नये भाजपा अध्यक्ष के चयन में और देरी संभव

4 जुलाई से दिल्ली में तीन दिवसीय भारतीय प्रांत प्रचारक बैठक का आयोजन बहुत महत्वपूर्ण हो गया है;

By :  Deshbandhu
Update: 2025-07-02 21:44 GMT

- अरुण श्रीवास्तव

4 जुलाई से दिल्ली में तीन दिवसीय भारतीय प्रांत प्रचारक बैठक का आयोजन बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन दो वर्षों के दौरान आरएसएस ने अखिल भारतीय प्रांत प्रचारक की एक दर्जन से अधिक बैठकें की हैं। हर बैठक में अपनी पसंद का नया अध्यक्ष चुनने का मुद्दा गूंजा। यह बैठक अलग प्रकृति की होगी, जिसका स्वरूप अलग होगा। यह आरएसएस की बैठक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2025 में दशहरा के दिन अपना शताब्दी वर्ष मनायेगा। अधिकांश संगठन तो अपनी शताब्दी के करीब पहुंचने से पहले ही पतन की ओर अग्रसर हो जाते हैं या यहां तक कि विघटित हो जाते हैं। परन्तु आरएसएस अपनी राजनीतिक शाखा भाजपा के माध्यम से भारत पर शासन कर रहा है।

लेकिन शताब्दी वर्ष के शुभ अवसर पर इसके सरसंघचालक मोहन भागवत ने विडंबनापूर्वक संगठन पर अपना अधिकार और नियंत्रण खो दिया है। जहां पिछले सरसंघचालकों के शब्दों को भगवा पारिस्थितिकी तंत्र ने आज्ञाओं की तरह माना, वहीं शताब्दी वर्ष में भागवत के उपदेशों को कोई नहीं मानता। यह अब कोई रहस्य नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने जानबूझ कर और योजनाबद्ध तरीके से उनकी छवि और विश्वसनीयता को कम किया है। अपने शासन के ग्यारह वर्षों के दौरान, आरएसएस प्रचारक मोदी ने आरएसएस मुख्यालय में भागवत से केवल एक बार मुलाकात की। इसका मतलब साफ है कि उन्होंने भागवत के सुझावों और सलाह की परवाह नहीं की। आरएसएस और खासकर भागवत भाजपा के नये राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में आरएसएस नेता के लिए जोर दे रहे हैं। लेकिन मोदी का उनके निर्देश की अनदेखी करना उनके तिरस्कार का स्पष्ट प्रमाण है।

वास्तव में पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने 2024 में ही लोकसभा चुनाव से काफी पहले यह कहकर इस अनादर को प्रकट कर दिया था कि 'भाजपा को आरएसएस की जरूरत नहीं हैÓ। जब से नड्डा ने 2023 में अपना कार्यकाल पूरा किया है, तब से भागवत पार्टी प्रमुख के रूप में आरएसएस नेता के लिए जोर दे रहे हैं। लेकिन नड्डा की औपचारिक सेवानिवृत्ति के ढाई साल बाद भी, उनका भाजपा अध्यक्ष के रूप में कार्य करना जारी है। कारण साफ है। मोदी को एक ऐसे अनुचर की जरूरत है जो उनके आदेशों का पालन करे। उन्हें समानांतर सत्ता केंद्र पसंद नहीं है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में आरएसएस नेता उनके वर्चस्व के लिए संभावित खतरा साबित हो सकते हैं। यही कारण है कि मोदी जानबूझ कर उनकी दलीलों को नजरंदाज कर रहे हैं।

गोवा में भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में जब मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया था, तब भगवा कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच मोदी की राष्ट्रीय अपील और लोकप्रियता नहीं थी। लालकृष्ण आडवाणी के साथ भागवत ने उन्हें आगे बढ़ाया। निर्वाचित होने के बाद मोदी का पहला काम आडवाणी को अलग-थलग करना और उन्हें निष्क्रिय बनाना था। लेकिन उस समय भागवत को हटाने या अलग-थलग करने की हिम्मत वे नहीं कर पाये, क्योंकि वे आरएसएस प्रमुख थे। एक सुनियोजित चाल के तहत उन्होंने उन्हें नजरंदाज करना शुरू कर दिया, जिससे यह संदेश गया कि भागवत भाजपा के लिए किसी काम के नहीं हैं। मोदी ने भगवा पारिस्थितिकी तंत्र के अंदर सफलतापूर्वक ऐसी स्थिति बना दी, जहां भागवत की सलाह अवांछित थी। 2023 में ही आरएसएस के कई शीर्ष नेताओं ने भागवत को आगाह किया था और उनसे सख्ती बरतने को कहा था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने की हिम्मत नहीं की। मोदी जहां खुद को भाजपा और भारत के लिए राजनीतिक रूप से अपरिहार्य साबित करने पर तुले हुए हैं, वहीं भागवत हिंदू और हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने में आरएसएस की अजेयता को प्रदर्शित करने का प्रयास कर रहे हैं।

इसे समझने के लिए हाल ही में हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों के विश्लेषण से अधिक उपयुक्त तरीका और कुछ नहीं हो सकता। जहां मोदी और उनके सहयोगियों ने इन राज्यों में भाजपा की जीत को मोदी के करिश्मे से जोड़ा, वहीं आरएसएस ने दावा किया है कि इन चुनावी जीत का श्रेय आरएसएस के कार्यकर्ताओं को जाता है।

मोदी और भागवत के बीच ताजा सत्ता संघर्ष बिहार की मतदाता सूची संशोधन के मामले में सामने आया है। आरएसएस ने मोदी के कदम का सार्वजनिक रूप से विरोध नहीं किया है, लेकिन वह इसका समर्थन भी नहीं करता है। मोदी ने पहले ही बिहार में इस योजना को बड़े जोर-शोर से शुरू कर दिया है। आरएसएस नेताओं के अनुसार भी इस कदम का शिकार ईबीसी और दलितों की बड़ी आबादी होगी, जो आरएसएस के निशाने पर हैं। यह लगातार इन वर्गों को यह विश्वास दिलाता रहा है कि वे हिंदू हैं। गांवों में जाकर गणना करने वाले लोग उनके मूल निवासी होने के दावों के प्रमाण के रूप में मूल जन्म प्रमाण पत्र मांग रहे हैं।

यह एक खुला रहस्य है कि इनमें से एक बड़ी आबादी के पास अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। जाहिर है कि उन्हें अपनी राष्ट्रीय पहचान खोने का खतरा है। एक बार जब उन्हें राष्ट्रीयता से वंचित कर दिया जाता है, तो उन्हें वोट देने का अधिकार भी स्वत: ही छीन लिया जायेगा। यह स्पष्ट है कि मोदी अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए ऐसा कर रहे हैं। हाल ही में हुए चुनावों में उनकी निष्ठा बदली हुई, इंडिया ब्लॉक के पक्ष में दिखी जिससे मोदी को यह कड़ा संदेश गया है कि दलित और ईबीसी उन्हें पसंद नहीं करते हैं।

मोदी का यह चुनावी कदम उन्हें मध्यम वर्ग पर अधिक ध्यान केंद्रित करने और उनके बीच अपने समर्थन आधार को मजबूत करने में मदद करेगा। लेकिन इससे आरएसएस के राजनीतिक हित खतरे में पड़ जायेंगे, जो उन्हें हिंदू के रूप में पहचानने की कोशिश कर रहा है। इसका भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आरएसएस की योजना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सूत्रों का कहना है कि आरएसएस शताब्दी समारोह के दौरान अपनी योजना की घोषणा करने के लिए दृढ़ था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि वह कुछ और समय के लिए अपने फैसले को रोक देगा।

इस पृष्ठभूमि में 4 जुलाई से दिल्ली में तीन दिवसीय भारतीय प्रांत प्रचारक बैठक का आयोजन बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन दो वर्षों के दौरान आरएसएस ने अखिल भारतीय प्रांत प्रचारक की एक दर्जन से अधिक बैठकें की हैं। हर बैठक में अपनी पसंद का नया अध्यक्ष चुनने का मुद्दा गूंजा। यह बैठक अलग प्रकृति की होगी, जिसका स्वरूप अलग होगा। यह आरएसएस की बैठक है, लेकिन विश्वसनीय सूत्रों का मानना है कि भाजपा के कुछ शीर्ष नेता इस बैठक में भाग ले सकते हैं और अध्यक्ष चयन के मुद्दे पर आरएसएस पदाधिकारियों के साथ चर्चा कर सकते हैं। इन सूत्रों के अनुसार मोदी और अमित शाह ने आरएसएस नेतृत्व, खासकर भागवत को बिहार विधानसभा चुनाव तक मौजूदा व्यवस्था जारी रखने के लिए कहा है। मोदी ने चुनाव के लिए एक योजना तैयार की है और किसी भी संगठनात्मक विवाद से भाजपा के चुनावी हित प्रभावित होंगे, जो बदले में आरएसएस के दीर्घकालिक राजनीतिक हित को नुकसान पहुंचायेगा।

बिहार और बंगाल के कुछ क्षेत्रीय नेताओं की गुटबाजी और संभावित खतरे से पार्टी कमजोर होगी। इन राज्यों में आरएसएस के प्रभावी हस्तक्षेप को ध्यान में रखते हुए शताब्दी समारोह की योजना बनायी गयी है। उन्होंने आशंका जताई है कि भगवा ब्रिगेड असम पर अपनी पकड़ खो सकती है, जिससे पूर्व और उत्तर पूर्व में पार्टी की संगठनात्मक प्रभावशीलता प्रभावित हो सकती है। उनका तर्क है कि नये अध्यक्ष के लिए बिहार और बंगाल में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर उभरने वाली चुनौतियों का सामना करना मुश्किल होगा। चुनौतियों का सामना करने के लिए, भाजपा ने संगठनात्मक बदलाव करने, मौजूदा राष्ट्रीय महासचिवों में से आधे को बदलने और महत्वपूर्ण पदों पर युवा नेतृत्व लाने की योजना बनाई है।

Full View

Tags:    

Similar News