लोकतंत्र में बारुद की गंध
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके दंतेवाड़ा में एक बार फिर बड़ा नक्सली हमला हुआ है;
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके दंतेवाड़ा में एक बार फिर बड़ा नक्सली हमला हुआ है। निशाने पर एक बार फिर सुरक्षा बलों के जवान आए हैं। बुधवार को माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन से लौट रहे डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के जवानों के वाहन पर यह हमला हुआ। संदिग्ध माओवादियों ने अरनपुर मार्ग पर आईईडी विस्फोट किया, जिसमें सुरक्षाबलों के 10 जवान और एक वाहन चालक की मौत हो गई है। बस्तर के आईजी सुंदरराज पी के मुताबिक दंतेवाड़ा जिले के थाना अरनपुर क्षेत्र में माओवादियों की उपस्थिति की सूचना मिलने के बाद दंतेवाड़ा डीआईजी ने एक अभियान संचालित किया था। इस अभियान के बाद जब डीआरजी जवान जिला मुख्यालय वापस लौट रहे थे, तब यह घातक हमला किया गया। छत्तीसगढ़ में लगभग दो साल बाद ऐसा बड़ा हमला हुआ है। इससे पहले 4 अप्रैल 2021 को बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर नक्सली हमले में 22 जवान शहीद हुए थे।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का रक्तपात पहली बार नहीं हुआ। दशकों से यह समस्या इस वनाच्छादित और प्राकृतिक संपदा की धनी धरती को जकड़े हुए है और इसके समाधान का कोई ओर-छोर नजर नहीं आ रहा। राजनैतिक दलों के लिए नक्सल समस्या वोट बटोरने या सहानुभूति हासिल करने का जरिया बन गई है। छत्तीसगढ़ बनने से पहले जब अविभाजित मध्यप्रदेश था, नक्सल समस्या तब भी थी और राज्य बनने के साथ यह विरासत में छत्तीसगढ़ को मिली। इस राज्य में पहले कांग्रेस फिर भाजपा और अब फिर से कांग्रेस का शासन है। दोनों ही दलों ने नक्सलियों के कहर से मुक्ति के अनेक वादे जनता से किए हैं, लेकिन दोनों के शासनकाल में नक्सली अविचारित हिंसा से निर्दोषों की जान लेते रहे हैं। इन हमलों में एक की जान जाए या दस की, आम नागरिकों की हत्या हो या सुरक्षा बलों के जवानों की, बहता तो इंसान का खून ही है। हरेक हमले के बाद सरकार के उच्च पदों पर बैठे लोग कुछ प्रतिक्रियाएं देते हैं, जिनमें तारीखों के अलावा और कुछ नहीं बदलता।
इस बार के हमले के बाद राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि शहीदों के परिवारों के प्रति मेरी संवेदनाएं हैं। नक्सलियों को बख्शा नहीं जाएगा। वहीं देश के केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस हमले की जानकारी मुख्यमंत्री से ली उन्हें आश्वासन दिया है कि केंद्र की ओर से उन्हें हर संभव मदद दी जाएगी। वहीं बीबीसी के मुताबिक छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू का कहना है कि ये कहना उचित नहीं होगा कि लगातार हमले हो रहे हैं, नक्सली हमले को हम हमेशा नाकाम करते रहे हैं और उन्हें खदेड़ने में कामयाब हुए हैं। बीच-बीच में एकाध घटनाएं होती हैं, जो उनकी उपस्थिति दर्शाने के लिए दिख जाता है। यह सही है कि दो सालों के अंतराल पर ऐसा बड़ा हमला हुआ है, लेकिन यह केवल नक्सलियों की उपस्थिति दर्शाने की बात नहीं है, बल्कि सीधे-सीधे सत्ता को चुनौती है और इसमें सुरक्षा जवानों को शिकार बनाया गया है।
इस हमले के पीछे किसका दोष है, किसकी चूक है, कौन जिम्मेदार है, इसका पता तो पूरी जांच के बाद ही पता चलेगा। लेकिन खबर के अनुसार माओवादी ऑपरेशन के बाद थके हुए जवान, बारिश के दौरान निजी वाहन में सवार हुए और माओवादियों को इसकी खबर मिल गई। बताया जा रहा है कि बस्तर में माओवादियों के खिलाफ चलाए जाने वाले ऑपरेशन में जवानों को निजी वाहनों में आने-जाने को लेकर कई बार सचेत किया गया है और उन्हें इस तरह आने-जाने की मनाही है। फिर भी ये जवान किस तरह निजी वाहन में सवार हुए और नक्सलियों तक इसकी खबर कैसे पहुंची, यह बड़ा सवाल है।
नक्सलियों ने इस बार डीआरजी जवानों को निशाने पर लिया है। गौरतलब है कि 2008 में नक्सलियों को कमजोर करने के लिए डीआरजी का गठन किया गया था और बीते बरसों में नक्सलियों को आत्मसमर्पण कराने के लिए डीआरजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सबसे पहले कांकेर और नारायणपुर में डीआरजी को तैनात किया गया था। इसके बाद 2013 में बीजापुर और बस्तर फिर 2014 में सुकमा और कोंडागांव और फिर 2015 में दंतेवाड़ा में डीआरजी को तैनात किया गया। कई पूर्व नक्सली नेता अब छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ डीआरजी में काम कर रहे हैं। तो सवाल ये भी है कि क्या डीआरजी के दस्ते पर किसी खास रणनीति के तहत नक्सलियों ने हमला किया।
नक्सलियों का यह घातक हमला ऐसे वक्त हुआ है, जब राज्य में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं और आदिवासियों के गढ़ में विकास का मुद्दा भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों के लिए अहम है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पिछले साल एक कार्यक्रम में कहा था कि नक्सलवाद पनपने का सबसे मुख्य कारण था ग्रामीणों का सरकार पर से विश्वास खत्म होना। उन्होंने बताया था कि उनकी सरकार ने ग्रामीणों के जल जंगल जमीन के हक पर ध्यान केन्द्रित किया है। वन अधिकार पट्टा, वन संसाधन मान्यता प्राप्त, तेंदूपत्ता बोनस, धान समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी जैसी कई योजनाओं से ग्रामीणों को उनका हक दिलाने का प्रयास किया है, ताकि सरकार पर उनका विश्वास कायम हो।
छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार विश्वास, सुरक्षा और विकास की नीति से नक्सलवाद का सामना करने की बात कहती रही है। अब इस हमले के बाद सरकार को ईमानदारी से इस बात की समीक्षा करना चाहिए कि इस नीति में कहां, कौन सी कमी रह गई है। वहीं भाजपा को भी इस मुद्दे पर राजनीति नहीं करना चाहिए। इस साल जनवरी में कोरबा में एक जनसभा में अमित शाह ने दावा किया था कि केंद्र सरकार के प्रयासों से राज्य में नक्सल घटनाओं में कमी आई है। और उनका प्रयास है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले देश नक्सलवाद से मुक्त हो जाए। अगर ऐसा होता है, तो इससे खुशी की बात हो ही नहीं सकती।
लेकिन क्या इसके लिए नक्सलवाद पनपने के कारणों पर गौर कर उन्हें दूर करने का प्रयास केंद्र सरकार करेगी। क्योंकि देश में जब तक आर्थिक गैरबराबरी रहेगी। जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों के हक छीनकर उन पर चंद उद्योगपतियों को दौलत के महल खड़े करने की नीतियां सरकार बनाती रहेगी, तब तक नक्सलवाद के पनपने की गुंजाइश बनी रहेगी। मौजूदा आर्थिक हालात इस बात की आश्वस्ति नहीं देते हैं कि नक्सलवाद खत्म होगा। नक्सलवाद को जब तक राजनैतिक चश्मे से देखा जाएगा, खून और मांस से सने वोटों से जीत हासिल करने की निर्लज्ज राजनीति की जाएगी, तब तक बारुद की गंध लोकतंत्र का दम घोंटती रहेगी। इस घुटन से मुक्ति के लिए, ताजा हवा के लिए विचारों और प्रयासों की नयी खिड़कियां खोलनी होंगी।