बीएलओ की आत्महत्या चिंताजनक
विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर विवाद खत्म होने की जगह अब घातक होता जा रहा है;
विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर विवाद खत्म होने की जगह अब घातक होता जा रहा है। एसआईआर पर विपक्ष की आपत्ति को कुछ पल के लिए अलग रखें तो भी इस समूची प्रक्रिया में पूरे देश में अब तक 25 बीएलओ की मौतें सचमुच चिंता पैदा करने वाली हैं।
हालांकि तृणमूल कांग्रेस के मुताबिक 34 मौतें हो चुकी हैं। अब आंकड़ें जो भी हों, अगर एक भी बीएलओ की मौत इस वजह से होती है कि उस पर एसआईआर करवाने का दबाव था या चुनिंदा लोगों के नाम काटने के लिए उसे धमकाया जा रहा था, तो यह एसआईआर की प्रक्रियागत खामी की ओर इशारा करती है। जिस पर तत्काल संज्ञान लेने की जरूरत है।
गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश इन तमाम राज्यों में भाजपा सरकारें हैं जो पूरी तरह से एसआईआर के समर्थन में है, क्या इन राज्य सरकारों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि उनके राज्य में इस तरह अकाल मौतें हो रही हैं।
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस सभी दल ऐसी मौतों पर अब चिंता जता रहे हैं। अभी गोंडा में ही एक मामला सामने आया है, जिसमें अपनी शादी से एक दिन पहले बीएलओ विपिन यादव ने आत्महत्या कर ली। विपिन यादव के परिवार का कहना है कि एसडीएम और लेखपाल एसआईआर में ओबीसी वोटरों के नाम काटने का दबाव बना रहे थे। विपिन यादव ने ऐसा करने से मना किया तो उन्हें नौकरी से निकालने और पुलिस से उठवाने की धमकी दी गई।
परिवार का आरोप है कि विपिन यादव से कहा गया था कि ओबीसी वोटरों के नाम काटो वरना नौकरी खत्म कर दी जाएगी। जिसके बाद विपिन यादव ने आत्महत्या कर ली। यह मामूली आरोप नहीं है और इसकी गहन जांच की जरूरत है। कांग्रेस ने इस पर लिखा भी है कि ज्ञानेश कुमार और नरेंद्र मोदी लोकतंत्र को खत्म करने पर लगे हैं और एसआईआर उसी का औजार है।
वहीं नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने लिखा है कि 'ओबीसी वोटरों के नाम काटो, वरना नौकरी चली जाएगी।' दबाव, धमकी' और नतीजा? आखिर में आत्महत्या। एसआईआर के नाम पर पिछड़े-दलित-वंचित-गरीब वोटरों को लिस्ट से हटाकर भाजपा अपनी मनमाफ़िक वोटर लिस्ट तैयार कर रही है। चुनाव आयोग लोकतंत्र की हत्या की ज़िम्मेदार है।
ममता बनर्जी ने भी चुनाव आयोग पर इस प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाए हैं और उसे भाजपा के पक्ष में काम करने के लिए घेरा है। जिस पर भाजपा नेताओं ने कहा है कि ममता बनर्जी अपनी हार के बहाने बता रही हैं। इसी तरह अखिलेश यादव भी बीएलओ की मौतों पर मुआवजे की मांग कर रहे हैं और यह भी बता रहे हैं कि किस तरह इंडिया गठबंधन की जीती हुई सीटों पर वोट काटने की तैयारी हो रही है, तो भाजपा उनकी भी आलोचना कर रही है। यह प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। विपक्ष के पास अभी कम राज्य हैं, या भाजपा की तुलना में उसका जनाधार कम है, तो इससे उसका राजनैतिक महत्व कम नहीं हो जाता। याद रहे कि लोकसभा में भाजपा खुद के बूते बहुमत हासिल नहीं कर पाई, क्योंकि विपक्ष उस पर भारी पड़ गया। अगर विपक्षी नेता किसी मुद्दे पर ध्यान दिला रहे हैं तो सरकार का काम है कि उसे पूरी ईमानदारी से सुने। सरकार की तरह चुनाव आयोग की भी जिम्मेदारी है कि वह अपनी निष्पक्षता का यकीन सारे दलों को दिला पाए। फिलहाल लगता है कि चुनाव आयोग को विपक्ष के संदेहों से कोई फर्क नहीं पड़ता।
न्यायपालिका से भी यही अपेक्षित है कि वह बीएलओ की अकाल मौतों का स्वत: संज्ञान ले। अभी सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की बेंच एसआईआर की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। बुधवार को सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने कहा, 'आधार कार्ड एक क़ानून की रचना है। और वैध है। इस हद तक कि यह उस पर आधारित लाभों या विशेषाधिकारों को स्वीकार करता है। कोई भी इस पर विवाद नहीं कर सकता। लेकिन क्या आधार को मतदान के अधिकार से जोड़ा जा सकता है। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या आधार रखने वाले घुसपैठियों को वोटिंग के अधिकार देना चाहिए। वैसे मुख्य न्यायाधीश को चुनाव आयोग से पहले यह पूछना चाहिए था कि बिहार में उसे कितने घुसपैठिए मिले, उनके नाम वह बताएं। इसी तरह उन्हें बीएलओ की मौत पर भी सवाल करने चाहिए थे। क्योंकि 2003 में जो देशव्यापी एसआईआर हुआ था, वह प्रक्रिया 6 माह में पूरी हुई थी। तब न तो कहीं विरोध हुआ था और न ही कोई खुदकुशी सामने आई थी। अभी चुनाव आयोग ने बीएलओ का मानदेय बढ़ाकर दो गुना कर दिया है, लेकिन इससे समस्या नहीं सुलझ रही, क्योंकि कम समय में ढेर सारा काम निपटाने का अमानवीय दबाव है। जिस पर सरकार ध्यान नहीं दे रही तो न्यायपालिका से ही उम्मीदें हैं।
वैसे मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी से साफ है कि अदालत आधार को वैध पते के रूप में मानने से इनकार कर रही है। इसलिए वो नागरिकता का भी प्रमाण नहीं हो सकता। भारत का चुनाव आयोग भी यही बात कह रहा है। लेकिन फिर आधार कार्ड की टैग लाइन मेरा आधार, मेरी पहचान को क्यों बरकरार रखा गया है। अगर वो नागरिकता की पहचान ही नहीं है। 2016 में मोदी सरकार में ही आधार की टैगलाईन 'आम आदमी का अधिकार' बदलकर 'मेरा आधार मेरी पहचान' कर दी गई थी। अब नाम, नागरिकता, पहचान सब धुंधले हो रहे हैं।