ललित सुरजन की कलम से- अनशन से क्या मिला?
मंच पर अन्ना की टीम थी, मंच के सामने टीवी कैमरे थे, मंच के पीछे भाजपा थी, भाजपा के पीछे संघ था, और इन सबके बीच में अन्ना विराजे थे;
मंच पर अन्ना की टीम थी, मंच के सामने टीवी कैमरे थे, मंच के पीछे भाजपा थी, भाजपा के पीछे संघ था, और इन सबके बीच में अन्ना विराजे थे-
जनसमूह से मुखातिब, जिसमें मुख्यत: श्रीश्री के साधक थे, गायत्री परिवार के उपासक थे, विहिप के वीर थे और थे लोकपाल को भ्रष्टाचार मिटाने का अमोघ यंत्र मान बैठे मध्यमवर्गीय नागरिक।
रामलीला मैदान में न संतोष हेगड़े ज्यादा दिखे और न शांतिभूषण। श्री भूषण को बोलते हुए भी एक बार ही सुना, जब उन्होंने कहा कि चार दिन में कानून बन सकता है। प्रशांत भूषण, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, अखिल गोगोई, स्वामी अग्निवेश तो थे ही, मेधा पाटकर ने भी खामोशी से प्रवेश किया और आखिर-आखिर में आकर उन्होंने बाकी सबको किसी हद तक पीछे छोड़ दिया। एक मनीष सिसोदिया भी थे जो तिहाड़ यात्रा तक काफी सक्रिय दिख रहे थे, इधर वे शायद दूसरे इंतजामों में ज्यादा व्यस्त थे।
बाबा रामदेव भी कुछ समय के लिए आए, अलबत्ता श्रीश्री रविशंकर सक्रिय और मुखर भूमिका निभाते हुए दो-एक दिन नार आए। आखिरी दिन तो आमिर खान भी मंच पर अन्ना के बाजू में विराजमान हो गए थे। उन्होंने दो जबर्दस्त काम किए। एक तो उपवास पर बैठे अन्ना के सामने टीवी कैमरों से रूबरू होते हुए उन्होंने अपना रोजा तोड़ा। दूसरे उन्होंने जनता को बताया कि सांसदों के निवास घेरने का आइडिया उन्होंने ही अरविंद केजरीवाल को दिया था।
मंच पर और भी बहुत से लोग आते-जाते रहे जैसे वेदप्रताप वैदिक, देविंदर शर्मा, भय्यूजी महाराज आदि। इनमें से एक महाअभिनेता ओमपुरी ने तो गजब ढा दिया। कल तक हम उन्हें वामपंथी कलाकार समझते थे। अब पता चला कि वे भारत के अभिजात समाज का हिस्सा बन चुके हैं। उन्होंने संसद सदस्यों को गंवार और न जाने क्या-क्या कहा। संभव है कि यह उस मंच का ही असर रहा हो क्योंकि पहले दिन से ही वहां से संसद और संसदीय जनतंत्र की वैधानिकता को चुनौती दी जा रही थी। अन्ना हजारे उपवास पर थे, स्वाभाविक है कि उनका ज्यादा समय लेटे-लेटे बीत रहा था, लेकिन उन्हें बीच-बीच में जोश आता था और वे खड़े होकर नारे लगाने लगते थे।
उन्होंने व्यवस्था बदल डालने का आह्वान किया, दूसरी आजादी लाने का आह्वान किया, काले अंग्रेजों से लडने का आह्वान किया और गद्दारों से भी लडने का आह्वान किया। वे शायद मानकर चल रहे थे कि जो उनके साथ नहीं है वह गद्दार है। दलितों ने उनके आंदोलन का मुखर विरोध किया; अन्ना की निगाह में पता नहीं, वे क्या हैं?
(1 सितम्बर 2011 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/04/16_24.html