कमाई से सबको खिलाना है , तो ऐसे तो उसे नहीं छोड़ूँगी । मेरी कमाई से वह घर में खाए और अपनी से दारू पिए ; यह तो नहीं हो सकता ! 'उसने सिर पर हाथ रखकर संकेत किया,' यहाँ देखिए,बाबू ! यहाँ देखिए ! मेरे सिर में चार टाँके लगे हैं । कल रात उसने चारपाई की पाटी से मेरा
ख़ून बहाया है और मैं उसे खाना दूँगी ! जब सधवा में ही विधवा का एहसास हो रहा है,तो मैं इसकी लात-बात क्यों सहूँ ...!'
बातचीत का सिलसिला थमा नहीं था । दो-चार बुज़ुर्ग और इकट्ठे हो गये । बुधिया बार-बार अपने घर चलने के लिए जि़द करती रही । हमलोग भी ज़्यादा मना नहीं कर सके ; उसके साथ उसके घर चले गये ।
उसका कमरा अपनी कथा-व्यथा ख़ुद कह रहा था । किरासन तेल की बदबू हर तर$फ थी । चारों तरफ सामान बिखरे पड़े थे । मैंने सभी का ध्यान आकृष्ट करते हुए पूछा , 'तो ये सब रात की ही लीला है ? '
तड़ से जवाब दिया बुधिया ने ,'हाँ, बाबू ! रात की ही है । वह पीकर आया और खाना माँगने लगा।'
'ऐसे समय में तो तुम्हें खाना ही दे देना चाहिए ।' एक बुज़ुर्ग ने सलाह के लहजे में ज़ुबान खोली , 'जब जान रही थी कि वह पीकर आया है,तो उससे उलझना ही नहीं चाहिए था ! ऐसे में तो जो कहे, वही तुम्हें करना चाहिए । '
वह बुज़ुर्ग की ओर मुख़ातिब हुई और तीन चार घड़े सामने लाकर रख दिए । 'कुछ रहे , तब न दूँ , बाबा ! देखिए न ! किसी भी घड़े में न तो चावल है, न ही आटा ! कल रात तो हम लोग भूखे- प्यासे ही सो रहे थे कि वह आया और बस अपना नाटक शुरू कर दिया । गाली-गलौज, मारपीट ! ....वह तो बाहर का दरवाजा निकालकर बेचने ले जा रहा था । कह रहा था- मेरा घर है , जो चाहूँगा करूँगा ।,.......तुम बोलने वाली कौन होती हो ? ....उसने अती कर दी थी , बाबा ।......जब मैंने उसका विरोध किया , तो उसने सामान को इधर-उधर फेंकना शुरू कर दिया ।.....काफी देर तक वह मिट्टी तेल लेकर मेरे पीछे-पीछे दौड़ता रहा और मैं इधर-उधर भागती रही । तभी उसने एक चारपाई की पाटी मेरे सिर पर दे मारी ।
फिर क्या ! खून से मेरे पूरे कपड़े रंग गए ।.....बच्चों की बात क्या बताऊँ ? मेरी हालत देख वे भी रोने-चिल्लाने लगे थे । .....मैं क्या करती ! जब बर्दास्त के बाहर हो गया, तभी मैंने उसे मारा है , बाबा!.......हार कर ही मैंने उसका प्रतिकार किया है।......वरना कौन ऐसी औरत होगी , जो अपने मर्द पर हाथ उठाएगी । आप ही बताइए न ! कहाँ से इतना कमाऊँ और सभी के पेट पालूँ। वह हम ही से पीने के लिए भी पैसे माँगता है । कहाँ से लाऊँ पैसे ? तीन घरों में तो बर्तन माँजना भी बंद कर दी हूँ और वो भी इसी के कारण । रोज-रोज मुझे मारता है और मेरे चरित्र का शंका करता है । अब तो दो ही जगह जाती हूँ , वहीं से थोड़ा-बहुत खाना लाकर बच्चों को खिला-पिला देती हूँ । अधिकतर मैं भी उन्हीं के यहाँ से कुछ खा-पी कर लौटती हूँ । घर में तो बस थोड़ा बहुत सूत कातती हूँ , जिससे घर के अन्य खर्च चलते हैं......' वह एक ही साँस में सब कुछ कहती चली गयी। हमलोग मात्र निर्जीव-से मूक श्रोता बने रहे।
उसके घर से लौटते व$क्त हम लोगों ने उसे तसल्ली दी कि उसके पति को समझा दिया जाएगा । और यदि नहीं मानेगा,तब कोई और उपाय सोचेंगे। सभी जन इसके बाद अपने-अपने घरों की ओर हो लिए ।मैं भी लौट चला था।रास्ते में मेरे दिमाग में अजीब बेचैनी महसूस हो रही थी कि यह घर,घर नहीं ताबूत है । इसके अंदर जीवित लाशें कराह रही हैं। अंदर न तो कोई रोशनी है और न ही आगे किसी जादुई चिरा$ग की उम्मीद ही है। उनकी जि़ंदगी और मौत के बीच का $फासला उत्तरोत्तर कम होता चला जाएगा । और हम तटस्थ भाव से आदमी होने का प्रमाण दिखाते चलेंगे ।