ललित सुरजन की कलम से- इस चेतावनी को सुनें
'अभी कुछ साल पहले तर्क दिया जाता था कि जब पूंजी एक देश से दूसरे देश जा सकती है तो कामगारों का आवागमन भी उतना ही सुलभ क्यों न हो;
'अभी कुछ साल पहले तर्क दिया जाता था कि जब पूंजी एक देश से दूसरे देश जा सकती है तो कामगारों का आवागमन भी उतना ही सुलभ क्यों न हो। जाहिर है कि यह तर्क खोखला सिद्ध हुआ। इस स्थिति में समाजचिंतकों के समक्ष नए सिरे से अपनी भूमिका तय करने का वक्त आ गया है। जितने भी राजनीतिक दर्शन हैं वे आज तक उन्होंने ही स्थापित और परिभाषित किए हैं, सुकरात और अरस्तू से लेकर मार्क्स और गांधी तक।
आज विश्व की जो परिस्थितियां हैं उनकी नए सिरे से व्याख्या करना आवश्यक है। यह विडम्बना है कि एक ओर प्रौद्योगिकी ने देशकाल की बहुत सी सीमाओं को तोड़ दिया है, दूसरी तरफ समाज खुद को सीमाओं में बांधते जा रहा है। उसका भय और संकोच कैसे समाप्त हो, उसमें उदात्त भावों का विकास कैसे हो, इसके लिए एक नई योजना, एक नया रोड मैप तैयार करना समय की न टाली जा सकने वाली मांग है।
अन्यथा हम लकीर पीटते रहेंगे और प्रतिगामी, पुनरुत्थानवादी ताकतें विजय घोष के साथ आगे बढ़ती जाएंगी। इतिहास गवाह है कि हिटलर के उदय को समय रहते नहीं समझा गया, जिसकी भारी कीमत विश्व समाज को चुकानी पड़ी। वे खौफनाक दिन दुनिया के किसी भी देश में कभी भी नई शक्ल लेकर लौट सकते हैं। इस चेतावनी की अनसुनी करेंगे तो आने वाली पीढिय़ां हमें अपराधी मानकर धिक्कारेंगी।'
(अक्षर पर्व फरवरी 2017 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2017/02/blog-post_8.html