मंदिर वाली गली
राय साहिब का घर मंदिर वाली गली में नहीं बल्कि गंगा के किनारे था;
- देवेन्द्र सत्यार्थी
राय साहिब हंसकर कहते, 'रूपम को भी उसी तरह अपने हाथ से स्याह पत्थर के इस खरल में हाज़मा की गोलियों की ये दवा घोटनी पड़ा करेगी। बड़ों की रीत को वो छोड़ थोड़ी देगा।' और वो हाथ उठा कर पीपल की तरफ़ देखते हुए जैसे दिल ही दिल में किसी मंत्र का जाप करने लगते। जैसे पीपल से कह रहे हों, 'तुम तो तब भी होगे पीपल देवता, जब हम नहीं होंगे, देखना हमारे रूपम को समझाते रहना कि ख़ानदान की रीत को छोड़े नहीं।'
राय साहिब का घर मंदिर वाली गली में नहीं बल्कि गंगा के किनारे था। बहुत ख़ुशहाली का ज़माना था। एक पैसे में तीन सौदे आ जाते थे। आठ दिन, नौ मेले वाली बात समझिए। एक रुपये के पंद्रह सेर बासमती आ जाती थी। दो रुपये का सोलह सेर दूध। रुपये की छ: मन लकड़ी। रुपये का एक मन कोयला। छ: आने गज़ लठ्ठा। सात पैसे गज़ बढ़िया मलमल और यक़ीन कीजिए दस रुपये में बहुत बढ़िया रेशमी साड़ी मिल जाती थी। इसलिए राय साहिब बोले मज़े से रहिए। जब तक आपका दिल भर न जाये।
घर के सामने एक पीपल का दरख़्त खड़ा था जिसने सैंकड़ों बाहें फैला रखी थीं। राय साहिब की उम्र उस वक़्त तीस-पैंतीस के बीच में होगी। मैं अक्सर मंदिर वाली गली में घूमने निकल जाता, और वापस आकर कभी राय साहिब से उसकी तारीफ़ करता तो वो कहते, 'वहाँ क्या रखा है? आने-जाने वालों के धक्के तो हमें नापसंद हैं और वो भी भांत-भांत के पंछी मिलते हैं। भांत भांत के चेहरे, भांत-भांत के लिबास।'
'अब दूर दूर के यात्री अपना लिबास कहाँ छोड़ आएं, राय साहिब?' मैं संजीदा हो कर जवाब देता, 'और उन बेचारों के चेहरे मुहरे जैसे हैं वैसे ही तो रहेंगे।'
वो खिलखिला कर हंस पड़ते। किसी ने भानुमती का कुम्बा देखना हो तो मंदिर वाली गली का एक चक्कर लगा आए। वहां जगह-जगह के लोगों को एक साथ घूमते देखकर मुझे तो ये शक होने लगता है कि ये एक ही देस के लोग हैं।
'ये तो ठीक है राय साहिब!' मैं बहस में उलझ जाता, 'बंगाली, महाराष्ट्री, गुजराती और मद्रासी अलग-अलग हैं तो अलग-अलग ही तो नज़र आएँगे। अपना-अपना रूप और रंग-ढंग घर में छोड़कर तो तीर्थ यात्रा पर आने से रहे।'
राय साहिब के साथ बातें करने से ज़्यादा लुत्फ़ मुझे मंदिर वाली गली के छ: सात चक्कर लगाने में आता था। यात्रियों के किसी कुन्बे की कोई नौजवान लड़की अपनी दो चोटियों में से एक को आगे ले आती या जिस्म सुकेड़ कर चलती या अंगड़ाई के अंदाज़ में महराब सी बना डालती, तो ये मंज़र देखकर मुझे महसूस होता कि मंदिर वाली गली की आप-बीती में ये तफ़सील भी बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में दर्ज हो गई। इसी तरह कोई भिखारन निचला होंट दाँतों तले दबा कर किसी भागवान यात्री औरत का सिंगार देखती रह जाती और फिर अपनी मैली कुचैली साड़ी के बावजूद सीना तान कर किसी दुकान के आईने में अपना रूप देखकर मुस्करा उठती तो ये बात भी मंदिर वाली गली की दास्तान में कलमबंद हो जाती।
ये सब बातें मैं राय साहिब को सुनाता और वो कहते, 'चौखटा मंदिर वाली गली का है और तस्वीर आपके मन की। हम क्या बोल सकते हैं? ये तो कैमरे की आँख ने नहीं, आपके दिमाग़ की आँख ने देखा।'
राय साहिब की बहुत जायदाद थी। स्याह पत्थर के खरल में वो हाज़मे की गोलियां बनाने की दवा बड़ा शौक़ से बैठे घोंटते रहे। इस दवा का नुस्ख़ा उनके पड़दादा छोड़ गए थे और ताकीद कर गए थे कि इनकी तरफ़ से हाज़मे की गोलियां मंदिर वाली गली में यात्रियों को मुफ़्त तक़सीम की जाया करें। ये काम करते वक़्त राय साहिब स्याह पत्थर के उस खरल की कहानी सुनाने लगते। उसे उनके पड़दादा जगननाथपुरी से लाए थे। जिस कारीगर ने ये खरल बनाया था, उसने चारधाम की यात्रा कर रखी थी और राय साहिब के पड़दादा से उसकी पहली मुलाक़ात बनारस की इस मंदिर वाली गली में ही हुई थी।
शादीशुदा ज़िंदगी के सात बरस गुज़ारने के बाद राय साहिब के एक बेटा हुआ। उसका नाम उन्होंने रूपम रखा। पंजों के बल चलने वाला रूपम मेरे साथ ख़ूब हिल मिल गया। वो मुझे दूर से ही पहचान लेता। वाक़ई रूपम बहुत हँसमुख था। मैं उसे उठा लेता और उसके हाथ मेरी ऐनक की तरफ़ उठ जाते। राय साहिब कहते, 'बेटा! उन की ऐनक टूट गई तो पैसे हमें ही भरने पड़ेंगे।'
राय साहिब हंसकर कहते, 'रूपम को भी उसी तरह अपने हाथ से स्याह पत्थर के इस खरल में हाज़मा की गोलियों की ये दवा घोटनी पड़ा करेगी। बड़ों की रीत को वो छोड़ थोड़ी देगा।' और वो हाथ उठा कर पीपल की तरफ़ देखते हुए जैसे दिल ही दिल में किसी मंत्र का जाप करने लगते। जैसे पीपल से कह रहे हों, 'तुम तो तब भी होगे पीपल देवता, जब हम नहीं होंगे, देखना हमारे रूपम को समझाते रहना कि ख़ानदान की रीत को छोड़े नहीं।'
रूपम की जन्मपत्री की बात छिड़ने पर राय साहिब कहते, 'सब ठीक ठाक रहा। उस समय, न आंधी आई, न गरहन लगा। समय आने पर वो दुनिया में अपना लोहा मनवा के रहेगा।' कहते-कहते वो एक दम जज़्बाती हो जाते। 'बड़ा होने पर रूपम को मैं एक ही नसीहत करूँगा कि जिस हांडी में खाए उसी में छेद न करे।'
मैं कहता, 'चलती का नाम गाड़ी है, राय साहिब!'
राय साहिब शोहरत के भूखे थे न दौलत के। बड़ी तेज़ी से बात करते थे और अपने नज़रिए पर डटे रहते। गंगा की अज़मत के वो क़ाइल थे और बनारस की तारीख़ में सबसे ज़्यादा गंगा का हाथ देखते थे, गंगा की तारीफ़ में राय साहिब श्लोक पर श्लोक सुनाने लगते, जैसे कोई दज़ीर् दुपट्टे पर गोटे की मग़ज़ी लगा रहा हो।
राय साहिब के घर मेहमान बने मुझे तीन हफ़्ते से ऊपर हो गए थे। मेरे लिए ये बात कुछ कम अहमियत नहीं रखती थी कि मैं राय साहिब का मेहमान हूँ क्योंकि हर ऐरा ग़ैरा नथ्थू-ख़ैरा तो उनका मेहमान नहीं हो सकता था, वाक़ई राय साहिब की मेहमान नवाज़ी के क़दम ज़िंदगी के ख़ुलूस में गड़े हुए थे।
एक रोज़ जब मुझे राय साहिब के यहां रहते हुए सवा महीना हो गया था, राय साहिब सवेरे-सवेरे मेरे कमरे में आए। मैंने देखा, उनका रंग उड़ा हुआ था।
'क्या बात है राय साहिब!' मैंने पूछा।
राय साहिब ने आज पहली बार मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा, 'बात ऐसी है कि बोलना भी मुश्किल हो रहा है। फिर भी बताना तो होगा।' 'नहीं नहीं, कोई बात नहीं। आप यहीं रहिए। अपने मेहमान से भला मैं ये बात कह सकता हूँ?'
'मैं समझ गया राय साहिब! मुझे यहां रहते सवा महीना हो गया। ये बहुत है। अब वाक़ई मुझे चला जाना चाहिए।'
राय साहिब मेरे सामने खड़े-खड़े कबूतर की तरह फड़फड़ाये। उनकी आँखों में बेहद हमदर्दी थी लेकिन उनके चेहरे पर बेबसी के आसार साफ़ दिखाई दे रहे थे। मुझे याद आया कि इससे पहले दिन-दोपहर के वक़्त जब मैं रूपम से खेल रहा था, रूपम की माँ ने नौकरानी को भेज कर रूपम को मंगवा भेजा था।
मैंने साफ़ साफ़ कह दिया, 'रूपम के माता जी को मेरे यहां रहने से कष्ट होता है तो मुझे वाक़ई यहां से चला जाना चाहिए।'
'नहीं नहीं, हम आपको नहीं जाने देंगे। ये मेरा धर्म नहीं कि मेहमान चला जाये, अपना काम पूरा किए बिना। वैसे अगर आप कुछ दिन के लिए हमारे मंदिर वाली गली के मकान में चले जाते तो ठीक था।'
'मेरा तो कोई ख़ास काम नहीं। मंदिर वाली गली को भी बहुत देख लिया। अब वाक़ई मुझे यहां से चले ही जाना चाहिए।'
'हम आपके रहने का इंतिज़ाम कल से मंदिर वाली गली में कर देते हैं, कल से आप मान जाईए। वहां भी हमारा अपना मकान है और उसकी तीसरी मंज़िल पर एक कमरा आपके लिए ख़ाली कराया जा चुका है।'
'नहीं मैं वहां जाकर नहीं रहूँगा। आप यक़ीन कीजिए। मेरी तबीयत तो बनारस से भर गई है, अब तो मैं एक दिन भी नहीं रुक सकता।'
'नहीं आपको रुकना पड़ेगा।'
राय साहिब बार-बार होंटों पर ज़बान फेर कर उनकी ख़ुशकी को चाटने लगते। वो बोले, 'आप चले गए तो हमें गंगा मय्या का श्राप लगेगा।'
'गंगा मय्या के श्राप की तो इसमें कोई बात नहीं राय साहिब! ये तो हमारी आपकी बात है।'
राय साहिब हंसकर बोले, 'माफ़ कीजीए! शायद आप मुझे दब्बू टाइप का पतिदेव समझ रहे होंगे। जिसे अंग्रेज़ी मुहावरे में मुग़ीर् ज़दा ख़ाविंद कहते हैं।'
'मुझे ये बात ज़रा भी बुरी नहीं लगी। राय साहिब! मेरे ऊपर आपका एहसान है। ये और बात है कि हर चीज़ इतनी सस्ती है कि एक पैसे के तीन सौदे आ जाते हैं।'
'हाँ तो आराम से बैठ कर सुनिए। पूरे पच्चीस बरस बाद मुझे दुबारा बनारस जाने का मौक़ा मिला और अब बहुत महंगाई का ज़माना था। कहाँ एक रुपये की पंद्रह सेर बासमती और कहाँ सवा रुपये सेर। कहाँ दो रुपये मन गेहूँ और कहाँ सोलह रुपये मन। रुपये की पाँच सेर चीनी की बजाय पंद्रह आने सेर। ये महंगाई जैसे आज़ादी का सबसे बड़ा तोहफ़ा था। आज मैं एक अदबी बुलावे पर बनारस गया था। पहला घर मुझे याद था। जहां मैं पच्चीस बरस पहले ठहरा था।
मैं पूछता-पाछता वहां पहुंचा तो देखा कि वहां न वो घर है न वो पीपल का पेड़। पूछने पर पता चला कि वो घर और पीपल तो बहुत बरस पहले गंगा में बह गए। मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में सनसनी सी दौड़ गई।
राय साहिब अब दूसरी जगह चले गए थे। उनके पुराने पड़ोसी से उनका पता चलते देर न लगी। मैं वहां पहुंचा तो राय साहिब बहुत तपाक से मिले। पता चला कि रूपम का ब्याह हुए साढ़े तीन बरस होने को आए। अब तो रूपम का दो बरस का बेटा है। 'देखिए हम पोते वाले हो गए।' राय साहिब हंसकर बोले।
राय साहिब मुझे खाना खिलाए बग़ैर न माने। उन के चेहरे पर इन्सानियत का जौहर साफ़ दिखाई दे रहा था। पुराने घर की बात चली तो राय साहिब ने ठंडी सांस भर कर कहा उसे तो गंगा मय्या ले गई और हमारे पड़दादा का लगाया हुआ पीपल भी गंगा में बह गया।
मैं उठने लगा तो राय साहिब बोले, 'अब तो पच्चीस बरस पुरानी याद ऐसे है जैसे किसी खण्डहर की दीवार, जिसका पूरे का पूरा पलस्तर झड़ गया हो।'
'मुझे तो आपकी मेहमान नवाज़ी में अभी तक नए पन की ख़ुशबू आ रही है, राय साहिब!'
'अरे भई छोड़ो। मौसम की तरह हालात भी बदलते रहते हैं।' राय साहिब ने तुर्श आवाज़ में कहा।
मैंने कहा, 'याद है न राय साहिब। उन दिनों एक पैसे के तीन सौदे आ जाते थे।'
जब मैं चला तो राय साहिब ने रूपम का पता लिखवा दिया जो उन दिनों मंदिर वाली गली में रहता था। 'लीजिए रूपम के नाम चि_ी लिख कर सारा वर्तमान हाल बता दूं उसे। नहीं तो वो कैसे जानेगा कि वो आपकी गोद में खेल चुका है।' राय साहिब ने संजीदगी से कहा, 'देखिए! मैंने चौदह सतरों में सारी बात लिख डाली।'
मैं मंदिर वाली गली में पहुंचा तो यूं महसूस हुआ कि महंगाई के बावजूद कुछ भी नहीं बदला और वो संस्कृत कहावत फिर से मेरे ज़हन को गुदगुदाने लगी, 'जिसे कहीं भी ठिकाना न मिले उसे काशी ही आख़िर ठोर!'
रूपम राय साहिब की चिठ्ठी पढ़ कर अपनी बीवी को बुला लाया और माँ की गोद से निकल कर नन्हा शिवम झट मेरे पास चला आया।
रूपम बोला- 'आप तो मंदिर वाली गली के पुराने प्रेमी हैं ना। देखिए! यही वो कमरा है, जहां पच्चीस बरस पहले पिता जी आपको ठहराना चाहते थे। पिता जी ने लिखा है कि आपको ग़लतफ़हमी हो गई थी कि माताजी आपको हमारे गंगा घाट वाले घर में रखकर ख़ुश नहीं हैं। उन्होंने तो आपका मंदिर वाली गली के साथ गहरा प्रेम देखकर ही ये चाहा था कि आप कुछ दिन इस गली में आकर भी रह जाएं।'
'छोड़ो वो पुरानी बात है।' मैंने मुस्कराकर बात टाल दी, 'इस से भी कहीं ज़्यादा याद रखने वाली बात ये है कि तब मुझे नन्हा रूपम मिला था, अब नन्हा शिवम।'
शिवम के हाथ में विश्वनाथ मंदिर का लकड़ी का छोटा सा मॉडल था जिसे वो हवा में उछाल रहा था।
घर की बालकोनी में खड़े-खड़े मैं ज़रा पीछे हट गया। मुझे डर था कि कहीं शिवम अपना लकड़ी का खिलौना नीचे मंदिर वाली गली में न गिरा दे। नन्हे शिवम की माँ ने जल्दी-जल्दी अपने सुसर का ख़त पढ़ा और सर पर बनारसी साड़ी ठीक करते हुए वो बोली, 'अब देखिए! हम आपको यहां से जल्दी जाने नहीं देंगे। जो ग़लतफ़हमी आपको रूपम के माता जी के बारे में हुई वो शिवम के माता जी के बारे में तो नहीं हो सकती।'
मंदिर वाली गली में ऐसे ही उत्तर-दक्खिन और पूरब-पच्छिम का संगम हो रहा था जैसे मंदिर वाली गली भी किसी गंगा मय्या की तरह पुकार रही हो, 'आओ यात्री! मेरी नई पुरानी लहरों में उतरो!'