ललित सुरजन की कलम से- शिक्षक राष्ट्रपति, शिक्षक प्रधानमंत्री
'प्रधानमंत्री ने अपने एकपक्षीय व्याख्यान में गुरु-शिष्य परंपरा का बखान किया। यह उस युग की बात है जब गुरु का पद उसी को मिलता था जो प्रभुतासम्पन्न समाज के बच्चों को पढ़ा सके;
'प्रधानमंत्री ने अपने एकपक्षीय व्याख्यान में गुरु-शिष्य परंपरा का बखान किया। यह उस युग की बात है जब गुरु का पद उसी को मिलता था जो प्रभुतासम्पन्न समाज के बच्चों को पढ़ा सके।
आखिरकार द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपनी कक्षा में बैठाने से साफ-साफ इंकार कर दिया था। और सांदीपनि की कक्षा में सुदामा सिर्फ इसलिए पढ़ पाए क्योंकि वे द्विज थे। आज की स्थिति तो और बदतर है। आज से लगभग तीस साल पहले वर्ल्ड बैंक के इशारे पर जब नियमित शिक्षकों की भर्ती पूरे देश में बंद कर दी गई और उनका स्थान तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया तब से शिक्षा व्यवस्था निरंतर रसातल को जा रही है। आज किसी प्रदेश सरकार के पास यह अधिकार भी नहीं है कि वह शासकीय शालाओं में पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति कर सके।'
'प्रथम जैसी संस्था द्वारा जो एसीईआर (असर) रिपोर्ट प्रकाशित होती है वह सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का बयान तो करती ही है, लेकिन दुर्दशा के कारणों पर मौन रहती है। बात साफ है। हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था पूंजीपतियों के हाथों में सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। देश भर में महंगे से महंगे निजी स्कूल जिन्हें न जाने क्यों पब्लिक स्कूल कहा जाता है, खुल रहे हैं। मुंबई स्थित धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल इसका ज्वलंत उदाहरण है। कुछ समय बाद होगा यह कि साधनहीन बच्चों को पढऩे के अवसर ही नहीं होंगे, उनकी शालाएं बंद हो जाएंगी; जो मुंहमांगी फीस देकर पढ़ सकेंगे स्कूल उनके लिए ही होंगे और तब देश में फिर से गुरु-शिष्य परंपरा स्थापित होगी। द्रोणाचार्य पढ़ाएंगे और उनके छात्रों में सौ कौरव होंगे और पांडव सिर्फ पांच।'
(देशबन्धु में 10 सितम्बर 2015 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/09/blog-post_12.html