'हमारी समस्या है नागरिक आज्ञाकारिता'

लोकसभा चुनावों के नतीजों के ऐलान के महज एक सप्ताह के अंदर, आदिवासीबहुल मांडला जिले में सरकारी जमीन पर बने अल्पसंख्यक समुदाय के 11 मकानों को इन आरोपों के तहत ध्वस्त किया गया कि वहां से 'बीफ का अवैध व्यापार' चलता था;

Update: 2024-09-03 06:38 GMT

- सुभाष गाताडे

लोकसभा चुनावों के नतीजों के ऐलान के महज एक सप्ताह के अंदर, आदिवासीबहुल मांडला जिले में सरकारी जमीन पर बने अल्पसंख्यक समुदाय के 11 मकानों को इन आरोपों के तहत ध्वस्त किया गया कि वहां से 'बीफ का अवैध व्यापार' चलता था। ऐसा दिख रहा था कि 'पुलिस/प्रशासन ने अब झुंड का काम' अपने हाथ में लिया है. जहां अब राज्य द्वारा निशानदेही पर किए जाने वाले अत्याचार अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा को वैधता प्रदान कर रहे हैं।

विख्यात अमेरिकी इतिहासकार, नाटककार, दार्शनिक और समाजवादी विचारक हॉवर्ड जिन जिनकी लिखी किताब 'ए पीपुल्स हिस्टरी आफ युनाईटेड स्टेटस' की लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं, के यह लफ्ज़ आज भी दुनिया के तमाम मुल्कों में दोहराए जाते हैं जब-जब वहां की जनता हुक्मरानों के हर फरमान को सिर आंखों पर लेती है।
वैसे बहुत कम लोग इस वक्तव्य के इतिहास से वाकिफ हैं, जिसे उन्होंने अमेरिका के युद्ध विरोधी आंदोलन के दौरान बाल्टिमोर विश्वविद्यालय के परिसर में रैडिकल छात्रों और परिवर्तनकामी अध्यापकों के विशाल जनसमूह के सामने दिया था। गौरतलब है कि यही वह दौर था जब अमेरिकी सरकार की विएतनाम युद्ध में संलिप्तता को लेकर - जिसमें तमाम अमेरिकी सैनिकों की महज लाशें ही अमेरिका लौट पायी थी। जनाक्रोश बढ़ता गया था और अमेरिकी सरकार पर इस बात का जोर बढ़ने लगा था कि उसे अपनी सेनाओं को वहां से वापस बुलाना चाहिए।

याद किया जा सकता है कि इस ऐतिहासिक साबित हो चुके व्याख्यान के एक दिन पहले क्या हुआ था ! एक युद्ध विरोधी प्रदर्शन में शामिल होने के चलते उन्हें संघीय पुलिस ने गिरफ्तार किया था और हॉवर्ड जिन को कहा गया था कि वह अगले दिन अदालत में हाजिर हों।

सवाल यह था कि क्या वह दूसरे ही दिन अदालत के सामने हाजिर हों, जहां उन्हें चेतावनी मिलेगी और फिर घर जाने के लिए कहा जाएगा या वह बाल्टिमोर जाने के अपने निर्णय पर कायम रहें, रैडिकल छात्रों ने उनके लिए जो निमंत्रण भेजा था उसका सम्मान करें और उसके अगले दिन अदालत के सामने हाजिर हों। यह जाहिर था कि इस हुक्मउदूली के लिए उन्हें कम से कम कुछ दिन/महिने सलाखों के पीछे जाना होगा।

जिन ने बाल्टिमोर जाना ही तय किया, जहां उन्होंने अपना भाषण दिया - जिसकी छात्रों एवं अध्यापकों में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और वह लौट आए और अगले ही दिन अदालत के सामने हाजिर हुए और जैसा कि स्पष्ट था कि उन्हें कुछ सप्ताह के लिए जेल भेजा गया।

जब-जब हाल के समयों में दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में 'बुलडोजर न्याय' की परिघटना सामने आयी है, तब-तब जिन के इस उदबोधन की प्रासंगिकता बढ़ती दिखती है।

न्याय के 'वाहक' के तौर पर बुलडोजर के इस रूपांतरण की परिघटना का अब सामान्यीकरण हो चला है। बुलडोजर के माध्यम से जारी इस ध्वस्तीकरण अभियान में फिलवक्त मध्यप्रदेश के छतरपुर में कांग्रेस नेता हाजी शहजाद अली के मकान का प्रसंग सूर्खियों में है। यह अभी भी अस्पष्ट है कि किस के आदेश पर यह विशाल मकान ध्वस्त किया गया? आखिर किस कानून के तहत पुलिस और प्रशासन को यह अधिकार मिल जाता है कि वह भारत के एक नागरिक के बुनियादी अधिकारों पर इस तरह हमला करे। आखिर कब से ऐसा कोई निर्माण - जिसका नक्शा संबंधित अधिकारियों ने पास नहीं किया हो - उसे इस तरह आनन फानन तबाह किया जाता है, जबकि इस मामले में लंबी प्रक्रिया चलती है, अदालत या संबंधित विभाग कुछ जुर्माना करते है या अधिक से अधिक विवादित मकान का एक हिस्सा गिरा देते हैं।
इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि इन ध्वस्तीकरणों को 'भाजपा शासित राज्यों में होने वाली घटनाओं में अब अपवाद नहीं कहा जा सकता।

लोकसभा चुनावों के नतीजों के ऐलान के महज एक सप्ताह के अंदर, आदिवासीबहुल मांडला जिले में सरकारी जमीन पर बने अल्पसंख्यक समुदाय के 11 मकानों को इन आरोपों के तहत ध्वस्त किया गया कि वहां से 'बीफ का अवैध व्यापारÓ चलता था। ऐसा दिख रहा था कि 'पुलिस/प्रशासन ने अब झुंड का काम' अपने हाथ में लिया है. जहां अब राज्य द्वारा निशानदेही पर किए जाने वाले अत्याचार अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा को वैधता प्रदान कर रहे हैं।

ध्यान रहे कि यह मसला मध्य प्रदेश या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, यह सिलसिला भाजपा शासित राज्यों में आम है। तयशुदा बात है कि किसी खास तबके/समुदाय के खिलाफ बदले की भावना से ऐसी कार्रवाई या हिंसा को महज कानूनी शब्दावली में या उसकी कथित कमियों की बात करके समझा नहीं जा सकता।
इतिहास हमें हिटलर के जर्मनी में बने न्यूरेम्बर्ग कानूनों /1935/ के बारे में बताता है जिसने नात्सीहुकूमत के लिए यह बेहद आसान बनाया कि वह यहुदियों के साथ भेदभाव को नीतिगत तौर पर अंजाम दे और उसने जर्मनी में सामीविरोध का भी संस्थाकरण किया जिसकी परिणति नस्लीय सफाये में हुई। ऐसी परिस्थिति, एक तरह से उनके अंदर के अल्पसंख्यक समुदाय को सभी अधिकारों से वंचित करती है और उन्हें बहुसंख्यक समुदाय की दया पर छोड़ देती है। हम ऐसी स्थिति से भी रूबरू हो सकते है जहां औपचारिक तौर पर ऐसे भेदभावजनक कानून अस्तित्व में नहीं है, मगर विभिन्न ऐतिहासिक और अन्य कारणों से ऐसे भेदभाव जनक या पूर्वाग्रह पूर्ण व्यवहार अधिकाधिक सामान्य होते जाते हैं।

जब प्रशासन पूर्वागहपूर्ण व्यवहार को अंजाम देता है और नागरिक समाज भी 'कानून के राज के इस खुल्लमखुला उल्लंघन को लेकर समझौताजनक रूख अख्तियार करता है तब अमन एवं इन्साफ के प्रति सरोकार रखने वाले नागरिकों और आदर्शवादी युवकों के सामने क्या रास्ता बचता हैे ! शायद अब वक्त़ की मांग है कि वह अधिक सर्जनात्मक और प्रेरणादायी समाधान की तरफ बढ़ने की कोशिश करें।

आज की तारीख में जब गाज़ा में और अन्य फिलिस्तीनीबहुल इलाकों में इस्त्राएली सेना जिस 'नस्लीय सफायेÓ को अंजाम दे रही है, तब यह जानना काफी प्रेरणादायी हो सकता है कि इन्हीं कठिन परिस्थितियों में इस्त्राएली युवाओं का एक छोटा सा ही हिस्सा पश्चिमी तट में सामने आ रही नस्लीय सफाये की घटनाओं को रोकने के लिए अपने आप को झोंक रहा है।

वैसे वे प्रख्यात युवा क्रांतिकारी रैशेल कोरी की शहादत से भी सीख सकते हैं, जिसने बमुश्किल 23 साल की उम्र में उस वक्त़ अपनी शहादत दी जब इस्त्राएली टैंंक दक्षिण गाज़ा में एक फिलिस्तीनी मकान को तबाह करने के लिए आगे बढ़ रहे थे।

अमेरिका में पढ़ाई कर रही रैशेल- फिलिस्तीनी और अंतरराष्टीय शांति कार्यकर्ताओं के समूह की सदस्य थी, जिनकी कोशिश थी कि
'' वह फिलिस्तीनी संपत्ति को तबाह करने के इस्त्राएली सरकार के अभियान को रोकें। उस दिन वह राफाह शरणार्थी शिविर में इस कोशिश में जमा थे कि खुद मानवीय ढाल बनेंगे और ध्वंसीकरण को रोकेंगे, जब इस्त्राएली दस्ते दो भाइयों - खालिद और समीर नसरल्लाह - के मकानों को ध्वस्त करने के लिए पहुंचने वाले थे।
रैशेल के इस अनोखी शहादत के दुनिया भर में चर्चे चले। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि रैशेल की शहादत के बाद दो अन्य शांति कार्यकर्ता इसी तरह फिलिस्तीनी मकानों को बचाने के प्रयास में आत्माहुति दिए।

बीस साल से अधिक वक्त़ गुजर चुका है जब रैशेल और अन्य शांति कार्यकर्ता शहीद हुए। आज जब हमारे मुल्क में बुलडोजर /अ/न्याय का सामान्यीकरण हो चला है और संवैधानिक संस्थाएं भी इस मामले में औपचारिक कार्रवाई के आगे कदम नहीं उठाती दिख रही हैं, ऐसे समय में जनमानस को जगाने के लिए, उन्हें प्रेरित करने के लिए वे सभी जो न्याय, अमन और प्रगति के हक़ में हैं, उन्हें नयी जमीन तोड़ने की जरूरत है। जनमानस को यह भी बताने की जरूरत है, जिसकी तरफ हावर्ड जिन्न ने अपनी तकरीर में आवाज़ बुलंद की थी ओर समझाया था कि 'हमारी समस्या नागरिक आज्ञाकारिता है।Ó हमारी समस्या यही है कि दुनिया भर के तमाम लोगों ने अपनी सरकारों के नेताओं के फरमानों को चुपचाप सुना है और वह युद्ध में जुट गए हैं, और लाखों लोग इसी आज्ञाकारिता के कारण मर भी गए हैं। हमारी समस्या है 'आल क्वाइट आन द वेस्टर्न फ्रेट का वह दृश्य, जब स्कूली छात्र युद्ध में शामिल होने के लिए कतारबंद हो रहे हैं। हमारी समस्या है कि भूखमरी और गरीबी तथा जाहिलपन के आलम में , युद्ध और क्रूरता के बीच दुनिया भर में लोग आज्ञाकारी हैं। हमारी समस्या है कि जबकि जेलें मामूली चोरों से भरी पड़ी हैं और बड़े बड़े चोर डकैत सरकारें चला रहे हैं। हमारी यही समस्या है। हम नात्सी जर्मनी की इस समस्या को समझते हैं। हम जानते हैं कि वहां भी समस्या आज्ञाकारिता की थी, वहां भी लोग हिटलर के प्रति आज्ञाकारी थे, वह सरासर गलत था। उन्हें चाहिए था कि वह चुनौती देते और प्रतिरोध करते और अगर हम उन दिनों वहां होते तो तय बात है कि हम अपने प्रतिरोध से उन्हें दिखा भी देते।

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