इलेक्टॉरल बॉन्ड में बुरी तरह फंसती केंद्र सरकार

भारतीय चुनाव प्रक्रिया में धन बल का प्रयोग अत्यधिक होता है। ऐसे में अगर चुनावी चंदे की व्यवस्था को अत्यंत पारदर्शी न बनाया गया, तो राजनीति के काले धन से संचालित होने के संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता;

Update: 2024-03-15 05:47 GMT

- राहुल लाल

भारतीय चुनाव प्रक्रिया में धन बल का प्रयोग अत्यधिक होता है। ऐसे में अगर चुनावी चंदे की व्यवस्था को अत्यंत पारदर्शी न बनाया गया, तो राजनीति के काले धन से संचालित होने के संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। आशा है कि जल्द ही देश में राजनीतिक दलों के चंदे से संबंधित एक ऐसा पारदर्शी ढांचा बन सकेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने 11 मार्च को इलेक्टॉरल बॉन्ड से जुड़ी जानकारी देने के लिए एसबीआई को और समय देने से इंकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई से 12 मार्च तक इलेक्टॉरल बॉन्ड की सभी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए कहा। अदालत ने चुनाव आयोग को इस जानकारी को 15 मार्च शाम 5 बजे तक अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करने का निर्देश भी दिया है। एसबीआई इलेक्टॉरल बॉन्ड के खुलासे के लिए 30 जून तक का समय मांग रहा था। तब तक लोकसभा चुनाव संपन्न होकर नई सरकार का गठन हो चुका होता। ऐसे में मतदाताओं को इलेक्टॉरल बॉन्ड की सूचनाओं के बिना ही लोकसभा चुनाव में मतदान के अधिकार का प्रयोग करना पड़ता। 13 मार्च को एसबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर स्पष्टीकरण दिया कि उसने इलेक्टॉरल बॉन्ड.से संबंधित सूचनाएं चुनाव आयोग को दे दी है। जब एसबीआई 30 जून का समय मांग रहा था, तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि- 'हमने 15 फरवरी को फैसला दिया था। आज 11 मार्च है । पिछले 26 दिनों में आपने क्या कदम उठाए? कुछ भी नहीं बताया गया है। आपको जानकारी देनी ही होगी।'

15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को बड़ा झटका देते हुए इलेक्टॉरल बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलेक्टॉरल बॉन्ड को जिस तरह अज्ञात और गोपनीय रखा गया है, उस कारण यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का सीधा उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि लोकतंत्र में जनता के समक्ष सभी सूचनाएं रहनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सूचना के अधिकार का उल्लंघन माना। कोर्ट ने कहा कि- ये चुनावी लोकतंत्र के खिलाफ है, क्योंकि ये बड़ी कंपनियों को लेवल प्लेइंग फील्ड खत्म करने का मौका देती है। अंत में जनता को यह भी पता नहीं चल पाता था कि आखिर यह कंपनियां कितना चंदा किस राजनीतिक दल को दे रही थी।

सुप्रीम कोर्ट ने पहले 6 मार्च की समयसीमा तय की थी, लेकिन इसके दो दिन पहले ही स्टेट बैंक की तरफ से इसे 30 जून तक करने का अनुरोध किया गया। आज की तारीख में जब टेक्नालॉजी इतनी आगे बढ़ी हुई है,तब देश के इतने बड़े बैंक को एक खास स्कीम के तहत लेन-देन के डिटेल्स निकालने में इतना वक्त लग जाएगा, इस पर सवाल उठ रहे थे। इस संपूर्ण मामले से ऐसा लग रहा था कि स्टेट बैंक पर केंद्र सरकार का काफी दबाव है और केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को क्रियान्वित करने में पर्दे के पीछे से बाधक बन रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्टेट बैंक को तो केवल सीलबंद लिफाफे को खोलना है और सार्वजनिक कर देना है। अपने संक्षिप्त आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 11 मार्च को यह भी कहा कि- हर राजनीतिक दल बैंक की 29 निर्धारित शाखाओं में ही केवल चालू खाता खोल सकता है। इसलिए यह जानकारी आसानी से हासिल की जा सकती है।

केंद्र सरकार ने देश के राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे के लिए वित्त वर्ष 2017-18 के बजट में इलेक्टॉरल बांड शुरू करने का ऐलान किया था। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को कानूनन लागू किया था। इलेक्टॉरल बॉन्ड से मतलब एक ऐसे बॉन्ड से होता है, जिसके ऊपर एक करेंसी नोट की तरह उसकी वैल्यू लिखी होती है। यह बांड व्यक्तियों,संस्थाओं अथवा संगठनों द्वारा राजनीतिक दलों को पैसा दान करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।

चुनावी बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख तथा एक करोड़ रूपये के मूल्य के होते थे। सरकार की ओर से चुनावी बॉन्ड जारी करने और उसे भुनाने के लिए भारतीय स्टेट बैंक को अधिकृत किया गया था, जो अपनी 29 शाखाओं के माध्यम से यह काम करता है। इलेक्टॉरल बॉन्ड को लाने के लिए सरकार ने फाइनेंस एक्ट-2017 के जरिए रिजर्व बैंक एक्ट-1937,जनप्रतिनिधित्व कानून-1951,आयकर एक्ट-1961 और कंपनी एक्ट में कई संशोधन किए गए थे। केंद्र सरकार ने इलेक्टॉरल बांड योजना को 2 जनवरी, 2018 को अधिसूचित किया। इसके मुताबिक कोई भी भारतीय नागरिक या भारत में स्थापित संस्था चुनावी बॉन्ड खरीद सकती है। चुनावी बांड खरीदने के लिए संबंधित व्यक्ति या संस्था के खाते का केवाईसी वेरिफाइड होना आवश्यक होता था।

जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29 ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक पार्टियां तथा पिछले आम चुनाव या विधानसभा चुनाव में जनता का कम से कम एक फीसदी वोट हासिल करने वाली राजनीतिक पार्टियां ही चुनावी बॉन्ड के जरिए पैसे ले सकती थी। चुनावी बॉन्ड्स पर बैंक द्वारा कोई ब्याज नहीं दिया जाता था।
स्टेट बैंक ने सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार के बाद 13 मार्च को हलफनामा देकर बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन किया गया है। एसबीआई (स्टेट बैंक) ने इलेक्टॉरल बॉन्ड की खरीद बिक्री, इसके खरीदारों के नाम समेत सभी संबंधित जानकारी को लेकर रिपोर्ट तैयार की है और उसे समय रहते चुनाव आयोग को उपलब्ध करा दिया है। इस हलफनामे में बैंक ने आंकड़ों के द्वारा बताया है कि 1 अप्रैल 2019 से 15 फरवरी 2024 तक 22,217 इलेक्टॉरल बॉन्ड्स बिके हैं। इनमें से 22,030 बॉन्ड्स भुना लिए गए हैं। केवल 187 बॉन्ड्स का भुगतान नहीं लिया गया है।

पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाने के तमाम दावों के बीच इलेक्टॉरल बॉन्ड पर भी अपारदर्शी होने का गंभीर आरोप लगने लगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे गुमनाम और अपारदर्शी होने के कारण असंवैधानिक घोषित किया। 2017 म़े केंद्र सरकार ने कहा कि राजनीतिक दलों की फंडिंग में अज्ञात स्रोतों से आने वाले आय की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। ऐसे में सरकार पारदर्शी व वैधानिक फंडिंग के लिए इलेक्टॉरल बॉन्ड ला रही है। लेकिन इलेक्टॉरल बॉन्ड की अपारदर्शिता पूर्व के व्यवस्था से भी खतरनाक रही। लगता है कि इन बॉन्डों के जरिए चंदे का कानून बनने से हम एक अपारदर्शी व्यवस्था को छोड़कर एक दूसरी अपारदर्शी व्यवस्था के दायरे में आ गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टॉरल बांड के मुद्दे पर केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया। शीर्ष अदालत ने कि सरकार की काले धन पर लगाम लगाने की कोशिश के रूप में इलेक्टॉरल बॉन्ड की कवायद पूरी तरह बेकार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि- जिस तरह से इलेक्टॉरल बॉन्ड्स की व्यवस्था प्रारंभ की गई है, इससे लगता है कि यह ब्लैक मनी को व्हाइट करने का तरीका है साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि-जब कंपनियां राजनीतिक दलों को चंदा देती हैं, तो हो सकता है कि उन्होंने चंदे के बदले में किसी फयदे के लिए ऐसा किया हो। सुप्रीम कोर्ट की इस दलील में दम भी है, क्योंकि अधिकांश चंदा सत्तारुढ़ दल बीजेपी को ही प्राप्त हुआ है।

याचिकाकर्ताओं का सुप्रीम कोर्ट में कहना था कि मतदाताओं को राजनीतिक दलों के चंदे का स्रोत जानने का अधिकार है। इस पर अटॉर्नी जनरल ने कहा कि- जनता को सिर्फ राजनीतिक दलों के उम्मीदवार के बारे में जानने का अधिकार है, उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि राजनीतिक दलों का चंदा कहां से आ रहा है। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार का यह तर्क अत्यंत कमजोर था, क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च है और उसे सब कुछ जानने का अधिकार है।

इलेक्टॉरल बॉन्ड की असंवैधानिक व्यवस्था को लेकर विपक्ष सहित चुनाव सुधार से संबंधित तमाम संगठन सरकार को लगातार चेतावनी दे रहे थे कि यह पूर्णत: असंवैधानिक है। अगर सरकार पहले ही इन आलोचनाओं को लेकर गंभीर होती, तो आज इस मामले पर चुनाव पूर्व सरकार इस तरह इलेक्टॉरल बॉन्ड के झटके नहीं खा रही होती। इस सरकार में उद्योगपतियों का जिस तरह बोलबाला रहा, उसका पूरा प्रभाव इलेक्टॉरल बॉन्ड पर भी दिखा। एडीआर के आंकड़ों के अनुसार, इलेक्टॉरल बॉन्ड का सबसे ज्यादा लाभ बीजेपी को मिला।

वर्ष 2017-18 से 2022-23 के बीच बीजेपी को 6,566 करोड़ के इलेक्टॉरल बॉन्ड मिले, जबकि इस दौरान 9,200 करोड़ के बॉन्ड जारी किया गया। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब सत्ताधारी दल को इतना चंदा दिया जाता है, तो किस उम्मीद में दिया जाता है। चंदा देने वाला जब सभी पार्टियों को छोड़कर बीजेपी को ही सबसे अधिक चंदा दे रहा है, तो जरूर उसकी अपेक्षा होगी कि सरकार उनके पक्ष में नीतियों का निर्माण करेगी। आखिर भारी संख्या में एयरपोर्ट अडानी को ही क्यों दिए जा रहे हैं? इन प्रश्नों का उत्तर भी अब जल्द मिलने वाला है। इन आंकड़ों के सार्वजनिक होने से बहुत सारी चीजों पर रोशनी पड़ेगी। कोई फायदा लेना ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण होता है।

किसकी किस कंपनी को ठेका मिल रहा है? जो नीतियां बन रही हैं, क्या वह कुछ कंपनियों को लाभ पहुंचा रही हैं? ऐसे में लोकसभा चुनाव से पूर्व इलेक्टॉरल बॉन्ड के नए खुलासे से सत्तारूढ़ पार्टी घिरती दिख रही है, इससे कई नए घोटालों का भी पर्दाफाश होगा। प्रश्न तो यह भी उठ रहा है कि क्या कुछ कंपनियों से इलेक्टॉरल बॉन्ड से फंड लेकर उनके विरुद्ध एजेंसियों की कार्यवाही में राहत प्रदान की गई? यह सूचनाएं भी बाहर आएगी कि चंदे लेने के बाद कितने कंपनियों के मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यह भ्रष्ट उद्योगपतियों एवं सरकार के गठबंधन की पोल खोल भी करेगा। भारतीय चुनाव प्रक्रिया में धन बल का प्रयोग अत्यधिक होता है। ऐसे में अगर चुनावी चंदे की व्यवस्था को अत्यंत पारदर्शी न बनाया गया, तो राजनीति के काले धन से संचालित होने के संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। आशा है कि जल्द ही देश में राजनीतिक दलों के चंदे से संबंधित एक ऐसा पारदर्शी ढांचा बन सकेगा, जहां राजनीतिक दलों के 'अज्ञात स्रोत' वाले चंदे का मॉडल समाप्त हो सके।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार व आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

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