दो मंदिरों के बीच में फंसा भारतीय लोकतंत्र
राममंदिर का सीधा सम्बन्ध सनातनी परम्परा का है तो वहीं जिस शंकरदेव के मंदिर में जाने से राहुल गांधी को रोका गया;
- डॉ. दीपक पाचपोर
राममंदिर का सीधा सम्बन्ध सनातनी परम्परा का है तो वहीं जिस शंकरदेव के मंदिर में जाने से राहुल गांधी को रोका गया; और दर्शन की मांग को लेकर बीच सड़क पर उन्हें धरना देना पड़ा, वह 15वीं सदी के महान संत का है जिन्हें नव वैष्णव धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। उनका अध्यात्म के अलावा साहित्य व कला के क्षेत्रों में भी योगदान माना गया है। सामाजिक सौहार्द्र के लिये काम करने वाले शंकरदेव को इस मायने में भी एक महान समन्वयक कहा जाता है।
सोमवार को जब अयोध्या में पूरे तामझाम के साथ और देश के सबसे ताकतवर लोगों की मौजूदगी में राममंदिर में बालस्वरूप श्रीराम का बहुप्रतीक्षित प्राण-प्रतिष्ठा समारोह प्रधानमंत्री के हाथों हो रहा था, उसी वक्त वहां से तकरीबन डेढ़ हजार किलोमीटर दूर असम के नगांव जिले में स्थित बोदर्वा थान में प्रसिद्ध शंकरदेव के मंदिर में जाने से कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को रोक दिया गया। खुद मोदी के द्वारा निश्चित उद्देश्यों के तहत बनवाये गये इस मंदिर में कहने को तो वे रामजन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट की तरफ से पहले 'प्रमुख यजमान' के रूप में और बाद में विवाद उठने पर 'प्रतीकात्मक यजमान' के तौर पर शामिल हुए। जैसी कि हालिया दौर में परिपाटी चल पड़ी है, मोदी के रहते कोई भी न तो मुख्य अतिथि हो सकता है और न ही समारोह के सर्वोच्च पद पर आसीन होकर शिरकत कर सकता है। ऐसा ही हुआ। इसके विपरीत, राहुल को शंकरदेव मंदिर के संचालकों ने बाकायदे आमंत्रित किया था। उन्हें मंदिर के कुछ पहले एक स्थान पर रोक दिया गया। पिछले कुछ समय से राजनीति और धर्म के बीच फंसा भारतीय लोकतंत्र लगता है अब दो मंदिरों के बीच फंसकर रह गया है- राममंदिर और शंकरदेव मंदिर। इन दोनों मंदिरों के 22 जनवरी के मंजर बतला रहे हैं कि लोकतंत्र किस स्थिति में पहुंचा दिया गया है।
रामजन्मभूमि मंदिर के चलते न सिर्फ देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया है बल्कि उसके चलते देश का सामाजिक ताना-बाना जिस तरह से बिखरा है, देश उसका भी साक्षी रहा है। कहा जाता है कि 1528 में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति मीर बाकी द्वारा राममंदिर को ध्वस्त कर यहां मस्जिद बनवाई गई थी। इसमें 1947 तक नमाज़ आदा की जाती रही। बाद में इसके मैदान पर हिन्दू कट्टरपंथी दावे करते रहे। यह विवाद परवान चढ़ा 25 सितम्बर, 1990 को जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ (गुजरात) से रथ पर सवार होकर निकले थे। रास्ते में उन्हें बिहार में लालू प्रसाद यादव ने गिरफ्तार करवा दिया। विश्व हिन्दू परिषद के सहयोग से निकली यात्रा का भाजपा 1991 के चुनाव में इसलिये फायदा नहीं उठा पाई क्योंकि चुनाव प्रचार के दोनों चरणों के बीच पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हो गई और कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई। अलबत्ता भाजपा पहले के मुकाबले काफी मजबूत हुई। लाभ मिला 1996 में। पहले 13 दिनों की, फिर 13 महीने की और अंतत: 1998 में 5 साल के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में उसकी सरकार केन्द्र में बनी। 'शाइनिंग इंडिया' के नारे पर लड़ा गया 2004 का आम चुनाव भाजपा-वाजपेयी को जीता न सका। 2004 से लेकर 2014 तक कांग्रेस लौट आई। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में वह केन्द्र पर आसीन रही।
2014 को पीएम बने मोदी पहले दिन से जान गये थे कि जमीनी मुद्दों पर चुनाव लड़ना और जीतना भाजपा के बस की बात नहीं है। उन्होंने दस साल (दो कार्यकाल) के दौरान भावनात्मक मुद्दों को सघन करने का काम किया। भाजपा ने पहला चुनाव तो पिछली सरकार पर आरोप लगाकर जीता, तो वहीं दूसरा (2019 का) लोकसभा चुनाव बालाकोट व पुलवामा के नाम पर जीता। लेकिन मोदी जान गये थे कि 2024 का चुनाव जीतना आसान नहीं। इसलिये आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट से आदेश पाकर रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का कार्य पूरा किया गया। हिन्दू समाज की ओर से ही कहा गया कि 22 जनवरी किसी मंगल कार्य के लिये उपयुक्त नहीं है।
रामलला की दृष्टि से रामनवमी को आदर्श माना गया परन्तु भाजपा की चुनावी प्रचार सम्बन्धी ज़रूरतों के लिहाज से ऐसा करने से इतनी देर हो जाती कि इस परिघटना का सियासी लाभ लेने की कोई गुंजाइश ही न बचती। यहां तक कि सर्वोच्च धर्मगुरु कहे जाने वाले शंकराचार्यों द्वारा तक आपत्तियां जताई गईं कि राममंदिर अभी अपूर्ण है। ऐसे में उसमें प्राण-प्रतिष्ठा शास्त्रानुकूल नहीं है। मोदी के वैवाहिक दर्जे के सन्दर्भ में भी उन्हें इस विधि के अनुकूल नहीं पाया गया। इससे परेशान ट्रस्ट ने थोड़ा रद्दोबदल करते हुए अपने एक ट्रस्टी अनिल मिश्रा एवं उनकी पत्नी को मुख्य यजमान बना दिया।
मोदी जी प्रतीकात्मक यजमान तो बने लेकिन मंगलवार के अखबार बतलाते हैं कि प्रतीकात्मक यजमान ही मुख्य यजमान थे और उनके अलावा कैमरे की जद में और कोई भी नहीं था। शंकराचार्यों की नाराजगी और व्यापक तौर पर यह मान लिये जाने के बावजूद, कि राममंदिर का उद्घाटन शास्त्रसम्मत नहीं है, हुआ मोदी के ही हाथों। होना ही था। देश की जानी-मानी हस्तियां अयोध्या में थीं। वह वर्ग नहीं था जिसके उत्थान की बात रामराज्य के जरिये होने के दावे किये जाते हैं।
अयोध्या के राममंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद भाजपा-संघ के लोगों की अपेक्षा अगर अन्य मस्जिदों के स्थान पर मंदिर बनाने की होती है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। वैसे भी 'अयोध्या तो झांकी है, काशी मथुरा बाकी है' का नारा तभी से चल रहा है जब 90 के दशक की शुरुआत में रामजन्मभूमि आंदोलन प्रारम्भ हुआ था।
खैर, अब दूसरे मंदिर की बात की जाये। राममंदिर का सीधा सम्बन्ध सनातनी परम्परा का है तो वहीं जिस शंकरदेव के मंदिर में जाने से राहुल गांधी को रोका गया; और दर्शन की मांग को लेकर बीच सड़क पर उन्हें धरना देना पड़ा, वह 15वीं सदी के महान संत का है जिन्हें नव वैष्णव धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। उनका अध्यात्म के अलावा साहित्य व कला के क्षेत्रों में भी योगदान माना गया है।
सामाजिक सौहार्द्र के लिये काम करने वाले शंकरदेव को इस मायने में भी एक महान समन्वयक कहा जाता है कि उन्होंने उत्तर भारत के कई संतों से मुलाकातें की थीं। राममंदिर का समारोह सनातन के जरिये अपनी राजनीति का विस्तार करने के लिये था तो शंकरदेव में राहुल के जाने की कोशिश समाज में नफ़रत खत्म कर सामंजस्य स्थापित करने की है। जिस समावेशी संस्कृति के लिये आज भारत तरस रहा है, वह तो शंकरदेव जैसे संतों की वाणी व प्रभाव से पाई जा सकती है। इसे ही ध्यान में रखकर राहुल ने कन्याकुमारी (7 सितम्बर, 2022 को शुरुआत) से श्रीनगर (समाप्त- 30 जनवरी, 2023) तक की पैदल यात्रा की थी, जिसे 'भारत जोड़ो यात्रा' का नाम दिया गया था।
14 जनवरी को इसका दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ है जिसका समापन 20 मार्च, 2024 को मुम्बई में होगा। इस बार इसे 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' का नाम मिला है। चूंकि अब लोकसभा के चुनाव नज़दीक है और भाजपा के समक्ष 'इंडिया' गठबन्धन के रूप में सामूहिक चुनौती है, उनके मार्ग में व्यवधान उत्पन्न किये जा रहे हैं। पहले मणिपुर में उनकी यात्रा के शुरू होने का स्थान प्रशासन ने बदला, फिर असम आने पर उन्हें मुख्यमंत्री हिमंता विस्वा सरमा ने गिरफ्तार करने की चेतावनी दे दी। अब शंकरदेव मंदिर जाने से उन्हें रोकना बतलाता है कि मोदी का मंदिर-प्रेम केवल चुनावी प्रचार का हिस्सा है। दो मंदिरों के बीच भारत का लोकतंत्र कैसे फंसा हुआ है, 22 जनवरी का घटनाक्रम साफ तौर पर यही अभिव्यक्त करता है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)