आखिर कौन है असली गांधीवादी?
पवित्र पुस्तकों के संदेशों को व्यापक संभव अर्थों के लिए लिया जाना चाहिए;
- डॉ. डी.जॉन चेल्लादुरई
पवित्र पुस्तकों के संदेशों को व्यापक संभव अर्थों के लिए लिया जाना चाहिए। उससे कम अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए। खेड़ा ने उन लोगों का पक्ष लिया है जो अपने संदेश को सबसे संकीर्ण संभव अर्थ देने के लिए निंदात्मक ढंग से नीचे गिरते हैं क्योंकि उनका इरादा सत्य की खोज करने का कम है बल्कि एक ऐसे इंसान को बदनाम करने का अधिक है जिसे वह नफ़रत करने के लिए चुनता है। निश्चित रूप से शिव खेड़ा गांधीवादी नहीं हैं।
हाल के वर्षों में महात्मा गांधी और उनकी विचारधारा पर कई हमले हुए हैं। राष्ट्रपिता को गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है, गलत पढ़ा जा रहा है और गलत व्याख्या की जा रही है। वास्तव में, यह एक मिनी-उद्योग है जो राष्ट्रपिता की छवि बिगाड़ने में महारत रखता है। यह लेख महात्मा गांधी के गलत चरित्र चित्रण को खारिज करना चाहता है जो इन परिस्थितियों में जरूरी है।)
महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी को कई बार यह कहते सुना गया है कि मैं गांधीवादी नहीं हूं। बाद में समझ में आता है कि उन्होंने विनम्रता से ऐसा कहा था। वे महात्मा गांधी के मानकों पर खरा उतरने में अपनी असमर्थता के प्रति सचेत थे और इसलिए उन्होंने ऐसा कहा है।
प्रसिद्ध प्रबंधन सलाहकार और प्रेरक वक्ता शिव खेड़ा ने एक छोटा वीडियो जारी किया है, जिसमें कहा गया है, 'मैं गांधीवादी नहीं हूं', तो ऐसा लगा कि यह एक और आत्म-साक्षात्कार वाले व्यक्ति का इक़बालिया बयान है। शिव खेड़ा लाखों लोगों को प्रेरित, प्रोत्साहित और उनकी वास्तविक क्षमता का एहसास कराने में मदद करते हैं। उन्हें युवाओं के एक बड़े वर्ग द्वारा गंभीरता से लिया जाता है, क्योंकि वह एक ऐसे सामाजिक शिक्षक हैं जिनकी बहुत मांग है।
जब इस तरह के बड़े व्यक्ति जनता से बात करते हैं तो स्वाभाविक रूप से उम्मीद की जाती है कि उनके शब्द तथ्यात्मक रूप से सही हों, नैतिकता पर आधारित हों और गहरे अर्थ रखते हों। जब वीडियो देखा तो और निराशा हुई। कुछ गांधीवादी विद्वानों से संपर्क किया तो अफ़सोस की बात है कि उन्होंने भी शिव खेड़ा के तर्कों को गलतबयानी से भरा पाया
आइए जानें कि खेड़ा ने वीडियो में क्या कहा था। दर्शकों में से किसी ने उनसे पूछा- 'क्या आप गांधीवादी हैं?' और उन्होंने जवाब दिया- 'गांधीवादी से आपका क्या मतलब है?', 'गांधीवादी होने के मानदंड क्या हैं?' फिर वे कहते हैं-'गांधीजी तीन सिद्धांतों में विश्वास करते थे- प्रेम, सहिष्णुता और अहिंसा।
खेड़ा ने पूछा-'क्या भगवान राम गांधीवादी थे? क्या वह प्रेम से हर किसी पर जीत हासिल करने में सक्षम थे?' इसका उत्तर है 'नहीं'। इसलिए उनका तर्क चलता है-'क्या राम ने कहा कि- 'मैं बहुत सहिष्णु व्यक्ति हूं'? आप मेरी पत्नी का अपहरण करते हैं तो कोई बात नहीं, मैं दूसरी पत्नी लाऊंगा और आप दूसरी पत्नी का अपहरण करेंगे और मैं तीसरी पत्नी लाऊंगा और यदि आप तीसरी का अपहरण करेंगे तो मैं चौथी पत्नी लाऊंगा।' राम ने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय उन्होंने कहा-'मैं अपहरणकर्ताओं को बर्दाश्त नहीं करता और उन्होंने युद्ध किया। उन्हें लड़ना पड़ा जो अहिंसा नहीं है।' इसलिए खेड़ा निष्कर्ष निकालते हैं कि राम गांधीवादी के रूप में योग्य नहीं होंगे क्योंकि उन्होंने रावण के कार्यों को बर्दाश्त नहीं किया था और उन्होंने हिंसा की थी।
खेड़ा कहते हैं- 'मैं बस इतना कह सकता हूं कि जब दुश्मन आपकी महिलाओं और बच्चों के सम्मान और गरिमा को नीलाम कर रहे हैं तो लड़ाई न करना कायरता कहलाता है, सहिष्णुता नहीं। अच्छे नेता किसी चीज के लिए स्टैंड लेते हैं और किसी चीज के खिलाफ स्टैंड लेते हैं। वे तटस्थ नहीं हैं। यदि वे तटस्थ हैं तो वे राजनेता हैं। राम ने यह नहीं कहा कि मैं तटस्थ व्यक्ति हूं। उन्होंने किसी बात के लिए-बुराई के खिलाफ एक स्टैंड लिया। यदि हम अपने शास्त्रों से सीखना चाहते हैं और इसे पूरी दुनिया में प्रोजेक्ट करना चाहते हैं तो यह समय है कि हम अपने शास्त्रों में लिखे अनुसार अमल करें।'
और फिर खेड़ा नतीजे पर पहुंचते हैं- 'ध्यान से सुनो, मैं गांधीवादी नहीं हूं।'
कहा जाए तो खेड़ा जल्दबाजी में 'सहिष्णुता' की तुलना गांधीवादी मूल्य से करते हैं और इसका अर्थ 'कायरता' बताते हैं। गांधीजी ने एक विदेशी भूमि दक्षिण अफ्रीका में एक सैन्य जनरल (जनरल जेन्स स्मट्स) के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ भारतीयों को राजनीतिक न्याय दिलाने के लिए 21 साल के लंबे संघर्ष का नेतृत्व किया और फिर भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ताकत के खिलाफ़ स्वतंत्रता के लिए 28 साल तक संघर्ष किया। ये गांधीजी ही थे जिन्होंने दुनिया भर में मुक्ति संघर्षों की एक श्रृंखला के लिए टोन और गति निर्धारित की। इन संघर्षों में अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन के नाम लिये जा सकते हैं। उनके संघर्ष और नेतृत्व से प्रभावित हो कर आधुनिक वियतनाम के शिल्पकार हो ची मिन्ह ने कहा कि 'हम गांधी के सच्चे शिष्य हैं। और खेड़ा को यह गांधी कायर और बुराई को सहन करने वाला लगता है।
गांधीजी की लड़ाई के तरीके को सत्याग्रह कहा जाता है। सत्याग्रह सभ्य, मानवीय और काफी अपरंपरागत रूप से समावेशी था क्योंकि गांधीजी का मानना था कि सभ्यता ने हमें क्रूरता और लड़ने के आदिम तरीकों के युग को पार करने के लिए पर्याप्त सिखाया है एवं मनुष्यों में यह विश्वास भरने के लिए पर्याप्त है कि हम सभी अनिवार्य रूप से जीवन-समर्थक लोग हैं तथा उस हद तक न्यायसंगत हैं। इसलिए हम सभी तर्क तथा सत्य के प्रति उत्तरदायी हैं
गांधी सहिष्णुता के पक्षधर नहीं थे। वे जो सही समझते थे उसका बचाव करने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने के लिए तैयार थे। वे सच्चाई समर्थक और जीवन समर्थक थे।
खेड़ा ने कुछ आवश्यक मुद्दों की अनदेखी की। सबसे पहले, खेड़ा 'बुराई' शब्द का उपयोग 'दुष्ट कर्म करने वाला' के अर्थ में करते हैं। गांधीजी के लिए यह समान शब्द नहीं हैं। वे दो अलग-अलग संस्थाएं हैं। बुराई एक बीमारी की तरह है जो बुरे काम करने वाले को हो जाती है। इस बीमारी को ठीक करना होगा और इसे ठीक किया जा सकता है।
गांधीजी के लिए बुराई करने वाला व्यक्ति 'मेरा सहयोगी इंसान' है और वे चाहते हैं कि उसे बचाया जाना चाहिए। धर्म का मानना है कि हम सभी ईश्वर की संतान हैं जो दिव्य क्षमता से संपन्न हैं। गलत करने वाले सहित हर कोई 'मेरा भाई' है। बुरा काम करने वाला भी इंसान है और बुराई से छुटकारा पाने का हकदार है। हम स्नान के बाद स्नान के पानी के साथ बच्चे को बाहर नहीं फेंकते हैं। बीमारी को खत्म करने के लिए डॉक्टर मरीजों को नहीं मारते हैं। यहां तक कि न्यूनतम सामान्य ज्ञान वाला डॉक्टर भी ऐसा नहीं करेगा। ऐसा करना 'लड़ाई' के उद्देश्य को धता बताने के बराबर है। खेड़ा इस तथ्य को अनदेखा कर बच्चे को बाहर फेंकना चाहते हैं।
यह बड़ी अजीब बात है कि एक आदमी जिसने जनरल स्मट्स और तानाशाही ताकतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपने लोगों की गरिमा और अधिकारों को हासिल करने में सफल रहा वह व्यक्ति खेड़ा को कायर व दब्बू प्रतीत होता है।
क्या राम हिंसक थे? भगवान राम का कार्य रावण को मारने के लिए निर्देशित नहीं था। उनकी लड़ाई का उद्देश्य धर्म की रक्षा करना, धर्म को बहाल करना था। यह संघर्ष आखिरी समय तक रावण को उसके अहंकार और पाप से छुड़ाने के लिए था। यह मिशन सफल नहीं हुआ, सर्जरी विफल रही और रोगी की मृत्यु हो गई। एक असफल सर्जरी में रोगी की मृत्यु के लिए डॉक्टर को हत्यारे के रूप में नहीं रखा जाता है। नैतिक रूप से कहें तो रावण की मृत्यु भगवान राम के एक इच्छित कार्य का परिणाम नहीं थी। यह वास्तव में रावण के अधर्म के पालन के कारण था जिसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था और जो सुधरने के लिए तैयार नहीं था। धर्म की स्थापना के संघर्ष में रावण की मृत्यु अवश्यंभावी थी इसलिए यह जानबूझकर किया गया काम नहीं था। और उस हद तक यह पूरी लड़ाई सत्य-समर्थक एवं जीवन-समर्थक थी।
गांधीजी ने अपने लोगों से कहा कि हमारे लोगों के सम्मान की रक्षा में हमें अंत तक लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। भले ही इसके लिए आपको अपनी जान देनी पड़े। उन्होंने महिलाओं से पूछा, 'प्रकृति ने आपको नाखून और दांत क्यों दिए?' गांधीजी ने अपनी बात बिल्कुल स्पष्ट कर दी। अहिंसा 'परमोधर्म' है, एक बहुत ही श्रेष्ठ सिद्धांत है। जो लोग इसमें विश्वास करते हैं उन्हें सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के लिए अहिंसक रूप से लड़ना चाहिए। हालांकि अगर कोई अहिंसा की सर्वोच्चता के बारे में आश्वस्त नहीं है तो उसे हिंसक तरीके या अपने जीवन की रक्षा में लड़ना चाहिए क्योंकि बुराई के प्रति मूक समर्पण कायरता है और कायरता हिंसा से भी बदतर अपराध है।
रक्षा के इस तरह के कार्य को च्गैर-हिंसक आक्रामकता' माना जाता है।
किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट बात का श्रेय देना तथा उस व्यक्ति को बदनाम करने के लिए उस विशिष्ट बात को केवल अपना अर्थ देना बौद्धिक बेईमानी होगी। खेड़ा ने गांधीवादी मूल्यों को गलत अर्थ के लिए जिम्मेदार ठहराया और इसके लिए गांधी के व्यक्तित्व की हत्या कर दी। ऐसा करना गोडसे जैसी प्रवृत्ति है।
वेद और उपनिषद पवित्र ग्रंथ हैं, भगवान राम जैसे अवतार और युधिष्ठिर जैसे नेता भी ऐसे ही हैं। वे सर्वव्यापी वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसी पवित्र पुस्तकों के संदेशों को व्यापक संभव अर्थों के लिए लिया जाना चाहिए। उससे कम अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए। खेड़ा ने उन लोगों का पक्ष लिया है जो अपने संदेश को सबसे संकीर्ण संभव अर्थ देने के लिए निंदात्मक ढंग से नीचे गिरते हैं क्योंकि उनका इरादा सत्य की खोज करने का कम है बल्कि एक ऐसे इंसान को बदनाम करने का अधिक है जिसे वह नफ़रत करने के लिए चुनता है। निश्चित रूप से शिव खेड़ा गांधीवादी नहीं हैं।
(लेखक इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज़, एमजीएम यूनिवर्सिटी, औरंगाबाद के डीन हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)