देश को संशय में डालती मोदी सरकार
संसदीय परम्पराओं की अवहेलना करने की आदी हो चुकी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की केन्द्र सरकार ने अपनी इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए देश के इतिहास में पहली बार ट्विट के जरिये संसद का विशेष सत्र बुलाकर साबित कर दिया है कि वह न केवल गैरजिम्मेदार है वरन उसका पारदर्शिता से भी कोई लेना-देना नहीं रह गया है;
संसदीय परम्पराओं की अवहेलना करने की आदी हो चुकी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने अपनी इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए देश के इतिहास में पहली बार ट्विट के जरिये संसद का विशेष सत्र बुलाकर साबित कर दिया है कि वह न केवल गैरजिम्मेदार है वरन उसका पारदर्शिता से भी कोई लेना-देना नहीं रह गया है।
ऐसे वक्त में जब संयुक्त विपक्ष का गठबन्धन 'इंडिया' (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंन्क्लूज़िव एलाएंस) मुम्बई में 31 अगस्त व 1 सितंम्बर को 2024 के लोकसभा की चुनावी रणनीति में व्यस्त था, केन्द्रीय संसदीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने यह जानकारी दी कि 18 से 22 सितम्बर को विशेष सत्र होगा। भले ही इस सूचना को 'इंडिया' उपेक्षित कर अपनी कार्यवाही में लगा रहा लेकिन यह एक तरह से देश को अंधेरे में रखने जैसा है क्योंकि यह कार्यप्रणाली किसी लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार की नहीं हो सकती। न ही यह 'इंडिया' की बढ़ती एकता के जवाब में होनी चाहिये।
इसे लेकर कई तरह के कयास हैं। इसमें वर्ष 2024 में होने जा रहे लोकसभा को समय से पहले करा लेने की सम्भावना से लेकर संविधान में संशोधन, चुनाव टाल देने या फिर मोदी को हमेशा के लिये पीएम बनाये जाने जैसी गुंजाइशें टटोली जा रही हैं। चीन द्वारा नया नक्शा जारी करना (जिसमें अरूणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा बताया गया है), मणिपुर हिंसा, गौतम अदानी को लेकर नये खुलासे, महंगाई आदि अनेक विषय हैं जिनके बारे में अनुमान व्यक्त किये जा रहे हैं कि इन मसलों पर सरकार कोई बात करना चाहती है।
सही जानकारी किसी के भी पास नहीं है। फिर, हाल ही में तो संसद का सत्र हो चुका है। क्यों नहीं सरकार ने इन विषयों पर तब चर्चा कर ली? सवाल यह भी है कि क्यों लोगों या सांसदों को विषय को लेकर कयास लगाने के लिये छोड़ा जाये? क्यों नहीं सूचना के साथ ही विषय की जानकारी दे दी गई? संसद पर केवल सत्ता का हक नहीं है, जो अन्य लोगों को इसकी सूचना से वंचित रखा जाये। यह सत्र 5 दिनों का क्यों है, जबकि विशेष सत्र एकाध दिन के ही होते हैं? दुर्भाग्य से तमाशों के आयोजनों में पारंगत मोदी सरकार इसे भी इवेंट बना रही है।
आखिरकार विशेष सत्र कोई मज़ाक नहीं होता और न ही उसे सत्तापक्ष का कोई विशेषाधिकार समझा जाये, बावजूद इसके कि सरकार को ऐसा करने का पूरा हक है। तो भी, इस अधिकार का प्रयोग बहुत गम्भीरता से; और बेहद खास उद्देश्यों को लेकर होना चाहिये। विशेष सत्र का विषय क्या है, यह किन परिस्थितियों में आयोजित किया जा रहा है और इसे बुलाये जाने का प्रयोजन क्या है- यह सारा कुछ सरकार को बतलाना चाहिये था। यह सूचना प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से तथा बाकायदा एक अधिसूचना जारी कर नागरिकों को देनी थी। संसद पर पहला हक तो नागरिकों का होता है, चाहे वे स्वयं इसके प्रत्यक्ष सदस्य न हों। जो सदस्य दोनों सदनों में बैठते हैं वे अंतत: जनसामान्य की ही नुमाइंदगी करते हैं। सरकार को पहले तो इस पर सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिये थी फिर अपना उद्देश्य बतलाना चाहिये था।
मोदी सरकार द्वारा संसदीय गरिमा व परम्पराओं को ध्वस्त करने की पूरी श्रृंखला है, जिसकी एक और कड़ी का सम्बन्ध इसी एपीसोड से है। सरकार ने एक समिति बनाई है जो 'एक देश एक चुनाव' की योजना बनाकर सरकार को सौंपेगी। देश में पहली बार ऐसा हो रहा है कि एक सेवानिवृत्त राष्ट्रपति को किसी समिति का अध्यक्ष बनाकर सरकार के किसी विभाग को रिपोर्ट सौंपने की जिम्मेदारी दी गई है जो कभी सिर्फ उस विभाग का नहीं वरन पूरी सरकार का प्रमुख हुआ करता था। वास्तविकता में चाहे न हो लेकिन संवैधानिक परिभाषा के अनुसार तो वह राष्ट्राध्यक्ष ही है जिसके अधीन पूरा देश होता है।
संसदीय प्रक्रिया के अंतर्गत खुद मोदी इन्हीं राष्ट्रपति के अंतर्गत काम कर चुके हैं। न यह कोई पूछने वाला है और न ही कोई बताने वाला कि आखिर एक पूर्व राष्ट्रपति कैसे किसी समिति का प्रमुख बनकर सरकार को कोई रिपोर्ट दे सकता है। कायदे से तो कोई व्यक्ति जिस दिन इस पद पर पहुंचता है, उसी दिन से वह दलगत राजनीति से ऊपर हो जाता है; पर यह सब तभी सम्भव है जब किसी व्यक्ति या किसी राजनैतिक दल की ही आंखों का नहीं, किसी सरकार की आंखों का भी नहीं, बल्कि पूरे देश की आंखों का पानी मर जाये।
अगर 'एक देश एक चुनाव' की बात करें तो यह करा पाना बहुत कठिन है- प्रशासकीय और राजनैतिक दोनों कारणों से अव्यवहारिक। आजादी के बाद हुए पहले चार आम चुनावों के साथ विधानसभाओं के निर्वाचन हुए थे परन्तु तब की परिस्थितियां अलग थीं। आबादी कम थी, चुनावी हिंसा न्यूनतम थी। राजनैतिक दलों के बीच आज के जैसी वैमनस्यता भी नहीं थी। सबसे बड़ी बात कि चुनावों का आकार व स्वरूप विशाल नहीं था। इसके बावजूद अगर सरकार एक साथ चुनाव कराना ही चाहती है तो पहले वह इसके फायदे बतलाये।
यह भी बताये कि सामान्य नागरिकों, विशेषकर मतदाताओं को किसी भी प्रकार की परेशानी में डाले बगैर ये कैसे सम्पन्न होंगे। जब मणिपुर जैसे छोटे से राज्य की हिंसा को रोकने में सरकार 5 माह में भी सफल नहीं होती और ज्यादातर राज्यों के चुनाव कई चरणों में कराने पड़ते हैं, तो इतने बड़े देश में एक दिन में कैसे चुनाव हो सकते हैं। यह जानने का हक नागरिकों का है; और बतलाना सरकार का कर्तव्य।