फैज़ के बहाने किस तरह का खेल होने लगा?
मुनज़्ज़ा हाशमी की शिनाख़्त क्या है? जर्मनी के बॉन शहर में दरिया-ए-राइन के तीर पर डायचे वेले ऊर्दू सर्विस की हेड, किश्वर मुस्तफा ने एक इंटरव्यू में यह सवाल पूछा, तो एक ही उत्तर था कि उनकी पहचान विश्व प्रसिद्ध शायर फैज़ अहमद फैज़ की बेटी होने की वजह से है;
- पुष्परंजन
पिछले दो-ढाई दशकों से फैज़ के हवाले से जो किताबें आ रही हैं, उसमें कश्मीर के गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिशें हो रही हैं। पाकिस्तानी एक्टर और म्यूज़िक कंपोजर अरशद महमूद ने 2011 में जानकारी दी, कि फैज़ अहमद फैज़ ने 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे', शेख़ अब्दुल्ला के लिए रचा था।
मुनज़्ज़ा हाशमी की शिनाख़्त क्या है? जर्मनी के बॉन शहर में दरिया-ए-राइन के तीर पर डायचे वेले ऊर्दू सर्विस की हेड, किश्वर मुस्तफा ने एक इंटरव्यू में यह सवाल पूछा, तो एक ही उत्तर था कि उनकी पहचान विश्व प्रसिद्ध शायर फैज़ अहमद फैज़ की बेटी होने की वजह से है। मुनज़्ज़ा हाशमी ने कहा, 'वो जेल में थे, तब मैं बहुत छोटी थी। मेरी मां बहुत मुश्किल हालात से गुज़र रही थीं। उन्हें मौत की सज़ा दी गई थी, काल कोठरी में रखा। जिसके लिए उन्होंने अपना मुल्क छोड़ा, अपना मज़हब छोड़ा, अपना ख़ानदान छोड़ा, वो लोग ऐसा करने लगे थे।'
मुल्क छोड़ा, वो बात समझ में आती है, 'मज़हब छोड़ा', क्या मतलब इसका? मालूम नहीं, मुनज़्ज़ा हाशमी 2015 में श्रीनगर की यात्रा के बाद यूपी के सहारनपुर गईं, या टाल दिया। मगर, फैज़ अहमद फैज़ के पूर्वज यहीं से तो आये थे। क्षत्रिय राजपूत राजा सैन पाल के ख़ानदान से फैज़ अहमद फैज़ के वालिद थे, सुलतान मुहम्मद ख़ान। सुलतान मुहम्मद ख़ान, अफग़ानिस्तान के अमीर अब्दुल रहमान ख़ान के मुंशी व अनुवादक रह चुके थे। 11 साल अफग़ानिस्तान रहकर सुलतान मुहम्मद ख़ान कालाकादर (सियालकोट) लौट आये, फैज़ यहीं 13 फ रवरी 1911 को जन्मे थे। फैज़ के पूवर्जों में से किसने धर्म परिवर्तन किया था, यह गुत्थी मुनज़्ज़ा हाशमी ही सुलझा सकेंगी। मगर, उन्हें इस बात की ख़लिश तो है कि उनके पूर्वज हिंदू से मुसलमान क्यों हुए? और जिनके लिए हुए, वो भी दुष्ट, दगाबाज़ निकले।
फि लहाल मुनज़्ज़ा हाशमी उस किताब को अदबी दुनिया से वाकिफ़ कराने की चिंता है, जो मई 2022 में पब्लिश हुई है। 160 पेज की किताब, 'कन्वर्सेशन विद माई फादर', की क़ीमत है तीन हज़ार रूपये। मुनज़्ज़ा हाशमी इस सिलसिले में पहले बॉन 3 सितंबर 2022 को एक समारोह में आईं, $िफर ब्रसेल्स गईं। लेकिन इस पुस्तक के प्रचार में जो चंद चेहरे शामिल रहे हैं, उनसे आप सबों का परिचित होना बहुत ज़रूरी है। बॉन में एक संस्था बनाई गई, 'राइन इंडस ग्लोबल फोरम'। घर से चलती है यह संस्था, जिसका ख़र्चा-पानी कह नहीं सकते, पाकिस्तान दूतावास कितना देता है।
इसी 'राइन इंडस ग्लोबल फोरम' के मंच पर 3 सितंबर 2022 को मुनज़्ज़ा हाशमी नमूदार थीं। जो 50-60 चेहरे 'बुक-लांच और मुशायरे' के अवसर पर वहां दिखे, उनमें बर्लिन से आये पाकिस्तान के राजदूत डॉ. मोहम्मद फैज़ल और ब्रसेल्स स्थित 'कश्मीर कौंसिल ईयू' के चेयरमैन अली रज़ा सैयद उल्लेखनीय हैं। मुनज़्ज़ा हाशमी उस कार्यक्रम के बाद ब्रसेल्स गईं, वहां कश्मीर कौंसिल ईयू के प्लेटफार्म पर अपनी पुस्तक की पीआरशिप की।
आईएसआई से फंडेड कश्मीर कौंसिल ईयू का एक ही लक्ष्य रहता है, अलगाववाद को आगे बढ़ाना। डॉयचे वेले के ऊर्दू डिपार्टमेंट में भी पाक दूतावास का बराबर दखल रहा है। यह सवाल कोई पूछ सकता है कि ऊर्दू डिपार्टमेंट में सारे सहाफी पाकिस्तान से ही क्यों? क्या ऊर्दू केवल पाकिस्तान की भाषा है? ऊर्दू में सेलेक्शन के लिए सीनियर्स भारत की ओर रूख़ नहीं करते। क्यों ऐसा होता रहा, उसकी अंतर्कथा फ़िर कभी। अभी तो उस नेक्सस की बात करनी है, जिसमें जावेद अख़्तर के लिए बूबी ट्रैप तैयार करना ब्रसेल्स में तय हुआ था।
13 फरवरी 1911 को फैज़ अहमद फैज़ का जन्म हुआ था, और 20 नवंबर 1984 को लाहौर मेें वो फ़ौत हुए थे। इन दोनों में से कोई दिन लाहौर में आहूत समारोह के लिए तय नहीं था। पिछली बार 4 से 6 मार्च 2022 को अल्लामा हॉल लाहौर में फैज़ फेस्टिवल मनाया गया था। मतलब, मुनज़्ज़ा हाशमी, जो 'फैज़ घर और फैज़ फाउंडेशन' की सब कुछ हैं, उनकी जब इच्छा होती है, और पाकिस्तान के सियासतदानों को जब सहूलियत होती है, फैज़ के हवाले से समारोह मना लिया जाता है। आप माज़ी की तवारीख़ों को मिलायेंगे, शायद ही उसका सिलसिला मिले। इस बार 17 से 19 फरवरी 2023 को फैज़ अहमद फैज़ का स्मरणोत्सव मनाना तय कर लिया गया। समारोह में कथ्य-कि़स्सागोई से लेकर कत्थक-कव्वाली जैसे विभिन्न फ लक थे। सात पुस्तकें भी लांच की जानी थी, जिसमें मुनज़्ज़ा हाशमी की हालिया पुस्तक का ऊर्दू अनुवाद शामिल था। समारोह में भारत से संगीत और साहित्य के शोबे से आये अन्य चेहरे भी नुमायां थे, मगर एपीसेंटर बन चुके थे जावेद अख़्तर।
लाहौर समारोह के वास्ते दिल्ली स्थित पाक उच्चायोग पूरा सक्रिय था। भारत-पाक के बीच संबंध सुधर जाएं, इस उद्देश्य से 2022 में चार 'ट्रैक टू' बैठकें हुई थीं, जिसमें बैकॉक, मस्कट, लंदन और काठमांडो में दोनों तरफ़ से राब्ता हो चुका था। मगर, 2024 चुनाव देखते हुए दिल्ली के रणनीतिकार चाहते नहीं थे, कि उभयपक्षीय संबंध अच्छे हो जाएं।
जावेद अख़्तर की तमाम ख़ूबियों में से सबसे बड़ी ख़ूबी यह है, कि वो वक़्त को पहचानते हैं, और देश-काल-परिस्थितियों के अनुरूप गोट खेलते हैं। उनकी जो 'कमज़ोरी' है, उसे भी पाकिस्तानियों ने कैमरे में क़ैद कर लिया है। लेकिन क्या जावेद अख़्तर, भारतीय रणनीतिकारों की जानिब से 'कालनेमी' के रूप में लाहौर के मंच पर भेजे गये थे? आप जाओ, कुछ ऐसा कह आओ कि 'ट्रैक टू डिप्लोमेसी' भी पटरी से उतर जाए, और जो भक्त-भक्तिनें भारत में आप पर हमलावर हैं, वो नतमस्तक हो जाएं।
दरअसल, फैज़ समारोह के बहाने दोनों देशों में एक तीर से कई शिकार किये गये हैं। उस पार के न$फरतिये आग-बबूला हैं, इधर वाले जावेद अख़्तर का पिछला कहा-सुना माफ़ कर, 'घर में घुस कर मारा' ट्वीट करने लगे। इसके बरक्स पाकिस्तान के तथाकथित राष्ट्रवादी पत्रकार तपे हुए हैं। पाकिस्तानी यू ट्यूबर सिद्रा इकबाल सवाल करती हैं, 'जावेद साहब कुलभूषण जाधव भारत से भेजा गया, या इजिप्ट से आया है? हमारे ही ज़मीन पर हमारे खिलाफ़ साजिश करता हुआ, आपका सिपाही पकड़ा गया।
सिपाही मकबुल हुसैन को हम भूले नहीं हैं। 2021 में लाहौर के बम ब्लास्ट में भारत का हाथ रहा है। इवीडेंस हैं हमारे पास। भारत कोऑपरेट करे, तो साबित कर देंगे हम। नूसरत फतेह अली ख़ान और मेहंदी हसन को भारत बुलाकर आपने कमाल नहीं किया। उनके गाने रिमिक्स कर बॉलीवुड में आप लोग पैसे बना रहे हैं।'
सबसे बड़ा सवाल यह है, कि अदबी दुनिया के जो ऑइकॉन हैं, उनके नाम पर कूटनीतिक बिसात क्यों बिछाई जा रही है? दूतावासों, खुफिया एजेंसियों से फंडेड जो साहित्य-संगीत समारोह हो रहे हैं, उसका लक्ष्य साहित्य संवर्द्धन की आड़ में सूचनाएं इस पार से उस पार देना रहा है। पिछले दो-ढाई दशकों से फैज़ के हवाले से जो किताबें आ रही हैं, उसमें कश्मीर के गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिशें हो रही हैं।
पाकिस्तानी एक्टर और म्यूज़िक कंपोजर अरशद महमूद ने 2011 में जानकारी दी, कि फैज़ अहमद फैज़ ने 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे', शेख़ अब्दुल्ला के लिए रचा था। उनका दावा है कि फैज़ अहमद फैज़ मेरे मुर्शिद रह चुके हैं, और मुझे अंदरूनी बातों का पता है। एक पाकिस्तानी पत्रकार शमीन ने पूछा कि मसला ए कश्मीर का हल फैज़ किस तरह सोचते थे? अरशद महमूद का उत्तर था- 'संपूर्ण स्वायतता चाहते थे फैज़ अहमद फैज़। स्वतंत्र कश्मीर के दोस्ताना संबंध भारत-पाकिस्तान दोनों से हों, ये चाहते थे मेरे गुरू।'
लाहौर में फैज़ फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं, अली मदीह हाशमी। पेशे से मनोचिकित्सक, मगर साहित्य में दखल रखते हैं। पांच किताबें लिखीं, उनमें से 2016 में प्रकाशित 'लव एंड रेवोल्यूशन' में वो दावा करते हैं कि फैज़ अहमद फैज ने 'सुबह ए-आज़ादी' कविता लिखने की शुरूआत की लाहौर से, और उसे समाप्त किया श्रीनगर पहुंचने पर। जबकि उससे पहले जानकारी यह दी जाती रही कि फैज़ ने पाकिस्तान के जन्म के अवसर पर तारीख़ी नग़मा 'सुबह ए-आज़ादी' लिखा था। 'लव एंड रेवोल्यूशन' में एक और जानकारी साझा की गई कि अक्टूबर 1947 के दिनों फैज़ अहमद फैज़ और उनके भाई तासीर, शेख़ अब्दुल्ला से मिले थे, और उन्हें पाकिस्तान ज्वाइन करने की सलाह दी।
जो बातें अब लिखी जा रही हैं, उसकी पुष्टि या खंडन करने के लिए न तो शेख़ अब्दुल्ला जीवित हैं, न ही फैज़ अहमद फैज़। मगर, श्रीनगर में डल झील के किनारे अवस्थित परी महल, दोनों की दोस्ती की गवाही देता आज भी खड़ा है। श्रीनगर के चुनिंदा लोगों की मौजू़दगी में फैज़ अहमद फैज़ ने परी महल के प्रांगण में एलीस जार्ज से शादी की थी। हिंदी, ऊर्दू और अंग्रेज़ी में लिखे उस निकाहनामें को अल्लामा इक़बाल ने तैयार किया था, जिसपर तीन लोगों, बक्शी ग़ुलाम मोहम्मद (1953 से 1964 तक जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री), ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ (1964 से 1965 तक जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री) और डॉ. नूर हुसैन की गवाही थी। परी महल में निकाह के बाद, छोटी सी दावत के साथ-साथ मुशायरा हुआ, जिसमें जोश, मजाज़ तक उपस्थित थे। यह सारा आयोजन शेख़ अब्दुल्ला ने किया था।
निकाह के कुछ हफ्तों बाद एलीस जार्ज ने धर्म परिवर्तन कर लिया, उनका नया नाम था, एलीस कुलसुम फैज़। विभाजन के बाद फैज़ अहमद फैज़ लाहौर चले गये। एलीस श्रीनगर में ही थीं। दोनों में पत्रों का सिलसिला बना रहा, फैज़ अहमद फैज़ विभाजन की हृदयविदारक परिदृश्य से वाबस्ता अफ साने एलीस को लिखते रहे। सितंबर 1942 में लाहौर के जाने-माने वामपंथी फैज़ल इलाही कु़रबान ने श्रीनगर के एक हाउस वोट में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी।
घाटी में कम्युनिस्टों का दबदबा बढ़ने लगा था। श्रीनगर के एस.पी. कालेज के प्रिसिंपल, डॉ. एमडी तासीर वामपंथी थे, फैज़ अहमद फैज़ के हम प्याला-हम निवाला। उन्होंने एलीस की बहन क्रिस्टोबेल से शादी कर, उनका भी धर्म परिवर्तन करा दिया गया। वामपंथी विचारधारा को विस्तार देने के जिस मज़बूत मक़सद से एलीस जार्ज कश्मीर आई थीं, वो क्या फैज़ अहमद फैज़ के पत्रों ने कमज़ोर करके रख दिया था? फैज़ अहमद फैज़ यदि सच्चे वामपंथी थे, तो अपनी व्याहता का धर्म परिवर्तन कराके, किस विचारधारा को मज़बूत किया था?