हर दिल में संविधान की पहल
कबीर मंडलियां हर महीने की 2 तारीख को कबीर के भजन गाती थीं;
- बाबा मायाराम
कबीर मंडलियां हर महीने की 2 तारीख को कबीर के भजन गाती थीं। इसके साथ उन भजनों से जुड़े संदेशों पर बात करती थीं। कबीर ने जो पाखंडवाद और जातिवाद पर करारा प्रहार किया है, उस पर चर्चा करती थीं। कबीर भजन एवं विचार मंच नामक समूह के तहत यह कार्यक्रम होते थे। कबीर के विचारों के प्रचार-प्रसार का यह कार्यक्रम एकलव्य से अलग स्वतंत्र कार्यक्रम के रूप में जारी है।
इन दिनों देश में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं, जिसमें संविधान भी एक मुद्दा है। इस पर चर्चा हो रही है। लेकिन इसके साथ संविधान के मूल्य भी हैं, जो भारतीय इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से उनका क्या नाता है? इसे समझना और उन पर अमल करना क्यों जरूरी है? आज के स्तंभ में मैं ऐसी ही पहल के बारे में बताने जा रहा हूं, जो इऩ मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए चल रही है।
नब्बे की दशक की बात है। उन दिनों मैं इन्दौर में 'नईदुनिया' में कार्यरत था और देवास में एकलव्य संस्था के कार्यक्रमों में आता जाता रहता था। एकलव्य संस्था शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत है। इस संस्था ने साक्षरता कार्यक्रम को गति देने के लिए मालवा की कबीर मंडलियों को जोड़ा था।
ऐसी कबीर मंडलियां हर महीने की 2 तारीख को कबीर के भजन गाती थीं। इसके साथ उन भजनों से जुड़े संदेशों पर बात करती थीं। कबीर ने जो पाखंडवाद और जातिवाद पर करारा प्रहार किया है, उस पर चर्चा करती थीं। कबीर भजन एवं विचार मंच नामक समूह के तहत यह कार्यक्रम होते थे। कबीर के विचारों के प्रचार-प्रसार का यह कार्यक्रम एकलव्य से अलग स्वतंत्र कार्यक्रम के रूप में जारी है।
मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग में मालवा अंचल है। मालवा की एक पुरानी कहावत है-
मालव धरती गहन गंभीर,
डग डग रोटी पग पग नीर।
यह कहावत यहां की उपजाऊ भूमि, जिसमें अच्छी उपज होती है, यहां की समृद्धता को दर्शाती है और पानी की बहुलता को भी बताती है।
यहां की बोली मालवी है। यहां के ज्यादातर लोग खेती करते हैं। जो भूमिहीन या कम जमीन वाले हैं, वे खेतों में मजदूरी करते हैं। यहां के मालवी गेहूं बहुत प्रसिद्ध थे। कम पानी या बिना पानी के यह गेहूं होते थे। मालवा के दाल-बाफला भी बहुत प्रसिद्ध हैं। यहां कबीर की परंपरा बहुत पहले से है।
मालवा में कबीर पंथ के अनुयायी काफी बड़ी संख्या में हैं, जिनमें दलित भी हैं। कबीर ने इंसानियत का संदेश दिया है, जिससे स्वत: ही लोग जुड़ाव महसूस करते हैं। कबीर ने लोकभाषा में दैनिक जीवन के अनुभवों को अपने गीतों, दोहों व दर्शन में स्थान दिया है। इसलिए कबीर को मानने वालों में परंपराओं के व्यवहार में हैं, जो मालवा में भी देखा जा सकता है।
इस अंचल की एक और संस्था कबीर के विचारों के प्रचार-प्रसार में जुटी है। इस संस्था का नाम कबीर जन विकास समूह है। इससे जुड़े सुरेश पटेल बताते हैं कि हमारी लोक संस्कृति में पहले से ही एकता, समता, प्रेम, भाईचारा, समानता और बंधुता की जोड़ने वाली परंपरा है। कबीर इस परंपरा के महत्वपूर्ण कवि थे।
कबीर ने धर्म संप्रदाय, जातियां, गरीब-अमीरी के खांचों में बंटे समाज को जोड़ने काम किया। उनमें चेतना जगाई। एकता, समता,प्रेम, भाईचारा, बंधुता का संदेश दिया। यही चेतना बाद में स्वतंत्रता आंदोलन की आधार भूमि बनी।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र की अवधारणा आकार लेने लगी। न्याय, स्वतंत्रता, समता, बंधुता जैसे उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक सुव्यवस्थित संविधान का निर्माण हुआ। संविधान निर्माताओं ने भारतीय परम्परा में चले आ रहे मूल्यों को इसमें सम्मिलित किया।
वे कहते हैं कि आज के समय में संवैधानिक मूल्यों को समझने, मानने, और जीने की जरूरत है। उनका मानना है कि कबीर के कार्यों और विचारों से कार्य संस्कृति का विकास करके एक समतामूलक समाज और संवैधानिक मूल्यों की स्थापना की जा सकती है।
कबीर 15 वीं शताब्दी के क्रांतिकारी कवि, समाज सुधारक थे। वे ऐसे कवि व संत थे, जिन्होंने धार्मिक कर्मकांड,जातिवाद और पाखंड का विरोध किया था। जुलाहे के रूप में अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने उनकी कविताओं व दोहों में कई सवाल पूछे और लोगों को जगाया।
उन्होंने एक निडर सामाजिक आलोचक की भूमिका निभाई। उनके जन्म व जाति को लेकर कई जनश्रुतियां हैं। हालांकि कबीर ने खुद को जुलाहा कहा है। कबीर के भजनों की खूबी यह है कि 6 सौ साल बाद भी वे जनसामान्य में कई रूपों में मौजूद हैं।
कबीर की तरह मध्यकाल में ऐसे कई संतों ने गांव-गांव जाकर अलख जगाई थी। जिससे भारतीय समाज में व्याप्त निराशा और कुंठा से समाज को मुक्ति मिली थी। ये संत अनुभवजन्य ज्ञान से परिपूर्ण थे। यानी श्रम संस्कृति के वाहक थे।
मालवा में कबीर गायन का यह सिलसिला नए सिरे से उभर कर सामने आया है। कई नए गायकों ने कबीर को गाना शुरू किया, इसकी सूची लंबी है। कई कबीर गायकों ने मालवा ही नहीं देश-विदेश में कबीर के नए रूप में लोक-भाषा में प्रस्तुत किया। इन सबकी सीडी, कैसेट बाजार में आए। इनके कार्यक्रम रेडियो, टेलिविजन व टीवी चैनलों पर आने लगे। मालवा की लोकभाषा में कबीर गांव से लेकर विदेशों तक पहुंचे।
संविधान के लोकव्यापीकरण की मुहिम में लगे शिक्षाविद् रामनारायण स्याग कहते हैं कि सबसे पहले हमें संविधान की उद्देशिका में दिए गए न्याय, स्वतंत्रता, समता, और बंधुता के मूल्यों को जानना, मानना और जीना होगा। यानी संविधान के मूल्यों को जानें, मानें और जिएं। यही मूल्य हमारे राष्ट्र निर्माण के मार्गदर्शक हैं। संविधान सरकार की संरचना, शक्तियों, जिम्मेदारियों और नागरिकों के साथ उसके संबंधों को परिभाषित करता है और उन्हें मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है।
उन्होंने बताया कि सिविक एक्ट फाउंडेशन युवाओं को संवैधानिक मूल्यों से जोड़ने की पहल का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका सपना एक ऐसे भारत का है, जहां हर जगह और हर व्यक्ति न्याय, स्वतंत्रता और बंधुता को जीते हों और औरों के लिए इसके अवसर बनाते हों। सिविक एक्ट युवाओं, कलाकारों एवं संस्थाओं के साथ मिलकर संविधान के मूल्यों के चश्मे से देखने और मूल्यों को जीने की जगह का सहनिर्माण करती है। इस दिशा में ढेर सारी शिक्षण सामग्रियों (पोस्टर, लेख, पुस्तिकाएं इत्यादि) का सहनिर्माण भी किया गया है।
वे आगे बताते हैं कि संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है। इसके माध्यम से इसे देश-दुनिया में इसके प्रति जागरूकता लाई जा रही है। इसके साथ ही ढाई आखर, कलाकारों और कलाप्रेमियों का एक समूह भी बना है, जो कला के माध्यम से संविधान के मूल्यों को और निर्गुणी तत्व को अपने जीवन में उतारने के साथ अपनी कला के सहनिर्माण और प्रस्तुति में भी इसको जीते हैं। इस पर प्रचार-प्रसार सामग्री भी बनाई जा रही हैं। 'हर दिल में संविधान' नामक वेबसाइट भी है।
यह पहल नागरिकों को एक साथ लाने और संवैधानिक मूल्यों पर संवाद करने और इन मूल्यों को अपने जीवन में लाने के अवसर पैदा करने के लिए प्रेरित करती है। लोकतांत्रिक संस्कृति में संविधान के मूल्यों को कैसे गहरा करें, ताकि राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक लोकतंत्र भी मजबूत हो? संविधान की भावना के आदर्श को हम अपने जीवन, समाज और देश में कैसे लागू कर सकते हैं? संविधान का महत्व देश के हर नागरिक को पता होना चाहिए ताकि हम इस परिस्थिति में एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभा सकें और लोकतंत्र को मजबूत कर सकें।
रामनारायण स्याग ने बताया कि हमने कबीर के साथ भीमराव आंबेडकर को भी जोड़ा। इसके लिए डा. आंबेडकर विचार मंच का भी गठन किया था। हर माह की 14 तारीख को इस मंच की बैठकें होने लगीं। जिसमें जाति, वर्ण व्यवस्था, संविधान और शिक्षा पर आंबेडकर के विचारों को समझने की कोशिश की। इसके तहत लम्बे समय तक बैठकों का सिलसिला चला। आंबेडकर के विचारों व संविधान में लोगों के अधिकारों पर भी बातें की। अब नए सिरे से कबीर और संविधान को जोड़कर गीत तैयार हो रहे हैं। उनका मानना है कि समता, बंधुत्व व भाईचारे, न्याय की भावना संतों की वाणी और संविधान में एक सी है।
कुल मिलाकर,इन सबके मद्देनजर हिंसा-प्रतिहिंसा के आज के दौर में कबीर की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। उन्होंने समाज में जिन परिस्थितियों का सामना किया था, समाज को जगाया था। सिर्फ कबीर ही नहीं उनके जैसे कई कवियों ने जात-पांत, ऊंच-नीच के भेदभाव को छोड़कर पूरी मानव जाति के लिए समता व शांति का संदेश दिया था। आज हमें संवैधानिक लोकतंत्र में मानवीय गरिमा और सामाजिक न्याय का हक मिला है। लेकिन आज भी समाज को जागरूक करने और उन मूल्यों पर चलने की जरूरत है। यह पहल यही काम कर रही है।
यह धारा एक दूसरे को जोड़ती हैं, मिलाती है, भाईचारा और बहनापा सिखाती व बढ़ाती है। सहभागिता से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। सामाजिक बदलाव लाती है। यह बदलाव व्यक्तियों के साथ परिवार और समाज में भी लाना है। तभी हम लोकतंत्र को मजबूत बना सकेंगे? लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार हैं?