ललित सुरजन की कलम से- शिक्षा का मोल: मोल ली शिक्षा

भारत में शिक्षा की आवश्यकता व उपादेयता को जिस रूप में लिया जाता है उसे देख-देखकर मैं हैरान हूं;

Update: 2025-02-13 03:45 GMT

'भारत में शिक्षा की आवश्यकता व उपादेयता को जिस रूप में लिया जाता है उसे देख-देखकर मैं हैरान हूं। एक समय था जब मंत्रियों तथा बड़े समझे जाने वाले अन्य लोगों के स्वागत के लिए शाला से बच्चों को इकठ्ठा कर कभी किसी मैदान में तो कभी किसी सड़क के किनारे खड़े होने के लिए ले आया जाता था। कई बार ऐसे गणमान्य व्यक्ति के आने में देर होती थी तो दस-बारह साल उम्र के बच्चे कई-कई घंटे खड़े रहने पर मजबूर हो जाते थे।

भूखे-प्यासे, कभी ठंड में ठिठुरते, तो कभी धूप में झुलसते। गोया बच्चे न हुए रंग-बिरंगा फीता हो गए। किसी शिक्षक, किसी प्रधानाध्यापक की हिम्मत नहीं होती कि तहसीलदार या जिलाधीश की हुक्म हुजूरी कर सकें।

आज भी तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद यह स्थिति किसी हद तक बरकरार है। इन विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक कैलेण्डर के मुताबिक साल में विभिन्न अवसरों पर भांति-भांति के उत्सवों और प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। इनमें राष्ट्रीय स्तर के आयोजन भी शामिल हैं। किन्तु उद्धाटन और समापन इन दो अवसरों को छोड़ दें तो दूर पास से आए विद्यार्थियों की खोज-खबर शायद ही कोई लेता हो।

उन्हें ऐसी जगह ठहराया जाता है जहां न तो साफ-सफाई होती है और न अन्य उचित व्यवस्थाएं। पीने का पानी भी ऐसे मटकों में भरा जाता है जो शायद कभी धुलते भी नहीं। नाश्ते और भोजन के लिए जो राशि स्वीकृत होती है वह अपने आप में पर्याप्त नहीं होती और आयोजनकर्ताओं को बस्ती के धनी-धोरी लोगों की कृपा से इंतजाम करने पर बाध्य होना पड़ता है।

यदा-कदा अखबार का कोई संवाददाता सजग, संवेदनशील हुआ तो वह ऐसी बदहाली की रिपोर्ट छाप देता है, लेकिन तब तक अवसर बीत जाता है।'

(अक्षर पर्व जनवरी 2014 की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/02/blog-post.html

Full View

Tags:    

Similar News