धार्मिक, सामंती प्रतीकों की वापसी दलित, पिछड़ों के लिए खतरा
तो नई भारतीय संसद जिसका नाम विदेशी और वह भी अजीब सा सेन्ट्रल विस्टा है का उद्घाटन हो गया! क्या हुआ कैसे हुआ अब यह सारे विवाद इतिहास के पन्नों में चले गए;
- शकील अख्तर
आज समय का पहिया उलटा घुमाया जा रहा है। सारे आधुनिक, प्रगतिशील, जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर पुरातनपंथी माहौल को फिर से जिन्दा किया जा रहा है। यह किसके पक्ष में जाएगा, किसके विपक्ष में यह उन नेताओं को खासतौर से सोचना चाहिए जो दलित, पिछड़ों की राजनीति करते हैं। मायावती जैसे नेता जिन पर दलितों और वंचितों ने इतना विश्वास किया अगर इस तरह प्रतिक्रियावादी ताकतों के साथ खुल कर चले जाएंगे तो इससे बड़ा विश्वासघात इतिहास में कोई दूसरा नहीं होगा।
तो नई भारतीय संसद जिसका नाम विदेशी और वह भी अजीब सा सेन्ट्रल विस्टा है का उद्घाटन हो गया! क्या हुआ कैसे हुआ अब यह सारे विवाद इतिहास के पन्नों में चले गए। मुहावरा पुराना है मगर आज फिर सार्थक हो गया! जिसकी लाठी उसकी भैंस! और आश्चर्यजनक यह कि इसे इन्डोर्स (समर्थन) किया है देश के सबसे कमजोर वर्ग की राजनीति करने वाली मायावती ने। जिनके समर्थक हमेशा कानून और संविधान से उम्मीद करते रहते हैं। और सामंती लाठी की कहानी हमेशा के लिए खत्म करना चाहते हैं। मगर उनकी नेता होने का दावा करने वाली मायावती ने कहा कि सरकार ने नया संसद भवन बनाया इसलिए उसके उद्घाटन का अधिकार भी प्रधानमंत्री मोदी जी को है। यह तर्क वही है कि सरकार खिलाती है इसलिए उसका समर्थन करना चाहिए। मतलब क्लियर है कि वोट देना चाहिए। यह जो रोजगार देने के बदले पांच किलो अनाज मुफ्त दिया जा रहा है उसका उद्देश्य भी यही है कि वोट देकर आप मोदी जी के अहसान को चुकाएं। अभी पिछले दिनों एक वृद्ध महिला ने बोला भी था कि हम इसलिए वोट देंगे। और इस पर मोदी जी का प्रसन्नता व्यक्त करते हुए वीडियो भी आया था। मगर प्रियंका गांधी ने उस पर कड़े सवाल करके कि क्या लोकतंत्र में जनता को कुछ देना उस पर अहसान है मोदी जी को बैकफुट पर ला दिया था।
मगर अब खुद को दलित की बेटी कहने वाली मायावती इस सामंती विचार को आगे बढ़ा रही हैं कि सारे अधिकार सरकार के हैं और जनता केवल कर्तव्य पालन के लिए है। राजा में ईश्वर का वास है और जनता का काम है कि रात दिन वह यही प्रार्थना करती रहे कि राजा सदैव जीवित रहे। लांग लिव द किंग! राजा अमर रहे।
डॉ. आम्बेडकर ने और उनके बाद कांशीराम ने दलितों में जो हिम्मत और आत्मविश्वास पैदा किया था वह सब मायावती खत्म कर रही हैं।
नई संसद के उद्घाटन में जिस तरह केवल धर्माचार्य छाए रहे। और जन प्रतिनिधि जिनके लिए संसद है वे हाशिए पर रहे देश के लोकतंत्र को तो नुकसान पहुंचाएगा मगर सबसे ज्यादा देश के दलित, आदिवासी, पिछड़ों को और पीछे धकेलेगा। संविधान जिसे डॉ. आम्बेडकर ने बनाया था और जो सर्वोपरि है उसकी भावना नई संसद में कहीं नहीं दिख रही थी। बल्कि मनुवाद जिसके खिलाफ डॉ. आम्बेडकर, कांशीराम, दलित आदिवासी, पिछड़ों ने सबसे ज्यादा संधर्ष किया वापस आता हुआ दिख रहा था।
प्रधानमंत्री मोदी राजशाही के प्रतीक सेंगोल ( राजदंड) के सामने दंडवत हो रहे थे। साधु संतों से आशीर्वाद ले रहे थे। उधर बाहर एक महीने से न्याय की गुहार कर रही महिला पहलवानों को पुलिस धक्के मारकर, घसीटते हुए गिरफ्तार कर रही थी। अन्तरराष्ट्रीय पहलवान खासतौर पर महिला पहलवान संसद के बाहर सड़कों पर घसीटी जा रहीं थीं और अन्दर प्रधानमंत्री एक-एक साधु संत के पास जाकर सिर झुका रहे थे। जिन्होंने देश का सिर ऊंचा किया था वे महिला पहलवान सिर झुकाकर रो रहीं थी और टीवी चैनल खुशी में पागल होकर चिल्ला रहे थे कि देश एक नए युग में प्रवेश कर रहा है। धर्म की जय हो रही है।
अब मायावती किस बात से खुश हैं यह वे जानें मगर संसद जो गरीब, दबे-कुचले की आवाज हुआ करती थी 28 मई को धर्म संसद नजर आ रही थी। जन संसद लग रहा था अतीत की चीज हो गई।
संसद संविधान ने बनाई है। किसी धार्मिक व्यवस्था ने नहीं। धार्मिक व्यवस्थाएं शक्तिशाली की मदद करती हैं। जबकि दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक संविधान से शक्ति पाते हैं। 1947 में 14-15 अगस्त की मध्य रात्रि को जब भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने देश की आजादी की घोषणा की थी तो यही कहा था कि यह आजादी गरीब, वंचित, कमजोर समुदाय को उत्थान और सशक्तिकरण के लिए है।
लेकिन आज समय का पहिया उलटा घुमाया जा रहा है। सारे आधुनिक, प्रगतिशील, जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर पुरातनपंथी माहौल को फिर से जिन्दा किया जा रहा है। यह किसके पक्ष में जाएगा, किसके विपक्ष में यह उन नेताओं को खासतौर से सोचना चाहिए जो दलित, पिछड़ों की राजनीति करते हैं। मायावती जैसे नेता जिन पर दलितों और वंचितों ने इतना विश्वास किया अगर इस तरह प्रतिक्रियावादी ताकतों के साथ खुल कर चले जाएंगे तो इससे बड़ा विश्वासघात इतिहास में कोई दूसरा नहीं होगा।
राहुल गांधी ने सही कहा कि यह कोई राज्याभिषेक नहीं हो रहा। लेकिन शायद मायावती जी को ऐसा ही लग रहा है और वे दूर बैठकर शब्दों के जरिए चंवर हिलाने में लगी हैं।
अब लोकसभा चुनाव में करीब 270- 275 दिन ही बचे हैं। सबके मुखौटे उतर गए हैं। नई संसद भी बन गई है। अब सवाल यह है कि इसमें बैठेगा कौन? और कौन? किस तरफ। कौन ट्रेजरी ( सत्ता पक्ष) बेंचों पर और कौन विपक्षी बैंचों पर!
मोदी जी के सामने तो तस्वीर क्लियर है। और वह इसे साकार करने में लग गए हैं। और लग क्या गए हैं। वे लगातार इस एक काम में लगे ही रहते हैं। मगर सोचना विपक्ष को है। जैसा कि ऊपर कहा कि दलितों की नेता मायावती को। जिनसे अब उम्मीदें कम हैं। और कम क्या लगभग खत्म हो गई हैं। वे सत्ता के सामने सिर झुका चुकी हैं। अपने मुकदमों के डर से उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया है। सोचना दलितों को है कि वे किस तरह उनके मोहपाश से मुक्त होंगे। अपना हित, अनहित और अपने से भी ज्यादा अपनी नई पीढ़ी का सोचेंगे। दलितों ने संविधान की रोशनी में ही स्वतंत्रता, समानता, नौकरी, आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त की है। धार्मिक और सामंती ताकतें वापस उन्हें गुलामी की तरफ ले जाएंगी।
इसी तरह आगे बढ़ते हुए ओबीसी समाज को सोचना होगा। उनके नेता भी कई जगह जैसे बिहार में मजबूती के साथ सामाजिक न्याय और मनुवाद के खिलाफ डटे हुए हैं। मगर उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ढुलमुल रवैया अख्तियार किए हुए हैं। अभी संसद के बहिष्कार पर तो वे सहमत हो गए मगर तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार की तरह पूरी तरह विपक्षी एकता के पक्ष में आने का साहस नहीं जुटा पाए हैं। वे भी मायावती की तरह केन्द्रीय जांच एजेन्सियों और जेल जाने से डरते हैं। राहुल का डरो मत आह्वान का असर सामान्य जनता पर तो हो रहा है मगर इस जनता का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भरने वाले नेताओं पर नहीं हो रहा।
सवाल अब बिल्कुल सीधा है। इधर या उधर। मायावती उधर चली गई हैं। अखिलेश को जल्दी फैसला करना होगा। राहुल तो लड़ेंगे। वहां तो कोई दुविधा नहीं है। सोचना अखिलेश, ममता बनर्जी और केजरीवाल को है।
28 मई अपने आप में एक भविष्य की तस्वीर है। भारत की गरीब जनता के प्रतिनिधियों के मुकाबले धर्म के प्रतीक खड़े करने की।
पाकिस्तान मिट गया। फारूख अब्दुल्ला कहते थे पाकिस्तान को तीन ए चलाते हैं। अल्लाह, आर्मी और अमेरिका। हमारे यहां चार एस स्थापित किए जा रहे हैं। सेंगोल, साधु संत, सामंतवाद और सेठ। इनमें सेठ ( कारपोरेट, दो-तीन उद्योगपति) ही सबसे प्रमुख है। सारी शक्ति उसके हाथ में है।
इन चार एस का मुकाबला कैसे होगा यह सोचने का भी यह आखिरी मौका है। अगर यह शक्तियां 2024 में भी जीत गईं तो भारत की यात्रा उलटी दिशा में शुरू हो जाएगी। लोकतंत्र जनता के अधिकारों की शासन व्यवस्था होती है। इसे वापस राजशाही की तरह जनता के कर्तव्यों और राजा महान है के सिद्धांत की तरफ मोड़ दिया जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)