ललित सुरजन की कलम से- चौदह लाख करोड़ का गणित
'आंकड़े बताते हैं 2014 में याने यूपीए के अंतिम दिनों में बैंकों के कालातीत ऋण की राशि लगभग दो लाख करोड़ थी;
'आंकड़े बताते हैं 2014 में याने यूपीए के अंतिम दिनों में बैंकों के कालातीत ऋण की राशि लगभग दो लाख करोड़ थी। यूपीए के दस साल के शासन के दौरान भी न चुकाई गई ऋण राशि में लगातार बढ़ोतरी हुई थी। याने बड़े ऋण लेने वाले कर्जदारों के मजे तब भी थे, परंतु विगत दो वर्षों में कालातीत ऋण राशि कल्पनातीत रूप से बढ़ गई है। अब दो लाख करोड़ के बजाय लगभग चार लाख करोड़ का आंकड़ा सामने है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि यदि मोदी सरकार का वित्तीय प्रबंधन ठीक होता तो बैंक द्वारा दिए गए ऋणों पर लगाम होती, उनकी अपनी आर्थिक सेहत न बिगड़ती और न शायद तब मोदीजी को इतना दुस्साहसिक कदम उठाने की आवश्यकता पड़ती। बहरहाल जबकि निष्क्रिय पड़ी धनराशि प्रचलन में आ गई है तब क्या उसका उपयोग बैंकों को पूंजीगत अनुदान देकर उनकी माली हालत ठीक कर देने में होगा? ऐसी संभावना तो बनती है, किन्तु यह राशि भी कहीं फिर चहेते पूंजीपतियों को न दे दी जाए और आगे चलकर कालातीत न हो जाए इस पर कैसे रोक लगेगी यह सवाल मन में उभरता है।'
'यूं तो मोदी सरकार ने इस राशि को सार्वजनिक हित में निवेश करने का वायदा किया है लेकिन उसे परिभाषित करने का सबके अपने-अपने मानदंड हैं। मसलन मोदीजी मुंबई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन प्रारंभ करना चाहते हैं। उनके लिए यह सार्वजनिक हित का विषय है, जबकि दूसरा पक्ष भारतीय रेल्वे की वर्तमान स्थिति को सुधारने को प्राथमिकता देना चाहता है। एक दूसरा उदाहरण मनरेगा के रूप में सामने है। श्री मोदी ने इसकी कटु आलोचना और योजना को बंद करने तक की वकालत की थी। आज योजना चल तो रही है, परन्तु जगह-जगह से खबरें हैं कि मजदूरी का भुगतान कई-कई महीनों से लंबित है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर एक पक्ष यह मांग कर सकता है कि सरकार के पास जो अभी राशि उपलब्ध हो गई है उसका उपयोग मजदूरी चुकाने, धान पर बोनस देने और यहां तक कि जन- धन खातों में नकद राशि जमा करने जैसे कामों में किया जाए जिससे सर्वहारा की आर्थिक स्थिति सुधर सके। क्या यह दलील उन नवरूढ़िवादी अर्थशास्त्रियों को पचेगी, जिनकी सेवाएं प्रधानमंत्री नीति आयोग इत्यादि में ले रहे हैं?'
(देशबंधु में 01 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2016/11/blog-post_30.html