पवार का बयान बताता है कि राहुल की लड़ाई लम्बी है
पिछले करीब 9 वर्षों में देश जिस कुप्रबंधन, अराजकता एवं आर्थिक बदहाली के दौर से गुजर रहा है;
पिछले करीब 9 वर्षों में देश जिस कुप्रबंधन, अराजकता एवं आर्थिक बदहाली के दौर से गुजर रहा है, स्वतंत्र चेतना के नागरिक केन्द्र की सत्ता में परिवर्तन का इंतज़ार कर रहे हैं। हाल के कतिपय राजनीतिक घटनाक्रमों के चलते विभाजित होकर भी और धीमी गति से ही सही विपक्षी पार्टियां एक-दूसरे के नज़दीक आ रही हैं। एक विपक्षी एकता की धुरी की जो कमी पिछले कुछ समय से बनी हुई थी, वह भी अब कांग्रेस पूरी करती हुई दिख रही है।
ऐसे समय में जब लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील विचारधारा के लोग प्रतिरोध की किसी सामूहिक शक्ति के उदित होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं, वरिष्ठ नेता शरद पवार का वह बयान आश्चर्य के रूप में कम और किसी झटके की तरह अधिक कहा जा सकता है जिसमें उन्होंने एक तरह से विपक्ष द्वारा उद्योगपतियों की जमात पर हमला न करने की अप्रत्यक्ष सलाह दी है। साथ ही, विवादास्पद कारोबारी गौतम अदानी के कथित घोटालों की जांच कोर्ट से कराये जाने का परामर्श भी दे दिया है, न कि संयुक्त संसदीय समिति की ओर से जिसकी मांग समग्र विपक्ष (उनकी अपनी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी सहित) और अधिसंख्य भारतीय जनता कर रही है। श्री पवार की इस मांग ने बतला दिया है कि इस मांग को उठा रहे कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की लड़ाई कितनी बड़ी है।
श्री अदानी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबंध अब किसी से छिपे नहीं हैं। देश ही नहीं, दुनिया भर में इसकी चर्चा आम है कि 2014 के पहले तक गौतम अदानी दुनिया के अमीरों की सूची में 609वें क्रमांक पर थे, वे पिछले दिनों दूसरे क्रमांक पर जा पहुंचे थे। इसका कारण था मोदी सरकार द्वारा उन्हें तमाम सरकारी उपक्रम, ठेके आदि सौंपते चले जाना। न केवल हवाई अड्डे, बंदरगाह, अधोरचना के उद्यम उन्हें दे दिये गये,भारत सरकार के लिए महत्वपूर्ण अनेक अंतरराष्ट्रीय व रणनीतिक महत्व के करार भी उनकी झोली में आ गये। पिछले वर्ष की 7 सितम्बर को कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पैदल यात्रा पर निकले राहुल गांधी ने जनता के सामने मोदी-अदानी दोस्ती की पोल खोल दी और साथ ही यह भी बतला दिया कि ये देश के लिये कितना महंगा साबित हो रहा है। यात्रा खत्म होने के तत्काल बाद राहुल गांधी ने लोकसभा के बजट सत्र में यह मामला बड़ी मुखरता से उठाया था। इस बीच एक तरफ हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने अदानी समूह के कारोबार पर गंभीर सवाल उठाए, इस बीच राहुल की सांसदी मानहानि मामले में सजा के बहाने छीन ली गई।
राहुल की लड़ाई जारी रही और अनेक विपक्षी दल भी कांग्रेस के साथ जुड़ते चले गये- संसद के भीतर व बाहर भी। पूरे देश की मांग है कि अदानी घोटाले की पूरी जांच किसी संयुक्त संसदीय समिति के माध्यम से हो। अब श्री पवार का यह कहना कि 'प्रस्तावित समिति में भाजपा का ही प्रतिनिधित्व रहेगा, इसलिये यह मांग निरर्थक है', आसानी से गले से उतरने वाली बात नहीं है। यह हमेशा से होता आया है कि किसी भी जेपीसी में स्वाभाविकत: सत्तारुढ़ दल का ही बहुमत होता है लेकिन जेपीसी की आवाज व विचारों को अल्पमत के बावजूद जनता की आवाज कहा जा सकता है। यह प्रतिपक्ष की ताकत व प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है जिसे कोर्ट को सौंपकर कमतर नहीं किया जा सकता। वैसे माना यह जा रहा है कि श्री पवार की ख्याति एक तरह से कारोबारी जगत के प्रतिनिधि के रूप में ही है, इसलिए उनकी ओर से यह बात कही जाती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
कहा यह भी जा रहा है कि उनके बयान का विपक्षी दलों की एकता पर असर नहीं होगा। यहां सवाल विपक्षी एकता पर उनके बयान के प्रभाव का नहीं है वरन यह देखना है कि श्री अदानी से सीधी टक्कर लेने की ताकत कौन रखता है और कौन मौन रहकर अथवा अप्रत्यक्ष तरीके से वर्तमान पूंजीवादी अर्थप्रणाली के समर्थन में खड़ा है जो देश को कंगाल कर रही है। देश इसे ध्यान से देख भी रहा है। इसलिये शरद पवार का यह बयान अवांछनीय व दुर्भाग्यजनक ही नहीं, बल्कि समय के प्रतिकूल भी है। वे एक तरह से राहुल गांधी और सम्पूर्ण विपक्ष की लड़ाई को कमजोर ही कर रहे हैं। प्रतिपक्ष तभी सशक्त हो सकेगा जब सभी दलों के सुर एक हों।