उन्हें डर है
18वीं लोकसभा के शुरुआती काल में ही देश में दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, किसानों, वंचित तबकों के सवालों पर विमर्श तेज होने लगा है;
- सर्वमित्रा सुरजन
समाज में गरीबी और अमीरी, अगड़ों और पिछड़ों की जो व्यवस्था बनी हुई है, वह बनी रहे, यह उच्च और सवर्ण तबके की सोच है। भाजपा ने सत्ता में आने के बाद इस सोच को और मजबूत किया। इसलिए देश में आर्थिक गैरबराबरी भी पहले से कई गुना बढ़ गई, इसके साथ ही अल्पसंख्यकों और दलितों पर अत्याचारों में भी बढ़ोत्तरी आई। आरक्षण को खत्म करने की कोशिशें नए सिरे से भाजपा के शासनकाल में शुरु हुईं।
18वीं लोकसभा के शुरुआती काल में ही देश में दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, किसानों, वंचित तबकों के सवालों पर विमर्श तेज होने लगा है, यह एक मजबूत होते लोकतंत्र की पहचान है। सुप्रीम कोर्ट ने अजा जजा वर्ग में उपवर्गों और क्रीमी लेयर को लेकर जो फैसला दिया था, उस पर देश के कई दलित और आदिवासी संगठनों ने अपनी असहमति दर्ज की थी। विपक्ष ने भी इस फैसले को ठीक नहीं बताया था, नतीजा यह हुआ कि केंद्र सरकार को ऐलान करना पड़ा कि वह इसे लागू नहीं करेगी। लेकिन बुधवार 21 अगस्त को इस फैसले को रद्द कराने की मांग पर भारत बंद का सफल आह्वान हुआ। इससे पहले सिविल सेवाओं में लैटरल एंट्री के जरिए प्रवेश का फैसला भी सरकार को वापस लेना पड़ा, क्योंकि विपक्ष ने आरोप लगाया था कि यह फैसला आरक्षण और संविधान विरोधी है। अपने फैसलों से भाजपा जितनी बार पीछे हट रही है, उतनी बार उसकी जुबान पर संविधान और बाबा साहेब अंबेडकर का नाम आ रहा है। भाजपा को अब चीख-चीख कर यह साबित करने की जरूरत पड़ रही है कि श्री मोदी समानता के अधिकार के रक्षक हैं, सामाजिक न्याय में उनका गहरा विश्वास है, संविधान में उनकी गहरी आस्था है। भाजपा की यह कोशिश बता रही है कि वह अब भीतर से असुरक्षित महसूस कर रही है। क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ उसने जो अभियान छेड़ा था, वह असफल हो चुका है। वहीं न राहुल गांधी को उनके मार्ग से भाजपा हटा पाई है, न सोनिया गांधी की गरिमा पर कोई दाग लगा पाई है।
दस बरस पहले जब भाजपा 10 सालों के अंतराल के बाद सत्ता में आई थी, तब कांग्रेस के खिलाफ नफरत गहरी करने का खेल काफी तेज हो गया था। भाजपा के शीर्ष नेताओं नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने कांग्रेस मुक्त भारत का बाकायदा अभियान चलाया था। जनता को यह समझाने की कोशिश की गई कि इस देश के लिए सबसे अधिक खतरनाक कुछ है, तो वो कांग्रेस है। कांग्रेस की मौजूदगी को लेकर भाजपा की सतर्कता इस हद तक थी कि उसे सत्ता से हटाकर भी भाजपा निश्चिंत नहीं हुई, बल्कि कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने पर उसने ध्यान लगाया। इसके लिए राहुल गांधी और सोनिया गांधी की छवियों पर गंभीर प्रहार हुए, जो अब तक जारी हैं। इसके अलावा कांग्रेस को तोड़ा गया, उसकी राज्य सरकारों को गिराने के षड्यंत्र हुए और इसमें भाजपा कामयाब भी हुई। दरअसल कांग्रेस को लेकर भाजपा और संघ इसलिए सशंकित रहते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि अपनी तमाम बुराइयों, कमियों और कई गलत फैसलों के बावजूद कांग्रेस कभी भी इस देश की मूल संरचना पर प्रहार नहीं करेगी। न ही कभी नेहरू-गांधी-आजाद-बोस-अंबेडकर-पटेल-भगत सिंह के आदर्श भारत की परिकल्पना को भूलेगी। कांग्रेस हर हाल में संविधान की भावनाओं के अनुरूप ही देश को चलाएगी। यूपीए शासनकाल के 10 बरस इसका प्रमाण हैं, जिनमें मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसे कई फैसले लिए गए, जिनसे पूंजीपतियों और सुविधा संपन्न उच्च तबके को उलझन होने लगी। खुद कांग्रेस के भीतर भी इन फैसलों पर अंतर्विरोध हो रहे थे, क्योंकि सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जो प्रगतिशील फैसले ले रही थी, वह संपन्न, सवर्ण तबके की सोच के खिलाफ थे। ये तबका उस सोच का हिमायती रहा है, जहां किसी रिक्शाचालक या दर्जी या मोची या किसान अगर शहरों के मॉल में जाकर अपनी मेहनत की कमाई खर्च करे तो यह उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र में दखल लगने लगता है।
समाज में गरीबी और अमीरी, अगड़ों और पिछड़ों की जो व्यवस्था बनी हुई है, वह बनी रहे, यह उच्च और सवर्ण तबके की सोच है। भाजपा ने सत्ता में आने के बाद इस सोच को और मजबूत किया। इसलिए देश में आर्थिक गैरबराबरी भी पहले से कई गुना बढ़ गई, इसके साथ ही अल्पसंख्यकों और दलितों पर अत्याचारों में भी बढ़ोत्तरी आई। आरक्षण को खत्म करने की कोशिशें नए सिरे से भाजपा के शासनकाल में शुरु हुईं। 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों के वक्त संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने के विचार प्रकट किए थे, लेकिन इसका नुकसान भाजपा को हुआ तो कुछ वक्त के लिए आरक्षण पर बयान देने से बचा गया। फिर मोहन भागवत जातिगत भेदभाव को समाज के लिए अभिशाप बताने लगे और पिछले साल उन्होंने कहा कि निचली जातियों द्वारा 2,000 वर्षों से झेले गए भेदभाव की भरपाई के लिए अगर आरक्षण को अगले 200 वर्षों तक जारी रखना होगा, तो वह इसका समर्थन करेंगे। मगर अब संघ के ही मुखपत्र पांचजन्य के संपादकीय में संपादक हितेश शंकर ने लिखा है कि जाति व्यवस्था एक चेन सिस्टम की तरह है जो भारत के विभिन्न वर्गों को उनके पेशे और परंपरा के अनुसार वर्गीकृत करने के बाद एक साथ रखती है। पांचजन्य में लिखा है 'भारत के उद्योगों को नष्ट करने के अलावा, आक्रमणकारियों ने भारत की पहचान को बदलने के लिए धर्मांतरण पर ध्यान केंद्रित किया। जब जाति समूह झुके नहीं तो उन्हें अपमानित किया गया।' इसके अलावा जाति जनगणना पर पांचजन्य ने लिखा कि 'हिंदू जीवन, जिसमें गरिमा, नैतिकता, जिम्मेदारी और सांप्रदायिक भाईचारा शामिल है, जाति के इर्द-गिर्द घूमता है। ...तो कांग्रेस ने इसे हिंदू एकता में एक बाधा के रूप में देखा। वह अंग्रेजों की तर्ज पर लोकसभा सीटों को जाति के आधार पर बांटकर देश में बंटवारा बढ़ाना चाहती है। यही कारण है कि वह जाति जनगणना चाहती है।
इस तरह संघ ने स्पष्ट कर दिया है कि वह न केवल आरक्षण की विरोधी है, बल्कि जाति जनगणना भी वह नहीं चाहता। क्योंकि इससे देश की कई जातियों को अब तक जिन हकों से वंचित रखा गया था, वो उनके लिए आवाज उठाने लगेंगे। दरअसल डरो मत का जो मंत्र राहुल गांधी ने समाज में फूंक दिया है, उसकी काट के लिए भाजपा को कोई और मंत्र नहीं मिल रहा है। राहुल गांधी जिस सहजता के साथ सब्जी विक्रेता को अपने घर बुलाकर सम्मान से बात करते हैं, उतने ही प्यार से मोची से भी मिलते हैं और उतनी ही सहजता के साथ टैक्सीचालक के परिवार से बातें भी करते हैं। मैकेनिक से बाइक सुधारना सीखना, चाय पीते हुए बढ़ई के साथ मेज-कुर्सी बनाना या फुटपाथ पर बैठकर मजदूरों से बात करना। इस तरह की राजनीति का कौन सा और कैसा जवाब भाजपा दे, यह उसकी समझ ही नहीं आ रहा है। क्योंकि चायवाले की तथाकथित छवि अब दस लाख के सूट की फ्रेम में जड़ चुकी है। इसलिए अब संघ जाति जनगणना के कांग्रेस या राहुल गांधी के वादे को हिंदू एकता में बाधा की तरह समाज को दिखाना चाह रहा है।
हालांकि 21 अगस्त के भारत बंद ने यह साबित कर दिया कि भाजपा या संघ के नजरिए से अब व्यापक समाज ने असहमति दर्ज करनी शुरु कर दी है। अयोध्या में भाजपा की हार इसका सटीक उदाहरण है, जहां हिंदुत्व का कार्ड नहीं चला। इसके अलावा अब प्रधानमंत्री मोदी से लेकर उनके सारे मंत्री जितनी बार भी बाबा अंबेडकर और संविधान की माला जप लें, देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों को संदेह हो रहा है कि उनके हुकूक की रक्षा भाजपा कर पाएगी। ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविता का एक अंश है-
उन्हें डर है
बंजर धरती का सीना चीर कर
अन्न उगा देने वाले सांवले खुरदरे हाथ
उतनी ही दक्षता से जुट जाएँगे
वर्जित क्षेत्र में भी
जहां अभी तक लगा था उनके लिए
नो-एंटरी का बोर्ड
वे जानते हैं
यह एक जंग है
जहां उनकी हार तय है
एक झूठ के रेतीले ढूह की ओट में
खड़े रह कर आख़िर कब तक
बचा जा सकता है बाली के
तीक्ष्ण बाणों से
आसमान से बरसते अंगारों में
उनका झुलसना तय है
फिर भी
अपने पुराने तीरों को वे
तेज़ करने लगे हैं।