जल संकट को कैसे दूर कर सकते हैं?

गर्मी के मौसम की शुरूआत से ही पानी की समस्या की खबरें आने लगी हैं। यह संकट साल दर साल बढ़ता जा रहा है। अब यह मौसमी नहीं, स्थायी हो गया है;

Update: 2025-03-01 09:05 GMT

- बाबा मायाराम

हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना या अनियमित होना। भूजल बरसों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। यानी ऊर्जा का संकट भी है।

गर्मी के मौसम की शुरूआत से ही पानी की समस्या की खबरें आने लगी हैं। यह संकट साल दर साल बढ़ता जा रहा है। अब यह मौसमी नहीं, स्थायी हो गया है। यह समस्या प्रकृति से तो जुड़ी है, पर कुछ हद तक मानवनिर्मित भी है। आज इस कॉलम में पानी की समस्या पर विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा, जिससे इसे समग्रता से समझा जा सके।

हम देख रहे हैं कि बहुत ज्यादा लंबा अरसा नहीं हुआ, जब मध्यप्रदेश में बहुत समृद्ध वन हुआ करते थे। सदानीरा नदियां थीं। गांव में कुएं, तालाब, बावड़ियां थीं। नदी-नालों में पानी की बहुतायत थी। वर्षा जल को छोटे-छोटे बंधानों में एकत्र किया जाता था, जिससे सिंचाई, घरेलू निस्तार और मवेशियों को पानी मिल जाता था। किसान पहले बैलों से चलने वाली मोट से सिंचाई करते थे।

गांव में कच्चे मिट्टी के घर होते थे। घर के आगे-पीछे काफी जगह होती थी। खेती किसानी के काम में घरों में बड़ा आंगन होता था। घर के पीछे सब्जी-बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियां लगाई जाती थी। मुनगा, आम, अमरूद, नींबू के पेड़ होते थे। भूमि की सतह का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था। यानी भूजल ऊपर आता था।

छुटपन में हमारे घर कुएं से पानी आता था। हम नदी में नहाने जाते थे। वहीं मवेशी भी पानी पीते थे। वहां तरबूज-खरबूज की खेती होती थी। मछुआरे मछली पकड़ते थे। कम पानी वाली फसलें होती थी या बिना सिंचाई के भी फसलें हुआ करती थी। बिर्रा (गेहूं और चना मिलवां) खेती होती थी। अरहर, ज्वार होती थी। उड़द-मूंग व कोदो कुटकी होती थी।

मवेशियों को चरने के लिए जंगल व परती जमीन हुआ करती थी। लम्बे घास के मैदान हुआ करते थे। नदी के किनारे भी काफी जगह होती थी, वहां मवेशी चरते और पेड़ों की छाया में बैठते थे।

लेकिन अब जंगल कम हो गए हैं, पेड़ कटते जा रहे हैं, परती जमीन भी दिखाई नहीं देती है। यहां सतपुड़ा पहाड़ों से निकलने वाली नदियां दम तोड़ रही हैं। कुएं, तालाब, बावड़ियां सूख गए हैं। ज्यादा पानी पीने वाली बोनी किस्मों को पानी पिलाने नलकूप खोदे जा रहे हैं। तालाब पट गए हैं।

जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। जीवन के लिए हवा के बाद पानी बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसे संजोया जाना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। भोजन के बिना तो कुछ दिन जिया जा सकता है, लेकिन पानी के बिना जीना मुश्किल है। भोजन और पानी ऐसा संसाधन है, जिसे कृत्रिम रूप से बनाया नहीं जा सकता है। पानी से मानव ही नहीं, समस्त जीव-जगत, पशु पक्षियों का जीवन जुड़ा हुआ है।

मध्यप्रदेश की स्थिति उत्तर भारत से भिन्न है। उत्तर भारत की नदियां हिमजा हैं, वहां वर्षा न भी हो तो उनमें बर्फ पिघलने से पानी आएगा, लेकिन मध्यप्रदेश की नदियां वनजा हैं, यानी वन नहीं होंगे तो ये शुष्क हो जाएगी। यह हाल यहां की नदियों का हो गया है, यहां की जीवन रेखा कहलाने वाली नर्मदा नदी की ज्यादातर सहायक नदियां सूख चुकी हैं। इससे नर्मदा भी कमजोर हो गई है।

हाल के कुछ बरसों से किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना या अनियमित होना। भूजल बरसों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। यानी ऊर्जा का संकट भी है।

अब सवाल है पानी कैसे बचाया जाए? जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिश के पानी को वहीं लोगों के खेत तक पहुंचाना चाहिए। जहां पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे, इसके लिए मेड़बंदी की जा सकती है। गांव का पानी गांव में रहे, इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चैक डेम बनाए जा सकते हैं। पेड़, तरह-तरह की झाड़ियां व घास की हरियाली बढ़ाकर जल संरक्षण किया जा सकता है।

शहरों में हारवेस्टर के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनर्जीवित किया जा सकता है। इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सिंचाई के परंपरागत देशी बीजों की खेती करनी होगी। और ऐसी कई देशी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देशी बीज और हल-बैल की गोबर खाद वाली की खेती की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं।

यहां उत्तराखंड में वनों के संरक्षण से पानी के परंपरागत स्त्रोत बचाने का अनूठा उदाहरण देना उचित होगा। यहां 80 के दशक में हेंवलघाटी के परंपरागत जलस्त्रोत लगभग सूख चुके थे। लेकिन जब लोगों को गहरा अहसास हुआ कि हमारा बांज-बुरास का जंगल उजड़ रहा है, और सदाबहार जलस्त्रोत सूख रहे हैं, उन्होंने इन्हें पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया। इसके बाद वे वनों के जतन में जुट गए।

इस काम के पीछे 'चिपको आंदोलनÓ की प्रेरणा थी। जड़धार गांव में जहां पहाड़ी के वनों को लोगों ने संरक्षित किया, चिपको आंदोलन के कार्यकर्ता विजय जड़धारी का गांव है। उनकी जंगल को फिर पुनर्जीवित करने में महती भूमिका है। इस वन को फिर से हरा-भरा करने के लिए उन्होंने उजड़े हुए जंगल की सिर्फ रखवाली की, यानी जंगल को कुछ सालों के लिए विश्राम दे दिया। और देखते ही देखते जंगल से फिर से जी उठा। उनके और बीज बचाओ आंदोलन के जंगल बचाने के प्रयास से वहां के जलस्त्रोत फिर सदानीरा हो गए। जब वन होंगे तो बादल आएंगे, बारिश होगी। यह ऐसा तरीका है, जिससे यह सीख मिलती है कि पेड़ों को, जंगलों को बचाना बहुत जरूरी है।

इस प्रकार, वृक्षारोपण और जंगल बचाने के साथ मेड़बंदी, तालाब बनाने का काम कई जगह हुआ है। राजस्थान में तो पानी बचाने की बहुत ही अच्छी परंपरा है। दो वर्ष पहले मैंने राजस्थान के कुछ जिलों का दौरा किया था और वहां के तालाब देखे थे। वहां के कई तालाब तो बरसों पुराने हैं, उनके रखरखाव के नियम-कायदे भी गांव वालों ने बनाए हैं, जिससे उनका पानी साफ-सुथरा व पीने योग्य बना रहे। इन तालाबों में गंदगी नहीं थी, क्योंकि वहां का समाज मिलकर इसकी देखरेख करता है। उन्हें इनकी चिंता है।

इसके अलावा, वहां हर घर में टंकी है, जिसमें वे बारिश के दिनों में पानी का संग्रह करते हैं, जिसका उपयोग वे साल भर करते हैं। बारिश के पानी की एक-एक बूंद को एकत्र करने की अच्छी परंपरा है।

इसके साथ ही अगर हमारे गांवों के आसपास वन हैं, पेड़ हैं, उनकी रक्षा करनी जरूरी है। यदि प्राकृतिक वन नहीं हैं, तो बड़े पैमाने पर स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगाने चाहिए। नर्मदापुरम जिले में एक है काकड़ी, वहां के आदिवासियों ने गांव में काफी पेड़ लगाए हैं। जिससे न केवल उनके गांव में हरियाली आ गई है, बल्कि उनकी जरूरतें भी पूरी हो जाती हैं। पौष्टिक फल, चारा, ईंधन, हरी पत्ती का खाद, रेशे और दैनिक जीवन की उपयोगी वस्तुएं भी मिल जाती हैं।

इस तरह, अगर इसी तरह इस दिशा में अगर समन्वित प्रयास किए जाए तो जलसंकट का समाधान हो सकेगा। लेकिन क्या हम इस दिशा में कुछ सचमुच प्रयास करना चाहेंगे?

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