धरती का ख्याल रखना जरूरी है
मौजूदा समय में पर्यावरण का संकट सबसे बड़ी चिंताओं में से एक है। पर्यावरण, का जो नुकसान हमने पिछले कुछ दशकों में किया है;
- बाबा मायाराम
देशी बीज न केवल सौंदर्य से भरपूर हैं बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं। औषधि गुणों से सम्पन्न हैं और स्थानीय मिट्टी पानी और हवा के अनुकूल हैं। आखिर मनुष्य ने ही जंगलों से तरह-तरह की फसलों के गुणधर्मों की पहचान कर खेतों में उन्हें उगाया है और इसी के परिणामस्वरूप आज हम बीजों के मामले में समृद्ध हैं। लेकिन आज हमने देशी बीजों की संपदा खो दी है, इसी को संजोने व संवारने का प्रयास जन स्वास्थ्य सहयोग में किया जा रहा है।
मौजूदा समय में पर्यावरण का संकट सबसे बड़ी चिंताओं में से एक है। पर्यावरण, का जो नुकसान हमने पिछले कुछ दशकों में किया है, वह इसके पहले सैकड़ों सालों में नहीं हुआ। जो नदियां सदियों से बहती रहीं, कुछ ही सालों में सूख गईँ, जो धरती सबका पालन-पोषण करती रही, उसकी जीवनदायिनी क्षमता खतरे में है। मिट्टी-पानी का प्रदूषण हो रहा है।
दो दिन पहले 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस था, यह हमें यह सोचने के लिए विवश करता है कि कैसे हम पर्यावरण को बचाए, कैसे उसका संरक्षण करें, आज के इस कॉलम में इस पर ही चर्चा करना उचित रहेगा, जिससे इस दिशा में हम कुछ मिलकर कर सकें।
मैं यहां पर्यावरण किस तरह संकट में इसको बताने की कोशिश नहीं करूंगा, क्योंकि यह तो सर्वविदित है। हमारी सदानीरा नदियां प्रदूषित हो रही हैं, जंगल कम हो रहे हैं, खेतों की मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो रही है, हवा प्रदूषित हो रही है, भूजल नीचे खिसक रहा है इत्यादि। बहुत ही ऐसे संकट आ रहे हैं, जो कुछ दशक पहले तक नहीं थे।
लेकिन कई लोग कह सकते हैं, यह तो वैश्विक समस्या है, इसमें हम क्या कर सकते हैं। यह वैश्विक समस्या है पर इसका असर स्थानीय स्तर पर होता है। इसे कुछ हद तक स्थानीय स्तर पर कम किया जा सकता है। जैसे इस पर्यावरण दिवस की थीम है, प्लास्टिक प्रदूषण। हम देखते हैं कि हमारे शहर की नालियां, सड़कें प्लास्टिक कचरे से पटे पड़े हैं। यह दिन हमें इससे निपटने के लिए सामूहिक कार्रवाई करने के लिए संदेश देता है, प्रेरित करता है।
मैं जब कभी ट्रेन की यात्रा करता हूं, एक चीज बहुत खटकती है, वह है रेल पटरियों के दोनों ओर पॉलीथीन, पानी की बोतलें बिखरी पड़ी दिखती हैं। जहां तक नजरें जाती हैं, यही दिखता है। इसी तरह, सड़कों के दोनों ओर कचरा पड़ा रहता है। सब्जी, दूध या किराना सामान लेने के लिए पॉलीथीन का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे कचरा होता रहता है। शहरों व कस्बों में रोजाना कचरे की गाड़ी कचरा उठाकर ले जाती है। कर्मचारी इसके लिए मेहनत करते हैं। लेकिन दूसरे दिन उतना ही कचरा फिर हो जाता है। यह क्रम बना रहता है।
यानी हमने कचरा संस्कृति को अपना लिया है। चाहे जितना ही कचरा साफ करो, कचरा पैदा होता ही रहेगा। यूथ एंड थ्रो (इस्तेमाल करो और फेंको) की संस्कृति ही कचरा संस्कृति है। हम कोई भी दुकान देखें, वहां छोटी छोटी थैलियां, पॉलीथीन पैक इत्यादि टंगे रहते हैं। इन सबके कारण हमारी नदियां, झीलें, तालाब सभी प्रदूषित हो रहे हैं। मिट्टी-पानी भी प्रदूषित हो रहा है।
हम लोग बचपन में देखते थे। कोई ज्यादा कचरा नहीं होता था। जो भी कचरा पैदा होता था, उससे जैव खाद बनाई जाती थी, जिससे खेतों की मिट्टी उर्वर बनती थी। गांवों में पशु होते हैं, गोबर—गोमूत्र होता है, उससे गोबर खाद बनती थी। खेतों में अच्छी फसलें होती थीं।
मुझे कई आदिवासी गांवों में जाने का मौका मिला है। उनके घर व गांव बहुत ही साफ सुथरे होते हैं। कुछ जगहों पर अब भी सरई पत्तों की पत्तल व दोने में खाना खाया जाता है। गाय उन पत्तों को खा लेती है। प्लेट का इस्तेमाल नहीं किया जाता, जिससे पानी की बचत होती है। यानी वहां कचरा पैदा नहीं होता। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उनको जरूरत है। इससे ज्यादा नहीं।
इसी प्रकार, हमें मिट्टी-पानी, देसी बीजों के संरक्षण की अच्छी परंपराओं से सीखना चाहिए। संकर बीजों के आने से अधिकांश देसी बीज लुप्त हुए हैं। लेकिन अब भी कई जगहों पर किसान, समूह और स्वयंसेवी संस्थाएं देसी बीजों की खेती के संरक्षण व संवर्धन में लगे हैं।
उत्तराखंड के बीज बचाओ आंदोलन ने इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। इसके प्रणेता विजय जड़धारी हैं। उन्होंने मुझे बताया कि बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ बारह अनाज है,पर इसके अंतर्गत बारह अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा शामिल हैं। इसमें 20-22 प्रकार के अनाज होते हैं।
इन अनाजों में कोदा ( मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू), जोन्याला ( ज्वार), मक्का, राजमा, गहथ ( कुलथ), भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन), रैयास (नौरंगी), उड़द, सुंटा, रगड़वांस, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, सण ( सन), काखड़ी इत्यादि।
विजय जड़धारी बताते हैं कि मंडुआ बारहनाजा परिवार का मुखिया कहलाता है। असिंचित व कम पानी में यह अच्छा होता है। पहले मडुंवा की रोटी ही लोग खाते थे, जब गेहूं नहीं था। पोषण की दृष्टि से यह भी बहुत पौष्टिक है।
इसी प्रकार, उन्होंने उनके जड़धार गांव के उजड़ चुके जंगल को भी हरा-भरा कर दिया। इसके लिए जंगल को आराम दिया, यानी उसकी रखवाली की। इसमें उन्हें पूरा गांव का सहयोग मिला। अब यह जंगल इतना घना हो गया कि सूर्य की किरणें दिखाई नहीं देतीं। कई तरह के पक्षियों का आवास भी बन गया।
बीज बचाने का काम देश के कई इलाकों में किया जा रहा है। इस दिशा में छत्तीसगढ़ में जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था का काम सराहनीय है। आज यहां धान की 450 किस्में संग्रहीत हैं जिनमें 65 सुगंधित, 30 लाल चावल वाली, 40 जल्द पकने वाली, 2 किस्में काले चावल की। और बाकी 110-115 दिन की मध्यम अवधि में पकने वाली किस्में हैं। इसके अलावा मडिया की 6, कांग 2, ज्वार 1, मक्का 2 और अरहर की 9 किस्में हैं। चना, अलसी, कुसुम, मटर, भिंडी, उड़द आदि देशी किस्में भी हैं।
रंग-बिरंगे देशी बीज न केवल सौंदर्य से भरपूर हैं बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं। औषधि गुणों से सम्पन्न हैं और स्थानीय मिट्टी पानी और हवा के अनुकूल हैं।
आखिर मनुष्य ने ही जंगलों से तरह-तरह की फसलों के गुणधर्मों की पहचान कर खेतों में उन्हें उगाया है और इसी के परिणामस्वरूप आज हम बीजों के मामले में समृद्ध हैं। लेकिन आज हमने देशी बीजों की संपदा खो दी है, इसी को संजोने व संवारने का प्रयास जन स्वास्थ्य सहयोग में किया जा रहा है।
संस्था के कार्यकर्ता होमप्रकाश साहू बताते हैं कि रासायनिक खेती के कारण ज़मीन की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है और उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु खत्म होते जा रहे हैं। बेजा रासायनिक खाद के इस्तेमाल से ज़मीन सख्त होती जा रही है। भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए मिश्रित फ़सलों को खेतों में बोया जाता है। यह परंपरागत तरीका है। देश के कई इलाकों में अलग-अलग तरह की मिश्रित फसलें होती हैं।
इसके अलावा, हरी खाद ढनढनी, सन, सोल, चरौरा को भी बोकर फिर मिट्टी में सड़ा दिया जाता है, जिससे ज़मीन उत्तरोत्तर उर्वर बनती जाती है। उन्होंने बताया कि इस भाटा कमजोर ज़मीन को हरी खाद से ही उर्वर बनाया है। यानी देसी बीजों की जैविक खेती से मिट्टी पानी का संरक्षण भी होता है। अनाज भी पौष्टिक व स्वादिष्ट मिलता है।
कुल मिलाकर, हमें अब मिट्टी-पानी का संरक्षण करना जरूरी है। कचरा कम से कम पैदा हो, या न हो, यह ख्याल भी रखना जरूरी है। हमें चीजों को बापरने का सलीका भी सीखना होगा। यूज एंड थ्रो संस्कृति की बजाय पुरानी चीजों को भी इस्तेमाल करने पर जोर देना होगा। इस संदर्भ में मुझे बुद्ध की कहानी याद आ रही है, जिससे हम कुछ सीख सकते है:-
एक दिन बुद्ध अपने मठ में मठवासियों के साथ बैठे बात कर रहे थे। तभी एक भिक्षु ने नए अंगरखे के लिए इच्छा जताई। बुद्ध ने पूछा- तुम्हारे पुराने अंगरखे का क्या हुआ?
-'वह बहुत फटा पुराना हो गया है। इसलिए मैं उसे अब चादर के रूप में इस्तेमाल कर रहा हूं।'
-बुद्ध ने फिर पूछा- पर तुम्हारी पुरानी चादर का क्या हुआ?
-गुरूजी, वह चादर पुरानी हो गई थी, वह इधर-उधर से फट गई थी, इसलिए मैंने उसे फाड़कर तकिया का खोल बना लिया।' भिक्षु ने कहा।
बेशक तुमने तकिया का नया खोल बना लिय़ा, लेकिन तुम ने तकिया के पुराने खोल का क्या किया? बुद्ध ने पूछा
-गुरूजी, तकिये का गिलाफ सर घिस-घिस कर फट गया था और उसमें एक बड़ा छेद हो गया था. इसलिए मैंने पायदान बना लिय़ा।'
बुद्ध हर चीज़ की गहराई से तहकीकात करते थे. उस जवाब से भी वे संतुष्ट नहीं हुए।
-गुरूजी, पायेदान भी पैर रगड़ते-रगड़ते फट गया. - एकदम तार-तार हो गया. तब मैंने उसके रेशे इकठ्ठे करके उनकी एक बाती बनाई. फिर उस बाती को तेल के दीये में डाल कर जलाया।'
भिक्षु की बात सुन कर बुद्ध मुस्कराए। फिर उस सुपात्र को बुद्ध ने एक नया गरम अंगरखा दिया। यह कहानी आज भी प्रासंगिक है क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति इस्तेमाल करो और फेंको (यूज-एंड-थ्रो) की संस्कृति को बढ़ावा देती है। जो कचरा पैदा करती है। हमें पर्यावरण को बचाने के लिए ऐसी सादगीपूर्ण जीवनशैली की ओर मुड़ना होगा, जिसमें कचरा ही पैदा न हो। क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे?