कहानी की कहानी
वह एक शानदार पार्टी थी। मिस्टर हेमचंद्र बरुआ की कहानी को एक प्रतिष्ठित संस्था द्वारा वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित किया गया था;
- डॉ अमित रंजन
वह एक शानदार पार्टी थी। मिस्टर हेमचंद्र बरुआ की कहानी को एक प्रतिष्ठित संस्था द्वारा वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित किया गया था। इसके साथ ही उन्हें एक लाख रुपये की इनामी राशि भी मिली थी।
राशि महत्वपूर्ण थी, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण थी वह संस्था, जिसने यह पुरस्कार दिया था। साहित्य जगत में उसकी खासी प्रतिष्ठा थी, और वहाँ से पुरस्कृत होने का अर्थ था—साहित्यकार के रूप में एक लंबी छलांग।
इसलिए जब मिस्टर बरुआ को यह पुरस्कार मिला, तो उन्होंने अपने करीबी लोगों के लिए एक शानदार पार्टी दी। पार्टी होटल के एक बैंक्वेट हॉल में चल रही थी।
इसी बीच, मिस्टर बरुआ वॉशरूम गए। जैसे ही उन्होंने चेहरे पर पानी डाला, पीछे से एक भारी आवाज़ आई—
'कम से कम अब तो मेरी डायरी लौटा दो!'
मिस्टर बरुआ चौंक गए। पीछे मुड़कर देखा—एक अधेड़ व्यक्ति खड़ा था। उसकी कनपटी के बाल सफेद हो चुके थे, शरीर भारी था, सिर के आगे के बाल उड़ चुके थे। उसने कोट पहना था, जिसके बटन खुले थे और शर्ट के अंदर से उसका निकला हुआ पेट झांक रहा था।
'अब तो मेरी डायरी लौटा दो!' वह व्यक्ति फिर बोला।
'कौन सी डायरी? कैसी डायरी? किसकी बात कर रहे हैं आप?'
इससे पहले कि वह व्यक्ति कुछ कहता, मिस्टर बरुआ तेजी से वॉशरूम से निकल गए।
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मिस्टर हेमचंद्र बरुआ एक कंपनी के बड़े अधिकारी थे। कंपनी की एक शाखा बिहार में भी थी, और वहीं एक मीटिंग में भाग लेने के लिए उन्हें जाना था।
बिहार जाने के नाम से उनके परिवार वाले ऐसे चिंतित हो गए मानो वे किसी युद्धग्रस्त देश रवांडा या बुरुंडी जा रहे हों।
'हमारे यहाँ जैसे कपड़े बालकनी में टंगे होते हैं, वैसा ही बिहार में पिस्टल टंगे होते हैं!'
'आई ना हमरे बिहार में, कट्टा मार देंगे सीधे कपार में!'
ऐसे मिथकों ने बिहार की छवि जहरीली कर दी थी। इस डर ने मिस्टर बरुआ को भी जकड़ लिया था। वे हरसंभव प्रयास कर चुके थे कि बिहार न जाना पड़े, लेकिन अंतत: नाकाम रहे और उन्हें गया की फ्लाइट पकड़नी पड़ी।
जब वे गया एयरपोर्ट पर उतरे, तब ठंडी सर्दी की शाम थी। चारों ओर कोहरा था। एयरपोर्ट से निकलते निकलते शाम बूढ़ी होकर गुजर गई और रात्रि का यौवन ढलक आया था । रात में यात्रा करना असुरक्षित समझकर उन्होंने एयरपोर्ट के पास के ही एक होटल में कमरा बुक कर लिया।
होटल ठीक-ठाक था। खाना खाकर जब वे सामान जमाने लगे, तो लॉकर में एक डायरी पड़ी मिली। इंटरनेट न चलने के कारण समय बिताने के लिए उन्होंने डायरी पढ़नी शुरू कर दी।
डायरी किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की प्रतीत हो रही थी। इसमें विश्वविद्यालय की घटनाओं को विविध शीर्षकों में लिखा गया था—
कथनी बनाम करनी
शिक्षक संघ की बैठक अपने चरम पर थी। सचिव महोदय गरज-गरज कर भाषण दे रहे थे—
'यह बायोमेट्रिक अटेंडेंस शिक्षकों की गरिमा पर आघात है! सरकार हमें नौकरशाह समझने लगी है! यह हमला हमारे स्वाभिमान पर है!'
तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा। मैं भी वहाँ बैठा था, सोच रहा था कि शायद कोई शिक्षकों की वास्तविक समस्याओं पर भी बात करेगा। महाविद्यालय में महिला शिक्षकों के लिए शौचालय तक नहीं थे, जिससे उन्हें भारी असुविधा होती थी। वत्स जी की तीन दिन की सैलरी बिना किसी कारण काट ली गई थी। लेकिन इन मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुई।
घड़ी पर नज़र पड़ी— 1:30 बजे की ट्रेन का समय हो गया था। सचिव महोदय ने अपनी गरिमामयी बातें समेटीं, माइक एक हाथ में पकड़ा और दूसरे हाथ से अपनी घड़ी देखी।
'संघ की लड़ाई जारी रहेगी!'—इतना कहकर वे तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ गए। मैं मुस्कुराया। ये वही महोदय थे जो छपरा से पटना अप-डाउन करते थे और बायोमेट्रिक अटेंडेंस का सबसे अधिक विरोध कर रहे थे। अगर यह लागू हो जाता तो वे '12 बजे लेट नहीं और 2 बजे भेंट नहीं' को कैसे सार्थक कर पाते ।
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कॉपी घोटाला - वीसी साहब की साजिश
परीक्षा सिर पर थी और विश्वविद्यालय ने ऐन मौके पर घोषणा कर दी—
'कॉपियाँ उपलब्ध नहीं हैं।'
हर साल परीक्षा से पहले ही कॉपियाँ खरीद ली जाती थीं, लेकिन इस बार वीसी साहब ने टेंडर ही नहीं जारी किया। परीक्षा के दो दिन पहले अचानक एक प्राइवेट सप्लायर से 10 रुपये की कॉपी 30 रुपये में खरीदी गई। बाद में पता चला कि वह टेंडर वीसी साहब के साले को दिया गया था।
छात्रों को कॉपियों की सख्त जरूरत थी, इसलिए किसी ने सवाल नहीं उठाया। कुछेक ने विरोध करने की कोशिश की, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने सीधा जवाब दिया—
'अगले साल से व्यवस्था सुधार दी जाएगी।'
लेकिन हम सब समझ गए थे कि यह भ्रष्टाचार की एक सुनियोजित चाल थी।
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संस्कृत मैडम - कर्महीनता का आदर्श उदाहरण
संस्कृत विभाग की मैडम विश्वविद्यालय में होने वाले हर कार्यक्रम की शुरुआत मंत्रों के उच्चारण से करती थीं। जब तक वे मंच पर होतीं, उनकी आवाज़ में संस्कृत का ओज होता। लेकिन इसके अलावा उनका विश्वविद्यालय में कोई योगदान नहीं था।
'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:!'—इतना बोलने के बाद वे अपने मोबाइल में फेसबुक खोलकर बैठ जातीं।
संस्कृत का नामांकन नगण्य था, तो पढ़ाने की जिम्मेदारी भी शून्य थी। जब भी कोई छात्र उनके पास आता, वे कहतीं—
'संस्कृत आत्मसात करने की चीज़ है, इसे पढ़ाया नहीं जाता।'
सुबह 12 बजे आतीं और दोपहर 2 बजे तक किसी न किसी बहाने से निकल जातीं। कभी कहतीं—
'आज शरीर में पीड़ा हो रही है।'
तो कभी—
'घर पर हवन करना है।'
उनकी कर्महीनता देखकर अन्य शिक्षक भी यही सीखने लगे थे कि अगर काम नहीं करना तो बस संस्कृति और परंपरा की बातें करो, सवाल कोई नहीं करेगा।
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ईमानदारी की सजा और भ्रष्टाचार का इनाम
प्रोफेसर सुमन बाबू ने विश्वविद्यालय में एक प्रतियोगिता आयोजित की थी। इसके लिए उन्होंने अपने पैसे खर्च किए और बाद में बिल पास कराने गए। बड़ा बाबू ने उन्हें पहले ही दिन समझा दिया—
'सर, बिना तेल के मशीन नहीं चलती!'
सुमन बाबू ने रिश्वत देने से इनकार कर दिया। अगले तीन महीने तक उन्होंने $फाइलों के चक्कर लगाए, लेकिन हर बार कोई न कोई नई अड़चन आ जाती। आखिरकार थक-हारकर उन्होंने पैसे छोड़ दिए, लेकिन भ्रष्टाचार के आगे झुकने से इनकार कर दिया।
बिल आज भी विश्वविद्यालय की किसी धूल खाती अलमारी में पड़ा होगा।
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नैतिकता का ठेकेदार और घिनौनी हकीकत
प्रोफेसर मनीष, जो धार्मिकता के प्रतीक बने घूमते थे, नैतिकता और धर्म पर बड़े-बड़े प्रवचन देते थे। सिर पर चोटी, माथे पर लंबा टीका, मंगलवार को व्रत रखने वाले मनीष सर के बारे में कॉलेज की बच्चियों की शिकायत थी कि 'सर आशीर्वाद देने के बहाने पीठ सहलाते हैं।'
एक दिन परीक्षा के दौरान, जब वह एक छात्रा से बार-बार बात करने पहुँचे, तो अचानक लड़की चीख उठी—
'सर ने छेड़खानी की है!'
वह लड़की दबंग जाति की थी। देखते ही देखते 20-25 लोग लाठी-डंडे लेकर कॉलेज पहुँच गए। माहौल गरम हो गया। लेकिन हमारे शिक्षक संघ के सचिव महोदय उस समय पटना जाने वाली ट्रेन में बैठे थे, इसलिए बच निकले। मनीष सर को जबरन बुलाया गया और उन्होंने हाथ जोड़कर माफी मांगी। कुछ लोगों ने उनकी उम्र देखकर उन्हें माफ कर दिया, लेकिन हम सभी शिक्षकों के लिए वह दिन शर्म से सिर झुका लेने का था।
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शिक्षा या मज़ाक?
एक छात्र नकल करते पकड़ा गया। मोबाइल में सभी उत्तर लिखे थे। पूछने पर रो पड़ा— 'माँ का फोन आ रहा था, सर!' मुझे तरस आया, पर जब मोबाइल की जांच की तो साफ था कि यह गूगल से कॉपी किया गया था। मैंने उसे परीक्षा से निष्कासित कर दिया।
कुछ देर बाद महाविद्यालय के ही एक कर्मचारी का फोन आया—
'सर, लड़का रिश्तेदार है, बड़ी मजबूरी में नकल कर रहा था।'
मैं जानता था कि यह रिश्ता 1000 रुपये का था। फिर भी मैंने चुपचाप नई कॉपी दिलवा दी।
कुछ साल बाद मुझे विश्वविद्यालय में एक काम पड़ा। अध्ययन केंद्र का कन्वीनर बनाया गया था, लेकिन मुझे लगा कि मेरा उपयोग केवल राजनीतिक खेल के लिए हो रहा है, तो मैंने इस्तीफा दे दिया।
जब मैं विश्वविद्यालय पहुँचा, तो वही कर्मचारी मिले जिनके कहने पर मैंने नकल करने वाले छात्र को दोबारा परीक्षा देने दी थी।
'सर, प्रक्रिया का पालन करना होगा!' उन्होंने रूखी आवाज में कहा।
'मैंने तो तुम्हारे कहने पर नियम तोड़ा था!' मैंने झुंझलाकर जवाब दिया।
वे मुस्कुराए— 'सर, नियम तो तब ही टूटते हैं जब फायदा हमारा हो।'
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। यह एक कटु सत्य था।
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कैंटीन का सच
कॉलेज की कैंटीन का टेंडर हर साल नया निकलता था, लेकिन इस बार किसी और को मौका ही नहीं मिला। जो पुराना ठेकेदार था, वही फिर से ठेकेदार बन गया। कारण? उसने रजिस्ट्रार साहब के खास आदमी को मोटी रकम दी थी।
खाने की हालत यह थी कि भिखारी भी देखकर मुँह मोड़ ले। खाने में पत्थर, रोटी में कंकड़, दाल में पानी और चावल में मिट्टी। लेकिन किसी ने शिकायत नहीं की, क्योंकि जिसे करनी थी, उसने पहले ही अपनी जेब गरम कर ली थी।
डायरी पढ़ते-पढ़ते कब अर्धरात्रि हो गई पता ही नहीं चला। डायरी के विवरण से प्रथम दृष्टि ऐसा लग सकता था कि वह किसी आत्ममुग्ध व्यक्ति की दास्तान है जिसे प्रत्येक व्यवस्था, प्रत्येक व्यक्ति में खोट ही नजर आता है परंतु लेखक द्वारा डायरी के अंत में लिखे गए निष्कर्ष ने उसे ऐसा होने से बचा लिया। डायरी के लेखक ने आगे लिखा था:
कई साल बाद जब मैं विश्वविद्यालय के सभागार में पुन: बैठा था, तो लगा कि सारा जीवन नैतिकता और भ्रष्टाचार के बीच झूलता रहा।
मैंने हमेशा खुद को ईमानदार समझा था। पर क्या मैं सचमुच था?
मैंने नियम तोड़े थे, समझौते किए थे, चुप रहकर अनैतिकता को बढ़ावा दिया था। मैं बाकी प्रोफेसरों की तरह ढोंगी नहीं था, पर क्या मैं उनसे अलग था? शायद नहीं।
शिक्षक संघ की अगली बैठक चल रही थी। कोई नया सचिव वही पुराने वादे दोहरा रहा था। मैंने गहरी साँस ली और धीरे-धीरे से बाहर निकल आया।
मुझे समझ में आ गया था कि यहाँ कोई भी बदलाव संभव नहीं— क्योंकि बदलाव वे चाहते ही नहीं थे, जिन्हें बदलाव से सबसे अधिक नुकसान होता।
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'श्रीमान, कम से कम मेरी डायरी तो लौटा दो!'
होटल की पार्किंग में जब बरुआ अपनी कार के पास गए, तो वही आवाज़ फिर से गूंजी।
वे मुड़े—सामने वही अधेड़ व्यक्ति खड़ा था, जिससे वे वॉशरूम में टकरा चुके थे।
'आपने मेरी डायरी में लिखी घटनाओं को हू-ब-हू रखकर कहानी लिखी। इस कहानी ने आपको ख्याति प्रदान की। लेकिन न आपने मुझे श्रेय दिया, न ही जिक्र किया कि आपको यह विचार कहाँ से मिला।'
'आपने लंबी-लंबी बातें कीं कि इस कहानी के लिए आपने बिहार के विश्वविद्यालयों का गहन अध्ययन किया, साक्षात्कार लिए। पर सच तो यह है कि आप मेरी डायरी उठा लाए थे।'
'और अब मेरी बेटी की शादी है, डायरी में खर्च और अग्रिम भुगतान के सारे नोट्स लिखे हैं।'
मिस्टर बरुआ ने चुपचाप कार का गेट खोला, एक कंपार्टमेंट से डायरी निकाली और उस व्यक्ति की ओर बढ़ा दी।