ललित सुरजन की कलम से - पन्द्रह मिनट की बहस

'निर्वाचित सदनों की कार्यप्रणाली पर विगत तीन दशकों के दौरान लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं;

Update: 2024-08-02 06:02 GMT

'निर्वाचित सदनों की कार्यप्रणाली पर विगत तीन दशकों के दौरान लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं। ये हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे, इनकी विश्वसनीयता क्षीण होती गई है और इनकी कार्यप्रणाली को लेकर प्रबुध्द वर्ग ही नहीं, आम जनता में भी गहरा असंतोष पनपने लगा है। हम जब सांसदों और विधायकों को चुनते हैं तो उनसे सहज उम्मीद करते हैं कि वे सदन में जन आकांक्षाओं को वाणी देंगे तथा देश-प्रदेश की प्रगति के लिए ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य निभाएंगे, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है।

साल दर साल सत्र छोटे होते गए हैं, बैठकों के दिनों में कटौती होती गई है और जितने दिन सदन बैठता है उसका एक बड़ा हिस्सा निरर्थक बहसों और अवांछनीय दृश्यों में चला जाता है। तिस पर यह विरोधाभास कि सांसद और विधायक अपने लिए सुविधाएं साल-दर-साल बढ़ाते गए हैं। गोया, जिस जनता ने उन्हें चुनकर भेजा है उसके प्रति अब उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।'

(देशबन्धु में 13 सितम्बर 2012 को प्रकाशित )

https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/09/blog-post_12.html

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