आज 99वीं जयंती पर विशेष : गुरुदत्त की फिल्में तिरस्कृत मानवीय संवेदनाओं की जीवंत अभिव्यक्ति हैं

गुरुदत्त का हिन्दी सिनेमा जगत में उदय तब हुआ जब भारतीय समाज में सिनेमा अपने लिये एक सम्मानजनक पहचान स्थापित करने का प्रयास ही कर रहा था;

Update: 2024-07-09 08:43 GMT

- सुजाता मिश्र

गुरुदत्त का हिन्दी सिनेमा जगत में उदय तब हुआ जब भारतीय समाज में सिनेमा अपने लिये एक सम्मानजनक पहचान स्थापित करने का प्रयास ही कर रहा था। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अपने शुरुआती दौर में सिनेमा को या सिनेकर्मियों को आम भारतीय में हेय दृष्टि से देखा जाता था कि अच्छे घर-परिवारों के लोग सिनेमा में काम नहीं करते। ऐसे दौर में 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल' जैसी परिपक्व फिल्में बनाना जो आज भी मील का पत्थर हैं, गुरुदत्त की सिने दृष्टि की बहुत स्पष्ट परिचायक हैं।

जहां आमतौर पर हमारी हिंदी फिल्मों का नायक अपने पुरुषत्व को लबादे की तरह ओढ़ा दिखता है, उसका पहनावा, उसकी बॉडी, उसके संवाद, उसके एक्शन सब उफन-उफन कर उसकी मर्दानगी की मानसिक पुष्टि करते हैं, जिसका अवतरण ही फिल्म में नायिका या अन्य महिला पात्र की रक्षा करने हेतु हुआ हो ! उसमें भावनाओं से अधिक क्रोध का, आवेश का, आक्रोश का समावेश दिखता है। वहीं गुरुदत्त की फिल्मों की सबसे बड़ी खूबसूरती मुझे यह लगती है कि वे पुरुष मन के एक संवेदनशील,भावुक,नैतिक पक्ष को पर्दे पर रखती है, जो अपनी नायिका के मन को, मनोस्थिति को समझता है।जो संसार के, रिश्तों के छल, कपट से आहत होता है किंतु उसके आदर्श इतने ऊंचे है कि वो किसी के प्रति बैर भाव नहीं रखता अपितु संसार में घटते मानवीय मूल्यों से दुखी हो जाता है।

9 जुलाई,1925 को बेंगलुरु में जन्मे गुरुदत्त का हिन्दी सिनेमा जगत में उदय तब हुआ जब भारतीय समाज में सिनेमा अपने लिये एक सम्मानजनक पहचान स्थापित करने का प्रयास ही कर रहा था। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अपने शुरुआती दौर में सिनेमा को या सिनेकर्मियों को आम भारतीय में हेय दृष्टि से देखा जाता था कि अच्छे घर-परिवारों के लोग सिनेमा में काम नहीं करते। ऐसे दौर में 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल' जैसी परिपक्व फिल्में बनाना जो आज भी मील का पत्थर हैं, गुरुदत्त की सिने दृष्टि की बहुत स्पष्ट परिचायक हैं। अभिनय हो या निर्देशन वो लीक से हटकर चलने वालों में से हैं।

'प्यासा' का विजय हो या 'कागज़ के फूल' का सुरेश,'चौदहवीं का चांद' का असलम हो या 'साहिब बीवी और गुलाम' का अतुल्य चक्रवर्ती, गुरुदत्त की फिल्मों में नायक के जीवन का संघर्ष, चिंतांए, चुनौतियां, उलझनें एक आम पुरुष के मन और जीवन का प्रतिबिम्ब हैं। उसकी लड़ाई किसी बड़े गुंडे, बदमाश या डॉन से नहीं, बल्कि पारिवारिक, सामाजिक जीवन में गहरे बैठती स्वार्थपरता से हैं। समाज के अमीर, पूंजीपति वर्ग के धन लोलुपता, अवसरवादिता, शोषण को मालिक और मजदूर के संघर्ष से इतर मानसिकता के स्तर पर व्याप्त संघर्ष को दिखाते हैं।

जहां यह द्वन्द स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंधों पर भी हावी है तो भाई-भाई के बीच पारिवारिक संबंधों पर भी। फिल्म 'प्यासा' में विजय की प्रेमिका मीना (माला सिन्हा) का शहर के रईस व्यापारी मिस्टर घोष से विवाह कर लेना क्योंकि उसे विश्वास है कि उसका गरीब, बेरोजगार शायर प्रेमी उसे कभी जीवन की सुख-सुविधाएं नहीं दे पायेगा। और फिर मीना के पति द्वारा विजय को मृत घोषित करवा उस की रचनाओं को छपवा लाखों का मुनाफा कमाना, जिस षड्यंत्र में खुद विजय के सगे भाई और दोस्त भी शामिल थे, जिन्होने मुनाफा कमाने के लिये जिंदा विजय को पहचानने से ही इंकार कर दिया! सब को धन चाहिये था, जिसके लिये विजय की शायरी की ज़रूरत थी, विजय की नहीं! रिश्तों के, समाज के इस दोगले-स्वार्थी रूप को देख विजय का संवेदनशील मन चीत्कार उठता है- 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?'

कहते हैं कि अपने बेरोजगारी के दिनों में मुम्बई में काम की तलाश में भटकते हुए गुरुदत्त ने आत्मकथात्मक शैली में इस फिल्म की पटकथा 'कशमकश' शीर्षक से लिखी थी, जिसे आगे चलकर फिल्म 'प्यासा' के रूप में पर्दे पर जीवंत किया गया। आज़ादी के महज़ दस वर्ष पूर्ण हुए थे कि 1957 में आई फिल्म प्यासा नेसमाज के हर व्यक्ति अपने भीतर झांकने, अपने आसपास देखने के लिये चैतन्य कर दिया, मन में कई प्रश्न जगा दिये कि क्या हम सचमुच पूरी तरह आज़ाद हो पाए हैं!

वर्ग-संघर्ष का यही रूप हमें 1959 में आई 'कागज़ के फूल' में देखने को मिलता है। नायक सुरेश सिन्हा(गुरुदत्त) जो कि एक फिल्म निर्देशक है कि पत्नी (जो कि शहर के एक सम्भ्रांत परिवार से हैं) और सास-ससुर तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, उन्हें फिल्मों में काम करने वाला अपना दामाद इतना नापसंद है कि उसे अपने परिवार का हिस्सा ही नहीं मानते। सुरेश की पत्नी मायके में रहती है और बेटी बोर्डिंग स्कूल में, इस तरह शादीशुदा होकर, घर-गृहस्थी वाला होकर भी सुरेश का पूरा एकाकीपन में बीतता है। कुछ वक्त के लिये उसके जीवन में शांति(वहीदा रहमान) प्रेम और सहयोग लेकर आई भी तो समाज की रोक-टोक, बेटी की नाराज़गी के चलते वो भी सदा के लिये सुरेश से दूर चली गई।

कभी-कभी एक पुरुष भी किस प्रकार समाज के, परिवार के तानों, तंज, और मानसिक तनावों को खामोशी से झेलता है सुरेश का किरदार यह बखूबी दर्शाता है। पत्नी वीणा अमीर है, आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त है, जीवन के हर मोड़ पर वीणा और उसका परिवार सुरेश को प्रताड़ित करता है कि एक बेहतरीन सफल फिल्मकार अंतत: गुमनामी मौत को प्राप्त होता है। 1960 में आई फिल्म 'चौदहवीं का चांद' का असलम (गुरुदत्त) अपने दोस्त नवाब साहब के एहसान और प्रेम के बोझ तले भावनात्मक रूप से जिस कदर बेचैन है, कि जब उसे पता चलता है कि जिस लड़की से उसका ब्याह अनजाने में नवाब साहब ने ही करवा दिया है, और अब जिसके साथ वो अपनी नयी दुनिया में बहुत खुश है। दरअसल उसी लड़की पर नवाब साहब महीनों से फिदा थे, और उसकी तलाश में सब रिश्ते ठुकरा रहे थे। दोस्ती का एहसान उतारने की खातिर असलम,संवेदनशील असलम अपनी जान भी देने की ठानता कि किंतु असलम से पहले नवाब साहिब ही आत्महत्या कर लेते हैं , नायिका के न मिलने के दुख से नहीं बल्कि इस शर्मिंदगी से कि वो जानें-अनजाने अपने दोस्त के सामने उसी की बीवी के प्रति अपनी प्रेमाकुल भावनाएं ज़ाहिर करता रहा। उसमें हिम्मत ही नहीं है अब अपने दोस्त असलम का सामना करने की।

अब बात करते हैं गुरुदत्त की वर्ष 1962 में आई 'साहिब बीवी और गुलाम' की ,जिसमें में अतुल्य चक्रवर्ती उर्फ भूतनाथ (गुरुदत्त) का चरित्र भी एक संवेदनशील, जिम्मेदार, भरोसेमंद पुरुष का है जो सामंती परिवेश में पिसती 'छोटी बहू' का एक विश्वसनीय मित्र और हमराज बन जाता है। वो जानता है कि वो छोटी बहू(मीना कुमारी) की कोई निजी सहायता नहीं कर सकता, न उनके पारिवारिक मामलों में दखल दे सकता, किंतु फिर भी वह एक सहयोगी,समझदार, सुनने वाला साथी बन छोटी बहू की वेदनाओं को कम करने का यथासंभव प्रयास करता है। भूतनाथ के रूप में गुरुदत्त का यह चरित्र स्त्री जीवन की उस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करता है जिसे आज भी अधिकांश पुरुष समझ ही नहीं पाते। हर स्त्री यही तो चाहती है कि कोई उसे सुने, सिर्फ सुने, समझे...बस इतना ही... किंतु गुरुदत्त जैसा संवेदनशील मन और दृष्टि कहां प्रत्येक पुरुष के पास होती है!!

अपने छोटे से किंतु बेहद समृद्ध फिल्मी सफर में गुरुदत्त ने समाज के हर उस व्यक्ति की पीड़ा को पर्दे पर रखा है जो अपनों के बीच उपेक्षित है। नैतिक रूप से पतनशील समाज के बीच आदर्शों और मूल्यों को ढोने वाले अक्सर उपेक्षित और तिरस्कृत रह जाते हैं, गुरुदत्त साहिब की अधिकांश फिल्में उन्हीं उपेक्षित, तिरस्कृत मानवीय संवेदनाओं की जीवंत अभिव्यक्ति है। फिल्म 'प्यासा' के नायक विजय का एक संवाद है जो न सिर्फ समाज पर करारी चोट करता है बल्कि गुरुदत्त के समय से आगे सोचने की काबिलियत को भी हमारे सामने लाता है, वो कहते हैं- 'मुझे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं, मुझे शिकायत है समाज के उस ढांचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है। मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बना देता है, दोस्त को दुश्मन बना देता है। मुझे शिकायत है उस तहजीब उस संस्कृति से जहां मुर्दों को पूजा जाता है और जिन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है। जहां किसी के दु:ख पर दो आंसू बहाना बुजदिली समझा जाता है, जहां छुपकर मिलना एक कमजोरी समझा जाता है, ऐसे माहौल में मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी, कभी शांति नहीं मिलेगी।'
(लेखिका साहित्यकार और सामाजिक टिप्पणीकार हैं।)

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