भारत के लिए चीन ही है सबसे बड़ा खतरा
मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने 'पोखरण-2' परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमेरिका ने भारत को काली सूची में डाल दिया था। उस विस्फोट के बाद ही एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज़ ने अपने एक चौंकाने वाले बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था;
- अनिल जैन
मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने 'पोखरण-2' परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमेरिका ने भारत को काली सूची में डाल दिया था। उस विस्फोट के बाद ही एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज़ ने अपने एक चौंकाने वाले बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था। जॉर्ज का यह बयान निश्चित ही ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा।
भारत के उप सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर. सिंह का कहना है कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत सिर्फ पाकिस्तान से ही नहीं, बल्कि चीन से भी लड़ रहा था। उन्होंने कहा कि मोर्चे पर पाकिस्तान था, जबकि चीन हथियार और अन्य सहायता मुहैया करा रहा था। नई दिल्ली में फिक्की के 'न्यू एज मिलिट्री टेक्नोलॉजी' इवेंट' में उपसेना प्रमुख ने एक बड़ा खुलासा यह किया कि चीन ने पाकिस्तान को हथियार दिए और उन हथियारों की टेस्टिंग के लिए भारत को प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया।
उन्होंने कहा कि चीन हमारे हर रणनीतिक कदम का लाइव अपडेट पाकिस्तान के साथ शेयर कर रहा था। भारतीय सेना के उच्च पदस्थ अफसर के इस खुलासे ने एक बार फिर इस तथ्य को गहराई से रेखांकित किया है कि भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा पहले भी चीन ही था और आज भी चीन ही है। अब तो वह पहले से भी ज्यादा बड़ा खतरा हो गया है, क्योंकि भारत सरकार की कूटनीतिक विफलता के चलते बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव आदि दक्षिण एशिया के लगभग सभी देश चीन के पाले में चले गए हैं।
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत के खिलाफ चीन की जो भूमिका रही है, वह दिवंगत समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज की उस चेतावनी की याद दिलाती है, जिसमें उन्होंने चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था। बात 27 साल पुरानी है। तब भी केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार थी जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे।
मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने 'पोखरण-2' परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमेरिका ने भारत को काली सूची में डाल दिया था। उस विस्फोट के बाद ही एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज़ ने अपने एक चौंकाने वाले बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था। जॉर्ज का यह बयान निश्चित ही ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा, जो रक्षा मंत्री होने के नाते उन्हें हासिल हुई होंगी। मगर उनका यह बयान कई लोगों को रास नहीं आया था। उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी थी। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं, बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी जॉर्ज का यह बयान नागवार गुजरा था। वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जॉर्ज की यह साफगोई नहीं ही सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी।
यह दिलचस्प था कि संघ और वामपंथियों के रूप में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाली ताकतें इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रही थीं, ठीक वैसे ही जैसे दोनों ने अलग-अलग कारणों से 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' का विरोध किया था। जॉर्ज के इस बयान के विरोध के पीछे भी दोनों की प्रेरणाएं अलग-अलग थीं। संघ परिवार जहां अपनी चिर-परिचित मुस्लिम विरोधी ग्रंथी के चलते पाकिस्तान के अलावा किसी और देश को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं मान सकता था, वहीं वामपंथी दल चीन के साथ अपने वैचारिक बिरादराना रिश्तों के चलते जॉर्ज के बयान को खारिज कर रहे थे। कई तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों और विश्लेषकों समेत मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसके लिए जार्ज की काफी लानत-मलानत की थी।
जॉर्ज अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन चीन को लेकर उनका आकलन समय की कसौटी पर बीते दो दशकों के दौरान कई बार सही साबित हुआ है। इस समय भी चीन का रवैया जॉर्ज के कहे की तसदीक कर रहा है।
वैसे न तो चीनी खतरा भारत के लिए नया है और न ही उससे आगाह करने वाले जॉर्ज अकेले राजनेता रहे। 2017 में चीन की सेना जब डोकलाम में कई किलोमीटर अंदर तक घुस आई थी, तब संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी अपने अनुभव के आधार पर चीनी खतरे के प्रति सरकार को आगाह किया था। इस मसले पर लोकसभा में बहस के दौरान मुलायम सिंह ने दो टूक कहा था कि भारत की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा चीन से ही है और सरकार उसे हल्के में न ले।
दरअसल चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब से ही वह भारत के लिए खतरा बना हुआ है। देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राममनोहर लोहिया ने दी थी। तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने 'शिशु हत्या' करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाऊ एनलाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की। यह वह समय था जब भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष हुए थे और माओ की सरपरस्ती में चीन की लाल क्रांति भी नौ साल पुरानी ही थी। हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तब 'समाजवादी भारत' का सपना देख रहे थे, जिसमें चीन से युद्ध की कोई जगह नहीं थी। उधर माओ को पूरी दुनिया के सामने जाहिर करना था कि साम्यवादी कट्टरता के मामले में वे लेनिन और स्टालिन से भी आगे हैं। तिब्बत पर कब्जा उनके इसी मंसूबे का नतीजा था।
इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक रिश्ते अच्छे रहे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे के यहां कई यात्राएं कीं, लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगड़ाई लेना शुरू कर दी और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए। तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ तिब्बत से मिलती थीं। लेकिन चीन द्वारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने लगी। उन्हीं दिनों चीन द्वारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा। उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था।
चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एनलाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए शांति के कबूतर उड़ा चुके थे, लिहाजा भावुक भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा। मगर 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भावुक सपनों के ध्वस्त होने का रहा, जब चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया। हमारी सेना के पास मौजूं सैन्य साजो-सामान का अभाव था। लिहाजा भारत को पराजय का कड़ुवा घूंट पीना पड़ा और चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली। इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई।
चीन से मिले इस गहरे जख्म के बाद दोनों देशों के रिश्तों में लगभग डेढ़ दशक तक बर्फ जमी रही जो 1970 के दशक के उत्तरार्ध में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने पर कुछ हद तक हटी। दोनों देशों के बीच एक बार फिर राजनयिक रिश्तों की बहाली हुई। तब से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते भी बने हुए हैं और पिछले ढाई दशक के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में भी 32 गुना इजाफा हो गया है। लेकिन इस सबके बावजूद चीन के विस्तारवादी इरादों में कोई तब्दीली नहीं आई है। कभी उसकी सेना हमारे यहां लद्दाख में घुस आती है तो कभी सिक्किम में और कभी अरुणाचल में। अपने नक्शों में भी वह जब-तब इन इलाकों को अपना बता देता है। उसके ऐसा करने का सिलसिला पिछले एक दशक के दौरान काफी तेज हो गया है, जिसके चलते दो-तीन मर्तबा दोनों देशों की सेनाएं भी आमने-सामने आ चुकी हैं। अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में तो चीनी सेना कई किलोमीटर तक अंदर आकर अपनी चौकियां कायम कर चुकी हैं लेकिन सरकार के उसकी इन हरकतों पर कभी गंभीरता नहीं दिखाई। उसने अपने घरेलू राजनीतिक तकाजों के मद्देनजर हमेशा पाकिस्तान को ही भारत के लिए बड़ा खतरा माना।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)