किसानों के बाद ड्राइवर बने पथ प्रदर्शक
किसानों के बाद बस व ट्रक ड्राइवरों ने देश को आंदोलन की राह दिखाई है;
किसानों के बाद बस व ट्रक ड्राइवरों ने देश को आंदोलन की राह दिखाई है। तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ 5 नवम्बर, 2020 से आंदोलन प्रारम्भ करने वाले किसानों को 378 दिन लगे थे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से यह कहलवाने में कि इन कानूनों को वापस लिया जा रहा है क्योंकि वे 'किसानों को इनके लाभ समझाने में असफल हो रहे हैं।' मोदी को यह भी मलाल रहा कि 'शायद उनकी तपस्या में कोई कमी रह गयी।' देश भर के किसान इन कानूनों के खिलाफ लामबन्द हो गये थे, लेकिन उसकी सर्वाधिक सघनता और उसे दबाने का सरकारी उद्रेक देश की राजधानी दिल्ली की तीन सीमाओं पर देखा गया था- टिकरी, गाजीपुर और सिंघू। दूसरी तरफ 'हिट एंड रन' मामले में अत्यंत कठोर कानूनों के विरूद्ध 2024 की पहली तारीख से प्रारम्भ हुए बस एवं ट्रक ड्राइवरों के आंदोलन को केवल दो ही दिन लगे सरकार को घुटनों पर लाने में।
दोनों ही आंदोलन देश के स्याह आसमान में दो बेहद चमकदार सितारों की तरह टिमटिमाते रहेंगे और दिशा बतलाते रहेंगे कि कैसे संसद को आवारा होने से बचाने के लिये सड़कों को गुंजायमान करना चाहिये। किसानों के सड़कों पर उतरने का कारण था देश की मजबूत मंडी व्यवस्था को तबाह कर कृषि उत्पादों को मोदी के कारोबारी मित्रों के भंडारगृहों तक पहुंचाने के मंसूबों को ध्वस्त करना, तो वहीं बसों एवं ट्रकों के ड्राइवरों को स्टीयरिंग व्हील को छोड़कर रास्तों को जाम करने का उद्देश्य था खुद को ऐसी सज़ा से बचाना जो गलती के अनुपात में बहुत ज्यादा कठोर है। अपराध प्रक्रिया संहिता (आईपीसी) के कुछ प्रावधानों में केन्द्र ने हाल ही में समाप्त हुए उस संसद सत्र में संशोधन किया, जिसमें विपक्ष लगभग नदारद था। करीब डेढ़ सौ सांसदों की अनुपस्थिति में, जिन्हें योजनाबद्ध तरीके से और किसी षडयंत्र के तहत निलम्बित किया गया था, ये कानून पास हुए जिसके मुताबिक हिट एंड रन मामले में 10 वर्षों की सज़ा और 7 लाख रुपये का जुर्माना तय किया गया है। ये प्रावधान इतने कठोर हैं कि हजारों लोगों ने ड्राइवरी से तौबा करने की ठान ली। वे जान गये कि इसकी चपेट में आने पर उनका आजीवन जेल में रहना तय है।
वैसे तो यह कानून हर उस व्यक्ति पर लागू होता है जो किसी भी प्रकार के वाहन चलाता है, फिर चाहे वह ट्रक हो या बस, कार हो या बाइक। गैर इरादतन व त्रुटिवश अगर उनके द्वारा कोई दुर्घटना होती है तो उसे घायल को अस्पताल पहुंचाने और पुलिस में जाकर शिकायत करना कानूनन बाध्य होगा। इस कानून के अमल में वाहन चालकों द्वारा व्यवहारिक दिक्कतें महसूस किये जाने पर यह तीन दिवसीय हड़ताल पुकारी गई थी। दो दिनों में ही देश का जो हाल हुआ, उससे सरकार झुक गई। देश भर के पेट्रोल पम्प खाली हो गये और जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगीं। यात्रियों को बसें नहीं मिलीं और माल ढुलाई ठप हो गई। ट्रेनें इस कदर पैक हो गईं कि डिब्बों में पैर रखने की जगह भी नहीं रही। बच्चे स्कूल नहीं जा पाए। लोगों को बस अड्डों में रात गुजारने पड़ी।
ऐसी हालत होने पर सरकार की आंखें खुलीं और वह समझ गई कि हड़ताल के तीसरे दिन में प्रवेश करते-करते अनर्थ हो जायेगा। सामने चुनाव भी है। 22 जनवरी को राममंदिर का उद्घाटन समारोह तो बदमज़ा हो ही जायेगा, अप्रैल में निर्धारित लोकसभा चुनाव में भी उसे नुकसान पहुंचेगा। जिस तरह से राममंदिर प्रकरण में मोदी धार्मिक मसले का सहारा लेकर अपनी जीत व तीसरी बार पीएम बनने के लिये प्रयासरत हैं, उससे रामभक्त ही नाराज़ हो चले हैं। कई लोगों के इस आशय के वीडियो वायरल हो रहे हैं जिसमें वे बता रहे हैं कि पहले वे भाजपा को ही वोट देते आये हैं परन्तु अब नहीं देंगे। ऐसे ही, उतर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अकबर नगर में चले बुलडोज़र ने ऐसे लोगों के घरों को गिराया है जो भाजपा के मतदाता हैं। अब ट्रांसपोर्ट व्यवसाय से जुड़े लोगों का भी भाजपा से मोह भंग हो गया है। कई ड्राइवर, कंडक्टर, क्लीनर आदि कह रहे हैं कि इस बार वे भाजपा को सबक सिखाएंगे।
सम्भवत: भाजपा व केन्द्र को इसकी भनक मिल गई है। किसी बड़े नुकसान के अंदेशे में मंगलवार को सुलह हुई और ट्रकों के थमे हुए पहिये फिर से घूमने लगे। इसलिये सम्बन्धित विभाग के अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि अभी ये कानून लागू नहीं किये जा रहे हैं। इन पर अमल इस क्षेत्र के प्रतिनिधियों से बात करने के बाद होगा।
जिस प्रकार से भूमि अधिग्रहण कानून एवं कृषि कानूनों के खिलाफ लोग हमलावर हुए और केन्द्र सरकार को इन्हें वापस लेना पड़ा था, वैसे ही इस मामले में भी सरकार को मुंह की खानी पड़ी है। माना जाता है कि पहले दोनों कानूनों की ही तरह ये कानून (हिट एंड रन) भी असंगठित क्षेत्र को तबाह करने के उद्देश्य से लाये गये थे ताकि बाद में इन्हें निजी क्षेत्र को सौंपा जा सके। जिस प्रकार पहले किसानों को यह बात समझ में आ गई और उन्होंने वक्त रहते काले कानूनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा, वैसा ही इस बार हुआ।
तीनों ही मर्तबा केन्द्र सरकार ने विशेषज्ञों, संसदीय समितियों, सांसदों और सम्बन्धित पक्षों से सलाह-मशविरा किये बिना ये कानून पारित किये लेकिन वापस लेने पड़े। ऐसे वक्त में जब मोदी सरकार के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा रहा, ड्राइवरों ने सजगता व निडरता का परिचय दिया है जिससे सभी को सीखना चाहिये। किसान-ड्राइवर नये पथ प्रदर्शक हैं।