सर: शुद्घीकरण का नाम, ध्वस्तीकरण का काम!

आखिरकार, मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण या सर के नाम पर, थोक में लोगों के मताधिकार की चोरी की आंच, खुद सत्ताधारी संघ-भाजपा परिवार के घर तक भी पहुंच ही गयी;

By :  Deshbandhu
Update: 2025-12-23 03:13 GMT
  • राजेंद्र शर्मा

बेशक, मतदाता सूचियों में सुधार की जरूरत से और सुधार की गुंजाइश से कोई इंकार नहीं कर सकता है। मिसाल के तौर पर अगर मृतकों के नाम मतदाता सूचियों में हैं या एक ही मतदाता एक से ज्यादा स्थानों पर मतदाता बना हुआ है, तो इन त्रुटियों को दूर करना जरूरी है। लेकिन, सर के रूप में जिस तरह से नये सिरे से मतदाता सूचियां बनाने की कसरत शुरू की गयी है और वह भी मनमाने आधार वर्ष लेकर तथा उससे भी ज्यादा मनमानी समय-सूचियां तथा साक्ष्य व पद्घतियां थोपकर, उसने सारी प्रक्रिया को ही पूरी तरह से प्रदूषित कर दिया है।

आखिरकार, मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण या सर के नाम पर, थोक में लोगों के मताधिकार की चोरी की आंच, खुद सत्ताधारी संघ-भाजपा परिवार के घर तक भी पहुंच ही गयी। पिछले ही दिनों, देश के सबसे बड़े राज्य, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने, सार्वजनिक रूप से मतदाता सूचियों के तथाकथित ''शद्घीकरण'' के चक्कर में, इस राज्य में हरेक चौथाई वोटर का नाम कट जाने का खतरा बताकर, सत्तापक्ष और विपक्ष, सभी को चौंका दिया। सत्ताधारी कबीले की अंदरूनी रस्साकशी के अनुमानों को हम अगर छोड़ भी दें तो भी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मतदाता सूचियों में कथित सुधार की इस कसरत में, जिस पैमाने पर वोट काटे जाने का आरोप लगा रहे थे, उस पैमाने पर वोट काटे जाने के आरोप तो विपक्ष ने भी नहीं लगाए थे, हालांकि विपक्ष शुरू से ही यानी बिहार में, चुनाव से ऐन पहले सर की यह प्रक्रिया शुरू किए जाने की मंशा से लेकर वैधता तक पर सवाल उठाता रहा था। इसमें विपक्ष द्वारा सर्वोच्च अदालत में इस प्रक्रिया की संवैधानिक वैधता को चुनौती दिया जाना भी शामिल है, जिस पर विचार करने के लिए अदालत अब तक समय ही नहीं निकाल पायी है। याद रहे कि उसी सर प्रक्रिया के इस समय जारी दूसरे चरण में, जिसमें कुल बारह राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों का कथित शुद्घीकरण हो रहा है, उत्तर प्रदेश में ही मुख्य विपक्षी पार्टी, समाजवादी पार्टी ने राज्य में तीन करोड़ वोट तक काटे जाने की आशंका जतायी थी। भाजपायी मुख्यमंत्री ने तो और भी बड़ा दावा कर दिया और चार करोड़ वोट कटने का खतरा बता दिया।

और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कोई हवा में दावा नहीं कर रहे थे बल्कि तथ्यों के साथ बोल रहे थे। उन्होंने याद दिलाया कि 2025 की जनवरी में हुए मतदान सूचियों के समरी रिवीजन तक, राज्य में 15 करोड़ 44 लाख मतदाता थे। इसमें अगर, वर्तमान पुनरीक्षण के लिए निर्धारित मतदाताओं के नाम जोड़ने की अंतिम तिथि, 31 जनवरी 2026 तक, अठारह वर्ष पूरे कर मताधिकार के पात्र हो जाने वालों की संख्या को भी जोड़ दिया जाए तो, राज्य में मतदाताओं की संख्या 16 करोड़ बैठती है। लेकिन, 14 दिसंबर को मुख्यमंत्री के यह मुद्दा उठाए जाने तक, जोकि मतदाताओं के नामांकन फार्म भरने की मूल अंतिम तारीख थी, हालांकि बाद में इस समय सूची की अव्यावहारिकता का शोर मचने के बाद, यह अंतिम तारीख एक हफ्ता बढ़ा दी गयी थी, केवल 12 करोड़ मतदाताओं के नामांकन फार्म जमा हो पाए थे। इस तरह, पूरे 4 करोड़ मतदाताओं के नाम कट सकते थे।

बेशक, आदित्यनाथ ने यह डरावनी तस्वीर पेश करने के लिए, सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं से इसकी अपील करने का बहाना बनाया था कि, जिन लोगों के नाम छूट रहे हैं उनके नाम जुड़वाने में उन्हें प्राण-पण से जुटना होगा। वे अगर इसके लिए तत्परता से नहीं जुटे तो, राज्य में चौथाई वोटर कट जाएंगे। यही नहीं, उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को यह भी याद दिलाया था कि यह सोचकर नहीं बैठ जाएं कि ''दूसरों'' के ही वोटर हैं, जिनका नाम कट रहा है। इशारा साफ तौर पर इस प्रक्रिया से संघ परिवार द्वारा शुरू से लगायी जा रही इसकी उम्मीद की ओर था कि, इससे घुसपैठिये यानी मुसलमान बाहर हो जाएंगे। बिहार में तो सर प्रक्रिया के दौरान इसके लिए भाजपा समेत संघ परिवार ने खूब वातावरण भी बनाया था। यह दूसरी बात थी कि आखिरकार, विदेशी के रूप में पहचाने जाने के लिए मतदाता सूची से बाहर होने वालों की संख्या इतनी नगण्य निकली कि चुनाव आयोग ने पत्रकारों और विपक्षी पार्टियों के पूछने पर भी यह बताना नहीं गंवारा किया कि बिहार में अंतत: काटे गए करीब 45 लाख नामों में से, विदेशी कितने थे?

बहरहाल, आदित्यनाथ ने भाजपा कार्यकर्ताओं की इस गलतफहमी को दूर करते हुए, जोर देकर एलान किया कि जो हटाए जा रहे हैं, उनमें 84 से 90 फीसद तो ''हमारे'' अपने ही वोटर हैं! यानी खतरा भाजपा के अपने वोटों पर था। मुद्दा यह नहीं है कि इन कटने वाले चार करोड़ वोटों में से, प्रचंड बहुमत भाजपा के वोटों का होने के आदित्यनाथ के दावे को कितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए या नहीं? मुद्दा यह भी नहीं है कि भाजपायी मुख्यमंत्री किस हद तक अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की ही मंशा से सर की प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे थे। मुद्दा यह है कि पहली बार सत्ताधारी पार्टी का एक मुख्यमंत्री, सर की प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा था। और इससे भी बढ़कर यह कि मतदाताओं के नामांकन की मूल आखिरी तारीख तक के अनुभव को सामने रखकर, देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री यह कह रहा था कि जिस प्रकार से सर की प्रक्रिया चल रही थी, उसे अगर उसी प्रकार चलते रहने दिया जाता है, तो उत्तर प्रदेश में चौथाई मतदाताओं के नाम कट जाएंगे। समूची सर प्रक्रिया की वैधता पर इससे बड़ा सवालिया निशान कोई नहीं लगा सकता है।

पर आदित्यनाथ इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने नाम काटे जाने ही नहीं, जोड़े जाने की प्रक्रिया की भी साख पर सवाल खड़े कर दिए। उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसकी भी शिकायत की कि उनकी जानकारी में आया था कि प्रकटत: आयु समेत अनेक विसंगतियों के बावजूद, बंगलादेशियों के नाम सूची में आ गए हैं। यानी एक चौथाई नाम काटने के बाद भी, इन मतदाता सूचियों में तथाकथित बंगलादेशी या घुसपैठियों के नाम बने ही हुए हैं! याद रहे कि इससे पहले, भाजपा के प. बंगाल के अध्यक्ष ने भी, राज्य में जारी सर प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर तीखे सवाल खड़े किए थे। लेकिन, उनका तर्क यह था कि चूंकि बीएलओ बनाए गए निचले दर्जे के अधिकारी राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित होते हैं, इसलिए राज्य में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस ने अपने पक्ष में पूरी प्रक्रिया को झुका लिया है। लेकिन, आदित्यनाथ तो राज्य सरकार के नाते बीएलओ पर अपने नियंत्रण के बावजूद, थोक में वोट कटने की शिकायत कर रहे थे। जाहिर है कि उनका इशारा इस प्रक्रिया के संरचना में ही समस्या होने की ओर था। इस पूरी कसरत का तो मकसद ही है, बड़े पैमाने पर मतदाताओं की छंटनी करना!

बदकिस्मती से ठीक यही हो रहा है। वर्तमान चक्र में जिन बारह राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सर की प्रक्रिया चल रही है, उनमें से चार राज्यों में जहां मतदाता नामंकन का चरण पूरा हो चुका है, करीब तीन करोड़ नाम काटने का प्रस्ताव है। इनमें सबसे ज्यादा, 97 लाख नाम तमिलनाडु मेें ही काटे गए हैं। इसके अलावा गुजरात में 73.7 लाख, प. बंगाल में 58 लाख और राजस्थान में 41.8 लाख नाम काटे गए हैं। बिहार में नामांकन के चक्र में काटे गए 65 लाख नामों को जोड़कर, यह आंकड़ा साढ़े तीन करोड़ से ऊपर पहुंच जाता है। याद रहे कि ये आंकड़े इस चक्र के आधे ही राज्यों के हैं। इसके अलावा, नामांकन के इस चरण में तो नामंकन फार्म मात्र भरने वाले सूची में हैं। इसके बाद, उनके नामों की छंटनी होनी है, जो चुनाव आयोग के पैमाने के हिसाब से 2003 की मतदाता सूची के साथ, अपनी संबद्घता (खुद अपनी या अपने माता-पिता या निकट संबंधी की उसस्थिति) के रूप में साबित नहीं कर पाएंगे और इसलिए, मतदाता सूची में रहने की शर्त के तौर पर अपनी नागरिकता साबित करने के लिए बाध्य किए जाएंगे। इस कठिन परीक्षा में जो सफल नहीं होंगे, उनके नाम दूसरे चक्र में कट जाएंगे। एक अनुमान के अनुसार, वर्तमान चरण में कटने वाले वोटों की संख्या 10 करोड़ तक पहुंच सकती है। योगेन्द्र यादव के यह कहने में कोई अतिरंजना नहीं है कि यह दुनिया की सबसे बड़ी वोट कटाई की कसरत है।

बेशक, मतदाता सूचियों में सुधार की जरूरत से और सुधार की गुंजाइश से कोई इंकार नहीं कर सकता है। मिसाल के तौर पर अगर मृतकों के नाम मतदाता सूचियों में हैं या एक ही मतदाता एक से ज्यादा स्थानों पर मतदाता बना हुआ है, तो इन त्रुटियों को दूर करना जरूरी है। लेकिन, सर के रूप में जिस तरह से नये सिरे से मतदाता सूचियां बनाने की कसरत शुरू की गयी है और वह भी मनमाने आधार वर्ष लेकर तथा उससे भी ज्यादा मनमानी समय-सूचियां तथा साक्ष्य व पद्घतियां थोपकर, उसने सारी प्रक्रिया को ही पूरी तरह से प्रदूषित कर दिया है। मिसाल के तौर पर तमिलनाडु में जहां 26.9 लाख नाम मृतकों के रूप में और 4 लाख डुप्लीकेट वोटर के रूप में काटे गए हैं, वहीं 66.4 लाख नाम अनुपलब्ध या कहीं चले गए के नाम पर काटे गए हैं। वास्तव में यह श्रेणी सबसे बढ़कर, आम तौर पर अपने राज्यों से बाहर जाने वाले प्रवासी मजदूरों के नाम और दूसरे राज्यों से आकर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के नाम, दोनों को काटे जाने का औजार बन गयी है। लेकिन, मृतकों के नाम काटे जाने तक की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए हैं। द हिंदू के एक विश्लेषण के अनुसार, तमिलनाडु में ही कुल 75,018 मतदान बूथों में से, 3,904 में मौतें राज्य के अनुपात से ज्यादा हैं, जबकि 727 में मौतों की संख्या बहुत ज्यादा है, जबकि 495 बूथों में सारे के सारे नाम, मौत होने के कारण ही कटे हैं!

इसी प्रकार, 8,613 मतदान बूथों पर असामान्य रूप से बड़ी संख्या में यानी राज्य के स्तर के अनुपात से दोगुनी से ज्यादा संख्या में मतदाताओं के नाम काटे गए हैं। 6,139 मतदान बूथों पर ''अनुपस्थित'' या अन्यत्र चले गए घोषित कर काटे गए मतदाताओं का अनुपात राज्य औसत से कहीं ज्यादा है। इनमें से 172 बूथों पर, अन्यत्र चले जाने के लिए काटे गए नामों में, महिलाओं का हिस्सा 75 फीसद से ज्यादा है! इतनी सारी असंगतियों से साफ है कि सर नाम की कसरत, मतदाता सूचियों को स्वच्छ करने के बजाए मतदाता सूचियों को ध्वस्त ही करने का हथियार बन गयी है। यह चुनावी जनतंत्र को ही ध्वस्त करने की पहली सीढ़ी है।

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)

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