नया साल, नया मंदिर, लेकिन समस्याएं वे ही पुरानी

कुछ हफ्तों बाद होने जा रहे भव्य राम मंदिर के उद्घाटन और एक शानदार रोड शो पर ध्यान केंद्रित करने के साथ हम वर्ष 2024 में प्रवेश कर रहे हैं जिसका फोकस सत्तारूढ़ पार्टी और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रचार है;

Update: 2024-01-06 03:34 GMT

- जगदीश रत्तनानी

कुछ हफ्तों बाद होने जा रहे भव्य राम मंदिर के उद्घाटन और एक शानदार रोड शो पर ध्यान केंद्रित करने के साथ हम वर्ष 2024 में प्रवेश कर रहे हैं जिसका फोकस सत्तारूढ़ पार्टी और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रचार है। भाजपा ने मंदिर निर्माण का वादा किया था जिसे उसने पूरा किया है। यह उम्मीद की जा सकती है कि उसकी राजनीतिक मशीनरी आगामी राष्ट्रीय चुनावों में इसे पार्टी के लिए वोटों में बदलने के लिए पूरी ताकत से काम करेगी।

किसी धार्मिक आंदोलन में सरकारी तंत्र की पूर्ण भागीदारी निश्चित रूप से शंकास्पद है- पहले तो संवैधानिक शुद्धता के दृष्टिकोण से और उसी तरह सरकारी मदद से राजनीतिक लामबंदी और धार्मिक भावना का उपयोग कर बड़ा लाभ उठाने के नजरिए से भी वह संदेहास्पद है। यह उस समय की निशानी है जिसका जिक्र शायद ही कोई करता हो। एक समय था जब यह सुझाव दिया गया था कि नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपनी आधिकारिक क्षमता में नहीं बल्कि एक हिंदू के रूप में अपनी व्यक्तिगत क्षमता में मंदिर के लिए आधारशिला समारोह में भाग लेना चाहिए, किसी अन्य हैसियत से नहीं। हम स्पष्ट रूप से उस चरण से बहुत पहले हैं जहां इसे एक ऐसी चीज के रूप में देखा जाता है जिसका विरोध करना बहुत दूर की बात है।

नए साल की इस शानदार शुरुआत के बीच राष्ट्र के लिए हमारे पास जो कहानी है वह 2023 को बिदा करते हुए प्रधानमंत्री के शब्दों में इस प्रकार है- 'आज भारत का हर कोना आत्मविश्वास से भरा हुआ है, एक विकसित भारत की भावना से ओत-प्रोत है; आत्मनिर्भरता की भावना। हमें 2024 में भी इसी भावना और लय को बनाए रखना होगा।'

यह चुनावों के लिए भाजपा के एजेंडे को निर्धारित करता है, बहुत सारे रंग और अतिशयोक्ति की हद तक जोड़ता है और इसे भाजपा के 2024 के पसंदीदा एजेंडे के रूप में प्रस्तुत करता है। भाजपा की यह कवायद समझ में आती है और यहां तक कि एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय चुनाव से पहले अच्छी योजना और एजेंडा-सेटिंग के रूप में भी इसकी सराहना की जा सकती है। हम भाजपा को उसकी त्वरित लामबंदी और बेहतर संदेश देने के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

फिर भी, यह स्पष्ट है कि भाजपा द्वारा यह एजेंडा सिर्फ चुनावी समय के लिए चुनाव-मोड के लिए आरक्षित नहीं किया गया है। ऐसा लगता है कि यह हमेशा चलने वाला तरीका है, जश्न मनाने, बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और उन दावों को दोहराने के प्रति हमेशा मौजूद पूर्वाग्रह है जिसे एक ऐसी पार्टी वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रही है जिसके पास धन और मीडिया का जितना समर्थन है उतना अन्य किसी पार्टी के पास नहीं है। खतरा यह है कि पार्टी को अपने प्रचार पर भरोसा है। सरकार की ऊर्जा कहानी बताने में खर्च हो रही है, समस्या-समाधान की ओर उसका ध्यान कम है। दरअसल, पार्टी शायद जो सिर्फ एक समस्या देख रही है वह है कि कहानी को ठीक किया जाना चाहिए लेकिन यह ऐप्पल के उस विज्ञापन की तरह है जिसमें अपने प्रतिद्वंद्वी माइक्रोसॉफ्ट को दो बकेट के बीच संसाधनों को वितरित करते हुए दिखाता है; विस्टा को ठीक करना या अधिक विज्ञापन करना। बाद वाले को थोक पैसा मिलता है जबकि ग्राहकों ने माइक्रोसॉफ्ट के नए ऑपरेटिंग सिस्टम द्वारा बनाई गई समस्याओं के बारे में शिकायत की जिसे विंडोज विस्टा कहा जाता है।

इस तरह के शासन का नतीजा यह होगा कि देश और जनता को जल्द ही वास्तविक समस्याओं से निपटना होगा- भयंकर बेरोजगारी, सांप्रदायिक घृणा के राक्षस, लगातार बढ़ते जा रहे कड़वे विवाद, बढ़ते कर्ज, संस्थानों को नष्ट करना, सहकारी संघवाद की भावना को कमजोर करना, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद जो कुछ चुने हुए व्यापारिक घरानों का पक्ष लेते हैं, कुछ व्यक्तियों के अधिकारों और शक्तियों में वृद्धि और एक लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रिया जो केवल दिखावे की रहती है।

ये सभी पुरानी समस्याएं हैं जिन्हें भारत ने लंबे समय से देखा है। केंद्र में भाजपा के सत्ता में रहने के आठ वर्षों के दौरान ये समस्याएं और बदतर हो गई हैं। आज राष्ट्र जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उन्हें फैंसी पर्चे, अच्छी तरह से बनाए गए ग्राफ, चुस्त संपादित वीडियो ठीक नहीं कर सकते हैं। इसके साथ एक अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति भी जुड़ी है जो न केवल विपक्ष की आवाजों को खत्म करना चाहती है या यदि राजनीतिक रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए तो भाजपा के अंदर से प्रतिस्पर्धा को भी खत्म करना चाहती है। ऐसा लगता है कि यह मांग पूरी तरह से सत्ता के अधीन है तथा देश और पार्टी ने इसका पालन किया है जिसकी वजह से भारतीय लोकतंत्र और इसकी अभी भी अनुभवहीन संस्थाओं की आंतरिक शक्ति पर सवाल खड़े होते हैं।

क्या यह भारत अधिक सुरक्षित या कम सुरक्षित है? क्या हमारा लोकतंत्र तब बेहतर है जब नागरिक सत्ता को चुनौती दे सकते हैं और अपनी आजादी के लिए नई मिसाल कायम कर सकते हैं या क्या हम तब बेहतर हैं जब विभिन्न साधनों का उपयोग करके सभी चुनौतियों को चुप करा दिया जाता है? अगर बाहरी लोग भारत को अपने अधीन करने के आंतरिक झगड़े नहीं कराते तो क्या अंग्रेज देश पर अधिकार कर सकते थे? अधिकार पर सवाल उठाने, अपनी स्वतंत्रता का विस्तार करने और अपने लोकतंत्र को मजबूत करने की हमारी क्षमता के मामले में हम कितना आगे बढ़ गए हैं? आखिर आपातकाल ने हमें क्या सिखाया है?

1971 के पेंटागन पेपर्स मामले के रूप में जाने गए प्रकरण में न्यायाधीश मरे आई. गुरफिन के शब्द महत्वपूर्ण हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा वर्गीकृत पत्रों के प्रकाशन के पक्ष में उन्होंने सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया था। अमेरिका में प्रथम संशोधन क्लासिक बने उनके आदेश में लिखा था- 'हमारे राष्ट्र की सुरक्षा केवल प्राचीर पर नहीं है। सुरक्षा हमारे मुक्त संस्थानों के मूल्य में भी निहित है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के और भी अधिक मूल्यों तथा लोगों के जानने के अधिकार को संरक्षित करने के लिए सत्ता में बैठे लोगों को एक आक्रामक प्रेस, एक हठधर्मी प्रेस का सामना करना चाहिए।' इस मामले की सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति गुरफिन को निक्सन प्रशासन ने नियुक्त किया था और उन्होंने अपने पहले मामले में ही सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया था।

इस शासन की एक बहुत ही गैर-भारतीय तरीके की बड़ी समस्या भी है, एक ऐसा तरीका जो राष्ट्र की संस्कृति और लोकाचार की समझ से बहुत दूर है जिसे भाजपा अपने मूलभूत आधारों में से एक के रूप में दावा करने में बहुत गर्व महसूस करती है। चूंकि भारतीय लोकाचार के केंद्र में मूल्य हैं, 'धर्म' के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता और एक नैतिक कम्पास है जिसका सही और गलत के सावधानीपूर्वक जांच करने से कभी समझौता नहीं किया जाना चाहिए। यह तर्क देना फैशनेबल हो सकता है कि राजनीति में कोई मूल्य नहीं हैं। आखिर भारतीय परिदृश्य में कौन सी पार्टी मूल्यों के बारे में सजग है? और अगर ऐसा है तो यह तर्क देना संभव है कि भाजपा सत्ता में नहीं आई है, वह सत्ता में आ कर पतित हो गई है और हो सकता है कि वह अपने साथ राष्ट्र को पतन की राह पर ले जा रही हो। इस गहरी खाई से बाहर आने के लिए हमें प्रभु के आशीर्वाद की आवश्यकता होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)

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