पूरब के ऑक्सफोर्ड में किताबों पर बुलडोजर
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावी गहमागहमी के बीच बहुत सी जरूरी खबरें हाशिए पर धकेली गईं, इन्हीं में से एक खबर आई मौजूदा प्रयागराज यानी अतीत के इलाहाबाद से;
- सर्वमित्रा सुरजन
फुटपाथ पर रखी किताबों को हटाने के कई तरीके हो सकते थे। अतिक्रमण दूसरे तरीकों से भी हटाया जा सकता था। लेकिन बार-बार बुलडोजर को सामने करने का मतलब यही है कि लोगों के दिमाग में किसी न किसी तरह डर बिठाया जा रहा है। लोकतंत्र से उनका भरोसा डिगाने की कोशिश हो रही है। पाठक जानते हैं कि इस प्रयागराज में एक विश्वविद्यालय अभी सांसें ले रहा है।
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावी गहमागहमी के बीच बहुत सी जरूरी खबरें हाशिए पर धकेली गईं, इन्हीं में से एक खबर आई मौजूदा प्रयागराज यानी अतीत के इलाहाबाद से। खबर यह कि अब बुलडोजर का ज़ोर मकानों से बढ़ते हुए पुस्तकों पर भी असर दिखाने लगा है। बीते शनिवार नगर निगम के अतिक्रमण विरोधी दस्ते ने फुटपाथ पर पुरानी किताबें बेचकर आजीविका कमाने वाले एक गरीब दुकानदार के बक्से को बुलडोजर से रौंद डाला। दुकानदार लोहे के इसी बाक्स में पुरानी किताबें रखता था, पढ़ने-लिखने के शौकीन, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले और जरूरतमंद विद्यार्थी इन पुरानी किताबों को सस्ते दामों पर खरीदते थे। इलाहाबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के बाहर के फुटपाथ पर कई दुकानदार पुरानी किताबों की दुकान लगाते हैं, और यह सिलसिला बरसों से चल रहा है। लेकिन अब नगर निगम को इसमें अवैध कब्जा नजर आया और उसने अतिक्रमण हटाने की मुहिम चलाई। तमाम दुकानदारों को निर्देश दिए गए कि वो अपना सामान फुटपाथ से हटा लें, बहुतों ने हटा भी लिया, लेकिन एक गरीब दुकानदार किताबें नहीं समेट पाया, तो फिर बुलडोजर चलाकर उन किताबों के चिथड़े इस तरह उड़ाए गए, उन्हें इस तरह रौंदा गया कि समाज पढ़ाई-लिखाई से तौबा कर ले। शायद सत्ता की मंशा भी यही है। क्योंकि पढ़ी-लिखी जमात से उसे डर लगता है कि वह खुद तो सवाल करेगी ही, समाज को भी तर्क करने के गुर सिखाएगी।
इस इलाहाबाद को अपने नाम के साथ जोड़ने वाले मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने कभी लिखा था- हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं
लेकिन इन पंक्तियों को पढ़कर कोई ये समझने की भूल न करे कि अकबर इलाहाबादी पढ़ने-लिखने के खिलाफ थे, क्योंकि इन्हीं अकबर इलाहाबादी ने यह भी लिखा था कि-
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो।
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।।
किताबों को जब्ती के काबिल समझने की बात करने वाले शायर ने नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच विचारों के अंतर और असहमति को रेखांकित किया था। जब अकबर इलाहाबादी तोप का सामना करने के लिए अखबार निकालने का मशविरा देते हैं तो वे समाज को यह समझाते हैं कि सत्ता के किसी भी जुल्म का मुकाबला समाज की जागरुकता से ही किया जा सकता है। और समाज पढ़-लिख कर ही जागरुक हो सकता है। लेकिन आज के सत्ताधीश तो किताबों को जब्त करने के बाद अब उन्हें कुचलने पर आमादा हो गए हैं, यह बात डरावनी है।
लायब्रेरी पर हमले, किताबों की प्रतियां जलाना, किसी किताब का विरोध कर उसे प्रतिबंधित करवाना ये सारे पैंतरे भी पहले भी असहमति से डरने वाले लोग आजमाते रहे हैं। 2004 में पुणे के प्रसिद्ध भंडारकर प्राच्यविद्या संस्था पर जनवरी 2004 में संभाजी ब्रिगेड के तक़रीबन 100 कार्यकर्ताओं ने तोड़फोड़ की थी और यहां के इतिहासकारों के साथ मार-पीट भी की थी। संभाजी ब्रिगेड को नाराजगी थी कि अमेरिकन लेखक जेम्स लेन ने छत्रपति शिवाजी महाराज के चरित्र पर लिखी किताब 'शिवाजी हिन्दू किंग इन इस्लामिक इंडिया' में उनके बारे में कुछ विवादास्पद बातें लिखी हैं और भंडारकर संस्थान के इतिहासकारों ने इसमें जेम्स लेन की मदद की है। अपनी नाराजगी जतलाने का यही तरीका उन्हें समझ आया कि मार-पीट और तोड़-फोड़ करो। इस मामले में 2017 में सभी 68 आरोपियों को निर्दोष भी करार दे दिया गया। इसके बाद भी ऐसी और घटनाएं हुईं।
2020 में सीएए विरोधी आंदोलन को कुचलने के फेर में दिल्ली पुलिस ने किस तरह जामिया मिलिया इस्लामिया विवि की लायब्रेरी में घुसकर पढ़ाई कर रहे छात्रों पर लाठियां चलाई थीं, उसके वीडियो दुनिया ने देखे। इसी तरह पिछले साल अप्रैल में बिहार शरीफ में भड़के दंगों में उत्पाती भीड़ ने 110 साल पुराने अजीजिया मदरसे और लायब्रेरी को आग के हवाले कर दिया था। जिसमें इतिहास, अंग्रेजी साहित्य, प्राचीन पांडुलिपियों और धर्मग्रंथों से संबंधित 4500 से अधिक पुस्तकें जल गईं। पांच दिनों तक ऐतिहासिक महत्व की पुस्तकें और दस्तावेज जलते रहे। जब प्रधानमंत्री मोदी ने तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद जून 2024 में ही नालंदा विवि के नए परिसर का उद्घाटन किया तो अतीत के गौरव और पुनर्जागरण को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कहीं। तब वह प्रसंग भी लोगों को याद दिलाया गया कि 1193 में नालंदा विवि को बख्तियार खिलजी ने आग के हवाले किया था और हफ्तों तक यहां किताबें जलती रही थीं। लेकिन तब बिहार शरीफ की ऐतिहासिक लायब्रेरी को जलाने की बात याद नहीं आई।
अतीत की घटना को तो कोई बदल नहीं सकता, 12वीं सदी में न भारत संघीय गणराज्य था, न लोकतांत्रिक शासन था। लेकिन अभी तो हम दस सदी आगे आ चुके हैं, और समाज में असहमति को कुचलने या सत्ता का आतंक स्थापित करने के लिए हजार साल पुराने तौर-तरीके ही अपनाए जाएंगे तो फिर समाज को सोचना होगा कि विकसित भारत की बात करने वाले देश को आगे ले जा रहे हैं या पीछे धकेल रहे हैं। विकास का मतलब समय के चक्र का उल्टा घूमना तो कतई नहीं होता।
फुटपाथ पर रखी किताबों को हटाने के कई तरीके हो सकते थे। अतिक्रमण दूसरे तरीकों से भी हटाया जा सकता था। लेकिन बार-बार बुलडोजर को सामने करने का मतलब यही है कि लोगों के दिमाग में किसी न किसी तरह डर बिठाया जा रहा है। लोकतंत्र से उनका भरोसा डिगाने की कोशिश हो रही है। पाठक जानते हैं कि इस प्रयागराज में एक विश्वविद्यालय अभी सांसें ले रहा है (कब तक लेगा, कहा नहीं जा सकता) , जिसे पूरब का ऑक्सफोर्ड माना जाता था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी 23 सितंबर, 1887 को मात्र 5,240 रुपये के कर्ज से शुरु की गई थी। यह उत्तर प्रदेश की पहली यूनिवर्सिटी और भारत की चौथी सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी है। पश्चिमी जगत में जो सम्मान और रुतबा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का रहा है, कमोबेश वैसे ही इज्जत इलाहाबाद विवि को मिलती रही, क्योंकि यहां पठन-पाठन, शोध की गौरवशाली परंपरा कायम हुई।
कई बड़े राजनेता, लेखक, विद्वान, बुद्धिजीवियों का संबंध इस विवि से रहा। धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास गुनाहों का देवता में इस विवि का कई तरह से जिक्र आया। 2003 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार के मंत्रिमंडल ने इसे केंद्रीय सार्वभौमिकता का दर्जा बहाल किया था फिर मनमोहन सिंह सरकार के दौर में 2005 में भारत की संसद ने इसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया था। ये बातें दो दशक पुरानी हो गई हैं, तब शैक्षणिक संस्थानों और पढ़े-लिखे लोगों, खासकर नेताओं की इज्जत हुआ करती थी। फिर देश ने पुराने भारत को न्यू इंडिया में तब्दील होते देखा, जिसमें खादी के कैलेंडर पर गांधीजी की जगह नरेन्द्र मोदी की तस्वीर लगी, जिसमें गांधी को स्वच्छता अभियान के चश्मे तक कैद करने की कोशिश हुई और जिसमें हार्वर्ड विवि से पढ़े लोगों का मजाक बनाने का दुस्साहस दिखाया गया। कहा गया कि हम हार्ड वर्क वाले हैं, हार्वर्ड वाले नहीं। मानो हार्वर्ड विवि में दाखिला टहलते-फिरते मिल जाता है। अब तक पूरब के आक्सफोर्ड का मखौल बैल बुद्धि बोल कर नहीं उड़ाया गया है, यही कमी रह गई है। लेकिन किताबों पर जिस तरह बुलडोजर चलाया गया है, वो सीधे-सीधे प्रगतिशील सोच रखने वाले लोगों को चुनौती है कि तुम्हारी किताबों को ही नहीं, तुम्हारी चेतना को भी कुचलने का दम सत्ता रखती है।
परसाई जी ने बाजारवाद के प्रसार पर तंज करते हुए लिखा था- बाज़ार बढ़ रहा है, इस सड़क पर किताबों की एक नयी दुकान खुली है और दवाओं की दो। ज्ञान और बीमारी का यही अनुपात है हमारे शहर में।
आज के हालात परसाई जी देखते तो शायद लिखते कि ज्ञान की बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए बुलडोजरी हिम्मत सरकार ने दिखाई है। एंटायर पॉलिटिकल साइंस और संन्यास वाले सत्ताधीशों का यह बेजोड़ संगम, संगमनगरी बरसों-बरस याद रखेगी। साधो, धर्म ध्वजा फहराए रखने के लिए कुंभ मेला ही काफी नहीं है, किताबों का अवरोध हटाना भी जरूरी था।