'अंग्रेजों भारत छोड़ो' की याद में
जब महात्मा गांधी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ों' का आह्वान किया था तब भारत के राजनैतिक क्षितिज पर कैसा परिदृश्य था;
- अरुण कुमार डनायक
यह आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हुआ। सरकार ने अत्यधिक बल प्रयोग कर आंदोलन को तो दबा दिया, पर वह जन भावनाओं को दबाने में सफल नहीं हो पाई। इस आन्दोलन से उत्पन्न चेतना के परिणामस्वरूप ही 1946 में जलसेना (नेवी) का विद्रोह हुआ, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन पर भयंकर चोट की। इस आन्दोलन तथा कुछ अन्य तत्वों के परिणामस्वरूप ही युद्ध के बाद अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में भारत के पक्ष में इतना अधिक लोकमत बना कि इंग्लैण्ड को विवश होकर भारत छोड़ना पड़ा।
जब महात्मा गांधी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ों' का आह्वान किया था तब भारत के राजनैतिक क्षितिज पर कैसा परिदृश्य था, इस पर विचार करना चाहिए। देश में हिन्दू-मुस्लिम तनाव चरम पर था। 'मुस्लिम लीग' ने पाकिस्तान बनाने का ध्येय 1940 के अंत में घोषित कर दिया था। सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू कट्टरपंथियों का एक धड़ा, जिसका प्रभाव बंगाल और सिंध में था, 'दो राष्ट्र के सिद्धांत' से सहमत था और 'द्वितीय विश्वयुद्ध' में ब्रिटेन का साथ देने सेना में भर्ती अभियान चला रहा था। संघ का विश्वास गांधीजी के अहिंसक अस्त्रों- सत्याग्रह, उपवास, रचनात्मक कार्यक्रम में नहीं था।
अंग्रेजी हुकूमत ने सितंबर 1939 में 'द्वितीय विश्वयुद्ध' के बादलों के मंडराते ही भारतीय नेताओं से परामर्श किए बगैर देश को युद्ध में शामिल कर दिया था। कांग्रेस इसके खिलाफ थी। वह चाहती थी कि अंग्रेजी हुकूमत युद्ध और शांति के अपने उद्देश्यों को, विशेष रूप से भारत के संदर्भ में स्पष्ट करे। इस पर वायसराय ने गोल-मोल जवाब दिया। कांग्रेस कार्यसमिति इससे संतुष्ट नहीं थी, फिर भी उसने देश के नागरिकों से सविनय अवज्ञा भंग जैसे कदम जल्दबाजी में नहीं उठाने का आग्रह किया।
युद्ध के समय कांग्रेस असमंजस में भी थी। उसकी सहानुभूति ब्रिटेन जैसे 'मित्र राष्ट्रों' के साथ थी और वह युद्ध प्रयत्नों में बाधा नहीं डालना चाहती थी। दूसरी ओर, गांधीजी युद्ध के ही खिलाफ थे। वे अहिंसा के अपने मूल सिद्धांत को त्यागने के लिए तैयार नहीं थे। गांधीजी ब्रिटिश हुकूमत को सशस्त्र और हिंसात्मक युद्ध में व्यवहारिक सहायता देने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन वे नैतिक समर्थन देने के पक्ष में थे। आम जनता में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति गुस्सा तो था, पर वह सरकार का विरोध करने के मूड में भी नहीं थी।
कांग्रेस और गांधीजी में 'असहयोग आंदोलन' शुरू करने को लेकर भी तीव्र मतभेद थे। कांग्रेस ने गांधीजी की सलाह के विरुद्ध, अंग्रेज हुकूमत से, युद्ध के बाद स्वतंत्रता दिए जाने के आश्वासन पर सशर्त सहयोग का प्रस्ताव रखा, लेकिन जब बात नहीं बनी तो वह पुन: गांधीजी की शरण में मार्गदर्शन के लिये आ गई। गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया और विनोबा भावे की गिरफ़्तारी 'प्रथम सत्याग्रही' के रूप में 21 अक्टूबर 1940 को हुई। सभी सत्याग्रहियों को सरकार ने गिरफ्तार तो किया, पर जैसे ही जापान ने लड़ाई में हिस्सा लिया और उसकी जीत का सिलसिला शुरू हुआ तो सत्याग्रही जेल से छोड़ दिए गए।
युद्ध-भूमि में जापानी हवाई जहाज भारतीय सीमा के आसपास चेन्नई से बंगाल तक मंडरा रहे थे। यह स्थिति सरकार और कांग्रेस के लिए चिंता का विषय थी। अन्तराष्ट्रीय जगत, खासकर अमेरिका के अखबारों में ब्रिटेन की भारत-नीति की कटु आलोचना हो रही थी। तभी 1942 में ब्रिटिश सरकार ने सर क्रिप्स के नेतृत्व में वार्ताकारों का एक दल भारत में कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेताओं से बातचीत के लिए भेजा। कांग्रेस को 'क्रिप्स मिशन' के प्रस्ताव स्वीकार नहीं थे क्योंकि इसमें भारतीयों को तत्काल उत्तरदायित्व सौंपने को लेकर कोई विचार नहीं था। गांधी जी ने 'क्रिप्स मिशन' को 'दिवालिया बैंक का पोस्ट डेटेड चेक' कहा था।
जब जापान तेजी से आगे बढ़ रहा था, अंग्रेज फौज देश की सीमाओं की सुरक्षा कर पाने में असमर्थ थी। सीमावर्ती इलाकों को जबरदस्ती खाली कराया जा रहा था। गांधीजी ने यह महसूस किया कि यदि जापानी सेना भारत में घुस आती है तो अंग्रेजों से त्रस्त जनता उन्हें अपना मुक्तिदाता मान बैठेगी और भारत अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर जापानियों का गुलाम बन जाएगा। गांधीजी के अनुसार अंग्रेजों के पास एक ही सम्मानजनक रास्ता बचा था-वे शांतिपूर्वक भारत को जनता के भरोसे छोड़कर चले जाएं, जनता स्वयं जापानियों से मुकाबला कर लेगी।
ऐसी परिस्थितियों में एक बार फिर कांग्रेस कार्यसमिति सक्रिय हुई और उसकी बैठक 27 अप्रैल 1942 को इलाहाबाद में गांधीजी की अनुपस्थिति में हुई। मीरा बहन की मार्फत गांधीजी द्वारा भेजा गया प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। कांग्रेस कार्यसमिति की 7 जुलाई 1942 को वर्धा में आयोजित बैठक में गांधीजी ने पुन: पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को दोहराया और बहुत मुश्किल से कार्यसमिति के सदस्यों को वे 'अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएं' की मांग मनवाने में सफल हुए। कांग्रेस के बड़े नेताओं का मानना था कि अव्वल तो अंग्रेज आसानी से भारत छोड़कर जाने वाले नहीं हैं और इस वक्त अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सत्याग्रह शुरू करने से भारत 'मित्र राष्ट्रों' की सहानुभूति खो देगा।
गांधीजी अपने अकाट्य तर्कों से नेहरूजी सहित सभी नेताओं को यह समझाने में सफल हुए कि उनके प्रस्ताव से ही साम्राज्यवादी हठधर्मी का, जो भारत को कठिन परिस्थितियों में जापान के हवाले कर देना चाहती है, मुकाबला किया जा सकता है। अंतत: कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से एक बार फिर अपने प्रिय नेता महात्मा गांधी का 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। सेवाग्राम में पारित प्रस्ताव के अनुरूप सात व आठ अगस्त को मुंबई में कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई।
महासमिति ने भारत की स्वतंत्रता को फौरन स्वीकार करने, एशिया तथा अफ्रीका की जनता को साम्राज्यवादी दासता से मुक्त करने, विभिन्न दलों के सहयोग से अस्थायी सरकार की स्थापना आदि प्रस्तावों को मंजूरी दी। गांधीजी ने जनता से 'करो या मरो' का आह्वान किया। दूसरे दिन पौ फटते तक गांधीजी सहित कांग्रेस के सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए।
'भारत छोड़ो आन्दोलन' को कुचल देने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। नेताओं की गिरफ़्तारी से जनता में विद्रोह की भावना भड़क उठी, देश भर में लगभग एक सप्ताह तक आम हड़ताल कर सारा कारोबार ठप्प कर दिया गया।
जनता भी नेतृत्वविहीन होने के बावजूद आंदोलन को सक्रियता से चला रही थी। अहिंसक सत्याग्रहियों पर पुलिस ने बहुत जुल्म ढाए, जेल में बंदकर उन्हें यातनाएं दी गई, स्त्रियों के साथ बलात्कार किए गए। महादेव देसाई और कस्तूरबा गांधी की जेल में मृत्यु हो गई। भारत मंत्री ने स्वीकार किया कि चार माह के अंदर ही हजार से ऊपर व्यक्ति पुलिस की गोली का शिकार हुए, लगभग चार हजार लोग पुलिस की मार से गंभीर रूप से घायल हुए।
पुलिस के आतंक ने प्रतिहिंसा को जन्म दिया। बड़े कांग्रेसी नेताओं के गिरफ्तार हो जाने और पुलिसिया आतंक के बावजूद यह आंदोलन डेढ़ वर्ष तक चलता रहा। भारत छोड़ो आन्दोलन अपने मूल लक्ष्य भारत से ब्रिटिश शासन की समाप्ति को तात्कालिक रूप से प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन इस आन्दोलन ने भारत की जनता में एक ऐसी अपूर्व जागृति उत्पन्न कर दी जिससे ब्रिटेन के लिए भारत पर लम्बे समय तक शासन कर सकना सम्भव नहीं रहा।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हुआ। सरकार ने अत्यधिक बल प्रयोग कर आंदोलन को तो दबा दिया, पर वह जन भावनाओं को दबाने में सफल नहीं हो पाई। इस आन्दोलन से उत्पन्न चेतना के परिणामस्वरूप ही 1946 में जलसेना (नेवी) का विद्रोह हुआ, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन पर भयंकर चोट की। इस आन्दोलन तथा कुछ अन्य तत्वों के परिणामस्वरूप ही युद्ध के बाद अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में भारत के पक्ष में इतना अधिक लोकमत बना कि इंग्लैण्ड को विवश होकर भारत छोड़ना पड़ा। इस प्रकार यह निश्चित तथ्य है कि भारत छोड़ो आन्दोलन ने भारतीय स्वतन्त्रता के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।
(लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)