ललित सुरजन की कलम से- काली कमाई के कुछ ठिकाने
'क्या यह सोचना गलत है कि भ्रष्टाचार का, कालेधन के उत्पादन का मुख्य स्रोत तो सरकारी दफ्तर ही है;
'क्या यह सोचना गलत है कि भ्रष्टाचार का, कालेधन के उत्पादन का मुख्य स्रोत तो सरकारी दफ्तर ही है। यह सच है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती, लेकिन ताली बजाने के लिए हाथ पहिले कौन बढ़ाता है? अगर रिश्वत देने वाले ने पहल की है तो लेने वाले अपना हाथ खींच क्यों नहीं लेते? अंग्रेजों के समय में भी बड़े लाट, छोटे लाट, कलेक्टर, एसपी, सबके बंगलों पर दीवाली-ईद डालियाँ पहुंचती थीं।
वे आज भी बदस्तूर जारी हैं। यह हमारी व्यवस्था है जिसमें एक ईमानदार व्यक्ति भी बेईमान की संपत्ति की रक्षा करने तैयार हो जाता है। प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' याद कीजिए।
देश को स्वाधीनता मिलने के बाद जो नवनिर्माण का महत्तर काम प्रारंभ हुआ, जब नए-नए कल-कारखाने, बांध-पुल और सडक़ें बनाना प्रारंभ हुआ, अनेकानेक विकास योजनाएं प्रारंभ हुई, उसके चलते देश की नौकरशाही, लालफीताशाही और अधिक शक्तिशाली हुई।
जिन लोगों ने स्वाधीनता के लिए अपना जीवन होम कर दिया, जिन्होंने नए भारत का सपना दिखाया, वे तो समय के साथ इतिहास के पन्नों में खो गए। उनके बाद राजनेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों की नई पीढ़ी आई, उसके सामने पैसा कमाने के सिवाय और कोई वृहत्तर लक्ष्य नहीं था। नरेन्द्र मोदी क्या इस दारुण सच्चाई से अवगत नहीं हैं? वे तो संघ के कार्यकर्ता रह चुके हैं। फिर उन्होंने काले धन की इस खदान को बंद करने के बारे में क्यों विचार नहीं किया?'
(देशबन्धु में 08 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित)
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