ललित सुरजन की कलम से- संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति
'मोदी सरकार का लगभग ढाई साल का कामकाज जनता के सामने है। आज आवश्यकता उसके विभिन्न बिन्दुओं पर तर्कसम्मत ढंग से विचार करने की है;
'मोदी सरकार का लगभग ढाई साल का कामकाज जनता के सामने है। आज आवश्यकता उसके विभिन्न बिन्दुओं पर तर्कसम्मत ढंग से विचार करने की है। इसी तरह राज्यों में जो प्रवृत्तियां पनप रही हैं उनका भी अध्ययन और विश्लेषण होना चाहिए।
देश के सामने बहुत से सवाल मुंह बाए खड़े हैं। अभी सातवां वेतनमान लागू हो रहा है। इसका क्या असर महंगाई और मुद्रास्फीति पर पड़ेगा? रुपए का और अवमूल्यन करने की वकालत एक वर्ग लगातार कर रहा है उसमें किसका स्वार्थ सिद्ध होगा? स्त्रियों पर अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं, दलितों का आक्रोश दिनोंदिन बढ़ रहा है, आदिवासी, भूमिहीन कृषक, खेतिहर मजदूर उनके सामने अस्तित्व को बचाने का संकट है, अल्पसंख्यकों पर निरंतर हमले हो रहे हैं, कश्मीर का कोई समाधान सामने दिखाई नहीं देता।'
'यह पहली बार हुआ कि गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री ने भागीदारी नहीं की। उज्बेकिस्तान के राष्ट्रपति का निधन हुआ तो भारत सरकार ने कोई भी नुमाइंदा अन्त्येष्टि में नहीं भेजा जबकि साल भर पहले ही प्रधानमंत्री उज्बेकिस्तान होकर आए थे। अमेरिका के प्रति झुकाव स्पष्ट दिख रहा है, लेकिन अमेरिका और चीन के साथ संबंधों में संतुलन कैसे साधा जाए तथा रूस के साथ दोस्ती को कैसे प्रगाढ़ किया जाए यह अभी शायद समझ नहीं आ रहा है।'
'देश के भीतर और बाहर दोनों मोर्चों पर इतने सारे पेचीदा मसले सामने हैं, लेकिन धिक्कार है उन पर जो इस सबके बीच संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति में डूबे हुए हैं।'
(देशबन्धु में 22 सितंबर 2016 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2016/09/blog-post_22.html