जेल जाई पर वचन न जाई!
पूरा कानून बदल गया! पुलिस विज्ञापन देकर लाख कहती रहे कि सड़क पर किसी पीड़ित को देखकर उसकी मदद करें;
- शकील अख्तर
यह हद दर्जे का आश्चर्य है कि किसी पीड़ित की आवाज बनने के लिए किसी को और वह भी विपक्ष के नेता के घर पुलिस बड़ी तादाद में पहुंचे। अच्छा है जुल्म का घड़ा जल्दी भरना चाहिए। यह मामला कोर्ट में अच्छा रहेगा कि आपसे किसी ने अपना दर्द क्यों कहा? शायद पहले पीड़ित को सज़ा सुनाई जाए। मगर पीड़ित मिलेगा कैसे?
पूरा कानून बदल गया! पुलिस विज्ञापन देकर लाख कहती रहे कि सड़क पर किसी पीड़ित को देखकर उसकी मदद करें। पुलिस आपको परेशान नहीं करेगी। लेकिन पुलिस राहुल के घर पहुंच गई। राहुल ने सड़क पर उनकी यात्रा के दौरान मिलने आई महिलाओं की कुछ मदद भी नहीं की थी। क्योंकि वे महिलाएं ऐसा नहीं चाहती थीं। राहुल ने तो केवल यह बताया था कि महिलाओं की परेशानियां क्या हैं। जैसे वे सबकी बता रहे थे। युवा की, किसान की, मजदूर की, छोटे व्यापारियों की सबकी, पांच महीने चार हजार किलीमीटर की यात्रा के दौरान हजारों लोग उनसे मिले। पता नहीं कांग्रेस ने इस पर कुछ नोट्स तैयार किए, कुछ डाक्युमेंटेशन किया कि नहीं। मगर पुलिस ने कर लिया। पहले उसने राहुल को नोटिस दिया और रविवार को वह उनके घर पहुंच गई।
राहुल से महिलाओं ने कहा कि उनका नाम नहीं आना चाहिए। सही कहा। लड़कियां हमारे यहां अपने मां-बाप तक से यह कहती हैं कि कहना नहीं किसी को। नहीं तो और मुसीबत बढ़ेगी। सही है। इंसान कई बार अपना मन हल्का करने के लिए किसी से कहता है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि उसे पकड़ लिया जाए कि बताओ उसने क्या कहा?
सरकार हर तरह से राहुल को घेर रही है। उसका हौसला इसलिए बढ़ रहा है कि उसने विपक्ष को विभाजित करने में सफलता पा ली है। ममता बनर्जी के बाद अखिलेश यादव भी खुल कर कांग्रेस के विरोध में आ गए हैं। और इस समय सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस का विरोध करने का मतलब प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन है। दोनों से समान दूरी का मतलब जनता खूब समझती है कि सत्ता पक्ष से यारी। विपक्ष के खतरे भरी राह से दूर रहने की तैयारी।
अखिलेश यादव उन युवा नेताओं में से हैं जिनके लिए जौक साहब का यह शेर आ गया कि -
'फूल तो दो दिन बहारें जां फिजा दिखला गए,
हसरत उन गुंचों पर है जो बिन खिले मुरझा गए!'
राजनीति का आधार होता है। पहले वैचारिक होता था। अब क्षेत्रीयता और जातिगत आधार भी होने लगा। क्षेत्रीय पार्टियों का फिर भी कुछ भविष्य है मगर जातिगत आधार पर चलने वाली पार्टियों के अब खत्म होने का समय आ गया। पहले मायावती की बसपा खत्म हुई और अब अखिलेश यादव की सपा खत्म होने की कगार पर है। मायावती ने तो फिर भी राजनीति का शिखर देख लिया चार बार मुख्यमंत्री रहीं। जब अमेरिका में पहले ब्लैक प्रेसिडेन्ट बने बराक ओबामा तो भारत में पहले दलित प्रधानमंत्री की चर्चा शुरू हुई और उसके लिए एक और केवल एक नाम चर्चा में घूमा। वह था बसपा अध्यक्ष बहन मायावती जी का। मायावती उन दिनों संघर्ष का प्रतीक थीं।
कोशिश तो उन दिनों दूसरे दलित नेता रामविलास पासवान ने भी बहुत की। मीडिया उनके साथ था। मीडिया को पासवान हमेशा खुश रखते थे। वे एकमात्र ऐसे नेता थे जो एडिटर, रिपोर्टर और डेस्क हर जगह अपने संपर्क बनाकर रखते थे। अब यह न पूछिए कैसे? मगर मीडिया मैनेजमेंट के कलाकार थे। लेकिन इस मामले में उनकी कलाकारी काम नहीं आई क्योंकि लोग लड़ता हुआ नेता ही देखना चाहते हैं। ऐसे नेता का तेज ही अलग होता है।
राहुल गांधी आज अपने संघर्ष की वजह से ही सत्ता पक्ष की आंख की किरकिरी बने हुए हैं। उनका लगातार लड़ते रहना ही तो भाजपा को पसंद नहीं आ रहा। वरना मायावती, अखिलेश, ममता बनर्जी से तो किसी को कोई शिकायत है नहीं। ये तो क्लास के डिसिप्लिन्ड स्टूडेंट हैं। शिकायत तो राहुल, लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी, स्टालिन से है। जो काबू में नहीं आ रहे। सवाल पूछते हैं। जनता की आवाज उठाते हैं।
लालू से बीमारी की अवस्था में जांच एजेंसियों ने लंबी पूछताछ की। और अब राहुल के घर पुलिस पहुंचा दी। किस आरोप में कि उन्होंने महिलाओं की उस पीड़ा को कहा है जो वे खुद परिवार समाज के डर से व्यक्त नहीं कर पातीं। यात्रा के दौरान मिली महिलाओं ने राहुल से अपने दिल की बात कही। और ये ऐसी बात नहीं है कि किसी को नहीं मालूम। ऊपर से नीचे तक हमारे यहां महिलाओं पर होने वाले घरेलू अत्याचार की कहानियां भरी पड़ी हैं। अखबारों में भी कुछ आती हैं। साहित्य में भी आती हैं।
प्रेमचन्द ने उस समय लिखा था बेटों वाली विधवा कहानी में कि एक औरत किस तरह उस घर में अपमान झेलती है जिसे उसने बनाया हो। राहुल ने यही कहा। देश के बाकी वर्गों का दु:ख-दर्द जिस तरह बता रहे थे। उसी तरह महिलाओं का बताया। ओपन सिक्रेट। अब पुलिस उनसे पूछ रही है कि महिलाओं के नाम बताइए। कैसा सवाल है? जो महिला आपसे विश्वास में अपना दुख कहकर मन हल्का कर रही है उसका नाम पहचान कोई बता सकता है। उसे और मुसीबत में डालने के लिए! राहुल ने कहा था कि मैंने महिलाओं से कहा कि मैं कुछ करूं। मगर जैसा कि संभावित था उन्होंने मना कर दिया। उन्हें उसी घर में रहना था। उनकी समस्याएं और बढ़तीं। और यह पंक्तियां पढ़ने वाला हर आदमी जानता होगा कि उससे भी कभी किसी ने अपना दु:ख- दर्द कहा हो और किसी को बताने के लिए मना किया हो।
यह हद दर्जे का आश्चर्य है कि किसी पीड़ित की आवाज बनने के लिए किसी को और वह भी विपक्ष के नेता के घर पुलिस बड़ी तादाद में पहुंचे। अच्छा है जुल्म का घड़ा जल्दी भरना चाहिए। यह मामला कोर्ट में अच्छा रहेगा कि आपसे किसी ने अपना दर्द क्यों कहा? शायद पहले पीड़ित को सज़ा सुनाई जाए। मगर पीड़ित मिलेगा कैसे? राहुल तो उसका नाम बताएंगे नहीं। बताना भी नहीं चाहिए। हम छोटे पत्रकार भी जब कोई हमें कुछ बताने के बाद कहता है कि उसका नाम नहीं आना चाहिए। तो हम भी नहीं बताते हैं। फिर राहुल के बताने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। मगर क्या यह मजेदार नहीं है कि पुलिस और अदालत क्या यह नहीं जानते कि देश में अलग-अलग नामों की, अलग जाति धर्म से आई, अलग सामाजिक, आर्थिक वर्ग की कितनी महिलाएं हैं जिनकी एक जैसी कहानियां हैं। घरेलू, पारिवारिक अत्याचार की। और यह बात किसी समाजशास्त्री या मनोविशेषज्ञ के बताने की जरूरत नहीं है सब जानते हैं कि महिलाओं के पास एक अन्तरदृष्टि होती है। सिक्स्थ सेंस। वे पहचान जाती हैं कि किस पर विश्वास किया जा सकता है। यात्रा के दौरान राहुल से हर उम्र की महिलाएं मिल रही थीं। विश्वास में अपनी बात कह रही थीं।
अब चाहे पुलिस पूछे, चाहे देश की सर्वोच्च अदालत, राहुल ने जो वचन जिस को दिया है वह तो तोड़ेंगे नहीं। उनसे किसी का नाम निकलवाकर उसे जलील नहीं किया जा सकता।
सब जानते हैं कि वे विष ग्रहण कर लेंगे। इस हलाहल को पी लेंगे। पहले भाजपा ने कहा माफी मांगो! मगर राहुल माफी मांगने वालों में से नहीं हैं। तो अब पुलिस कह रही है कि दुखियारी महिलाओं के नाम बताओ। मगर हमारी जो समझ है, राहुल को और इस परिवार को जितना जानते हैं उसके आधार पर इतना कह सकते हैं कि राहुल से अगर किसी ने विश्वास में कुछ कहा है तो राहुल विश्वासघात नहीं कर सकते।
जेल जाई पर वचन न जाई!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)