कैसे करें किसानी

कई राज्यों में भारी बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की खड़ी फसल को हाल में काफी नुकसान पहुंचाया है;

Update: 2024-05-27 00:40 GMT

- पवन नागर

अपनी खेती की ज़मीन को बचाना है तो प्रयास करना होगा। चुनावी घोषणाओं की गारंटी और मौसम का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए मुगालते में न रहें। किसानों की एकजुटता और बहुफसली प्रणाली ही समस्या का समाधान है। गेहूं और धान के अधिकाधिक उत्पादन से समस्या और विकराल हो जाएगी, इसलिए समय रहते इन फसलों का रकबा कम करते जाएं और अन्य फसलों का रकबा बढ़ाते जाएं।

कई राज्यों में भारी बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की खड़ी फसल को हाल में काफी नुकसान पहुंचाया है और मौसम विभाग के अनुसार अभी आगे भी मौसम के तेवर यूं ही सख्त बने रहने की संभावना है। भले ही किसानों को 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' (एमएसपी) का कानून न मिले, भले ही खराब हुई फसलों का मुआवजा न मिले, परंतु किसानों को सरकार और मौसम की मार मिलना तय है। किसानों पर दोहरी मार पड़ने की परंपरा बहुत पुरानी है। एक तो फसलों के सही दाम नहीं मिलते और ऊपर से अब तो लगभग हर साल ही मौसम की मार किसानों को झेलनी पड़ रही है।

देश में महंगाई का बोलबाला है, परंतु किसानों की फसलों के दाम वैसे नहीं बढ़ते जैसे सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते और सैलरी बढ़ती है, जैसे देश के माननीय सांसदों और विधायकों की सैलरी बढ़ती है? आखिर देश के करोड़ों लोगों का पेट और व्यापारियों के वेयर हाऊस भरने वाले किसानों को अपनी उपज का दाम मिलने में इतनी परेशानी क्यों है? क्या कारण है कि सरकार इनको 'एमएसपी' भी नहीं दे पा रही है? एक तरफ तो सरकार कह रही है कि किसानों की आमदनी दुगुनी हो गई है, दूसरी तरफ उन्हें 6000 रुपये सालाना 'किसान सम्मान निधि' भी दी जा ही है।

जब सरकार को किसानों की इतनी ही चिंता है तो फिर 'स्वामीनाथन आयोग' की रिपोर्ट के अनुसार 'एमएसपी' पर 'सी 2+50फीसदी' फॉर्मूले के मुताबिक 'एमएसपी' क्यों नहीं दे देती? यदि इस हिसाब से किसानों को अपनी फसल के दाम मिलने लगेंगे तो किसानों को 'किसान सम्मान निधि' की ज़रूरत ही नहीं पड़़ेगी। 'स्वामीनाथन आयोग' की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार को 'एमएसपी' को उत्पादन की औसत लागत से कम-से-कम 50प्रतिशत अधिक बढ़ाना चाहिए। इसे 'सी2+50प्रतिशत' फॉर्मूले के नाम से भी जाना जाता है। इस फॉर्मूले में किसानों को 50प्रतिशत रिटर्न देने के लिए पूंजी की अनुमानित लागत और भूमि का किराया (जिसे सी-2 कहा जाता है) शामिल है।

यदि सरकार चौधरी चरण सिंह जी और स्वामीनाथन जी को भारतरत्न दे सकती है तो फिर किसानों को उन्हीं की रिपोर्ट के अनुसार 'एमएसपी' क्यों नहीं दे सकती? आश्चर्य की बात तो यह है कि चुनाव के समय में भी सरकार की तरफ से कोई नरमी नहीं बरती जा रही। इस बार के चुनावी अंतरिम बजट में सभी वर्गों एवं किसानों को बड़ी उम्मीदें थीं, परंतु किसी को कुछ हाथ नहीं लगा। उल्टा कृषि बजट में कटौती कर दी गई। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने हेतु बजट में कोई प्रावधान नहीं रखे गए।
प्रश्न उठता है कि देश के किसानों के हालातों में कैसे सुधार आएगा? एक तरफ किसानों की लागत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, लागत के अनुपात में फसलों के दाम नहीं मिल रहे, वहीं दूसरी तरफ मौसम के कारण फसलों को जो नुकसान होता है उसका मुआवज़ा और बीमा भी समय पर नहीं मिलता। किसानों की परेशानी कम होने का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा है। किसानों को बीमा तथा मुआवजा समय पर मिलें, इसके लिए भी ठोस कदम उठाना चाहिए। दृढ़ निश्चय, ईमानदारी और सही नीयत के साथ यदि काम किया जाएगा तो इस कार्य को करने में कोई कठिनाई नहीं है।

दूसरी ओर किसानों को भी प्रयास करना चाहिए कि वे एकल फसल पद्धति छोड़कर अन्य फसलों का भी रकबा बढ़ाएं, ताकि उत्पादन को नियंत्रित करके फसलों के सही दाम लिए जा सकें। इसे हम एक उदाहरण से समझते हैं। मान लेते हैं कि एक 5 एकड़ का किसान रबी सीज़न में गेहूं की फसल से 100 क्विंटल उत्पादन लेता है, जबकि खरीफ सीज़न में धान लगाकर 75 क्विंटल उत्पादन लेता है। दोनों फसलों से किसान को 175 क्विंटल उत्पादन प्राप्त हुआ। अब किसान के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं है, इसलिए यह माल बेचना उसकी मजबूरी हो जाएगी। यदि किसान इस 5 एकड़ में रबी सीजऩ में सरसों, चना, मसूर,अलसी, जौ, धनिया इत्यादि फसलों का रकबा बढ़ा दे और गेहूं सिर्फ एक एकड़ में लगाए तो उसको सिर्फ 20 क्विंटल गेहूं मिलेगा। बाकी 4 एकड़ में दूसरी फसलों से उसे उसकी ज़रूरत का सामान भी मिलेगा और गेहूं की अपेक्षा अधिक दाम भी मिलेगा, खर्च भी कम होगा और मजबूरी में बेचने की समस्या से भी निजात मिलेगी। किसान ने हर फसल का सीमित उत्पादन किया है जिसे वह साल भर अपने हिसाब से बेच सकता है।

इन फसलों के अलावा भी बहुत सारी फसलें हैं जिन्हें अपने खेत में लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर, यदि अधिक-से-अधिक फसलें अपने खेत में उत्पादित करें तो सरकारों और व्यापारियों के आगे हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। दो एकड़ से लेकर 15 एकड़ वाले छोटे किसान यह कर सकते हैं कि वे अपनी ज़मीन में अपनी ज़रूरत की सभी चीज़ों का थोड़ा-थोड़ा उत्पादन लें और सीधे ग्राहकों को बेचें। सरकार और व्यापारियों के भरोसे खेती न करें, बल्कि अपने ग्राहकों के भरोसे खेती करें। सरकार चाहे 'एमएसपी' की गारंटी न दे, परंतु यदि आप अपने ग्राहकों को भरोसे की गारंटी देने में कामयाब हो गए तो आपको कर्ज से भी मुक्ति मिलेगी और मंडियों के चक्करों से भी। काम कोई ज़्यादा कठिन नहीं है, बस अपनी पढ़ाई-लिखाई का इस्तेमाल करके योजनाबद्ध तरीके से काम करने से इस समस्या का हल निकल आएगा।

यदि आपको अपनी खेती की ज़मीन को बचाना है तो प्रयास करना होगा। चुनावी घोषणाओं की गारंटी और मौसम का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए मुगालते में न रहें। किसानों की एकजुटता और बहुफसली प्रणाली ही समस्या का समाधान है। गेहूं और धान के अधिकाधिक उत्पादन से समस्या और विकराल हो जाएगी, इसलिए समय रहते इन फसलों का रकबा कम करते जाएं और अन्य फसलों का रकबा बढ़ाते जाएं। पहले अपने परिवार का पेट भरने के बारे में सोचें, न कि सरकार और व्यापारियों के वेयरहाउस भरने का। इसी तरीके से जलवायु तथा मौसम में हो रहे बदलाव के प्रति अनुकूलित हुआ जा सकता है।

(लेखक कृषि परिवर्तन 'त्रैमासिक पत्रिका' के संपादक हैं। )

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