बिहार तो बस झांकी है, पूरा देश बाकी है!
बिहार में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के प्रमाणपत्र, वन अधिकार प्रमाणपत्र निवासी प्रमाणपत्र पर या तो जन्म की तिथि नहीं होती या निवास का पता नहीं लिखा होता है;
- अनिल जैन
बिहार में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के प्रमाणपत्र, वन अधिकार प्रमाणपत्र निवासी प्रमाणपत्र पर या तो जन्म की तिथि नहीं होती या निवास का पता नहीं लिखा होता है। ये दो चीजें ही मतदाता बनने के लिए चाहिए। फिर इन तीन में से किसी एक दस्तावेज के आधार पर कोई मतदाता कैसे बन पाएगा? इसके अलावा दो दस्तावेज हैं एनआरसी और फैमिली रजिस्टर।
एक समय था जब भारत के चुनाव आयोग की दुनिया भर में साख थी। ऐसी साख कि दुनिया के जिन देशों में संसदीय लोकतंत्र पहले से है या जिन्होंने बाद में उसे अपनाया, वे सारे भारतीय चुनाव आयोग को निमंत्रण देकर अपने यहां बुलाते थे और अनुरोध करते थे कि वह आए और उनके यहां के चुनाव अधिकारियों को प्रशिक्षित करे कि निष्पक्ष चुनाव कैसे कराए जाते हैं। ऐसे अनुरोधों पर भारत का चुनाव आयोग अपने अधिकारियों का दल संबंधित देशों में भेजता भी था। कई देश भारत में चुनाव के समय अपने यहां के चुनाव अधिकारियों को भारत के दौरे पर भेजते थे, यह देखने के लिए भारत का चुनाव आयोग कैसे चुनाव कराता है। यह सिलसिला अब बंद हो चुका है, क्योंकि भारत का चुनाव आयोग अपनी साख पूरी तरह गंवा चुका है।
कहने को तो चुनाव आयोग अभी भी एक स्वायत्त संवैधानिक निकाय है लेकिन पिछले एक दशक से वह व्यावहारिक तौर पर भारत सरकार के गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय के तहत काम करने वाले एक विभाग में तब्दील हो गया है। इसकी ताजा मिसाल बिहार में देखी जा सकती है, जहां चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण का अभियान शुरू किया है, जो स्पष्ट रूप से एक तर्कहीन और हास्यास्पद तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है। चूंकि चुनाव आयोग की नीयत साफ नहीं है, इसलिए उसने अपनी इस कवायद पर बिहार के विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों की आपत्तियों को भी सिरे से खारिज कर दिया है। आगामी विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की राह आसान करने के लिए केंद्र सरकार के इशारे पर हो रहे इस तमाशे का स्पष्ट मकसद बड़ी संख्या में गरीब, वंचित अल्पसंख्यक तबके के लोगों को मतदाता सूची से बाहर करना है।
मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर चुनाव आयोग बिहार के लोगों से उनकी नागरिकता का प्रमाणपत्र मांग रहा है। इस सिलसिले में उसका कहना है कि आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड और राशन कार्ड के आधार पर कोई भी व्यक्ति मतदाता सूची में नाम नहीं दर्ज करा सकता। इन तीन के अलावा चुनाव आयोग ने 11 दस्तावेजों की सूची जारी की है, जिनके आधार पर मतदाता सूची में नाम दर्ज होगा। इन 11 में से कोई एक दस्तावेज मतगणना प्रपत्र के साथ जमा कराना है। इनमें सरकारी नौकरी या संपत्ति आदि के दस्तावेजों को छोड़ दें तो कई दस्तावेज ऐसे हैं, जिन्हें बनवाने के लिए आधार कार्ड प्रस्तुत करना होता है। यानी आधार कार्ड के सहारे कोई व्यक्ति जो दस्तावेज बनवाएगा, उनसे वह मतदाता बन सकता है लेकिन सीधे आधार कार्ड के आधार पर मतदाता नहीं बन सकता।
गौरतलब यह है कि बिहार में आवास प्रमाणपत्र बनवाने के लिए आधार कार्ड ही एकमात्र दस्तावेज है। यानी कोई आधार लेकर जाएगा तो उसका आवास प्रमाणपत्र बन जाएगा और वह आवास प्रमाणपत्र चुनाव आयोग की ओर से वांछित 11 दस्तावेजों में से एक है। यानी उसे जमा करा कर कोई भी व्यक्ति मतदाता बन सकता है। पिछले 15 दिनों में लाखों लोगों ने आधार कार्ड के जरिए अपना आवास प्रमाणपत्र बनवाने का आवेदन किया है। इनमें से 10 फीसदी के भी प्रमाणपत्र 25 जुलाई तक नहीं बन पाएंगे। इससे जाहिर है कि चुनाव आयोग ने लोगों को परेशान करने के लिए यह कवायद शुरू की है। अगर आधार कार्ड के जरिये आवास प्रमाणपत्र बन सकता है और उससे मतदाता सूची में नाम दर्ज हो सकता है तो फिर सीधे आधार कार्ड के दम पर मतदाता बनाने में क्या समस्या है? मतदाता पहचान पत्र नहीं होने पर जिन मान्य दस्तावेजों के आधार पर मतदान करने की इजाजत है उनमें आधार और मनरेगा कार्ड दोनों हैं। लेकिन बिहार में इन दोनों के आधार पर मतदाता सूची में नाम नहीं दर्ज किया जा रहा है। हालांकि इन दोनों के आधार पर देश के दूसरे हिस्सों में मतदाता पहचान पत्र बनाया जा सकता है।
कायदे से चुनाव आयोग को अगर यह काम करना ही था तो इसकी शुरुआत जनवरी में करनी थी, मतदाताओं को पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए था और राजनीतिक दलों को भी भरोसे में लेना था। 22 साल पहले 2003 में भी चुनाव आयोग ने यह काम किया था, जिसमें उसे दो साल लगे थे लेकिन इस बार चुनाव आयोग ने वही काम करने के लिए एक महीने की अवधि निर्धारित की है। जाहिर है कि चुनाव आयोग मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर जो कुछ कर रहा है, उसके पीछे उसकी नीयत साफ नहीं है।
चुनाव आयोग कह रहा है कि जन्म प्रमाणपत्र नहीं दे पाने वाले लोगों का मतदाता सूची से सिर्फ नाम ही नहीं हटाया जाएगा, बल्कि उनकी नागरिकता संदिग्ध होने की सूचना भी सरकार को दी जाएगी। इससे विपक्षी पार्टियों की यह आशंका सही साबित हो रही है कि चुनाव आयोग के जरिए सरकार राष्र्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी का काम करवा रही है। यानी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के जरिये मतदाताओं का सत्यापन नहीं, बल्कि लोगों की नागरिकता का सत्यापन हो रहा है। इसीलिए बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक मतदाताओं के नाम काटे जाने की आशंका जताई जा रही है।
चुनाव आयोग की इस कवायद पर जो सवाल विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों ने उठाए हैं, वही सवाल इस कवायद को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग से किए। हैरानी की बात है कि अपने सवालों का कोई तार्किक और संतोषजनक जवाब नहीं मिलने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस कवायद पर रोक लगाने के बजाय आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड और राशन कार्ड को भी वैध दस्तावेज के तौर पर स्वीकार करने की सलाह देते हुए चुनाव आयोग को अपना अभियान जारी रखने की इजाजत दे दी।
चुनाव आयोग का दावा है कि बिहार के 50 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं ने मतगणना प्रपत्र भरकर जमा करा दिये हैं। दूसरी ओर कुछ गैर सरकारी संगठनों की ओर से कराए गए सर्वे बता रहे हैं कि आधे से ज्यादा लोगों को प्रपत्र मिला ही नहीं है; या मिला भी है तो सिर्फ एक प्रति में। इस तमाशे को लेकर एक और खुलासा हुआ है, जिससे चुनाव आयोग की स्थिति हास्यास्पद बनती है। हालांकि इससे आयोग पर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह पूरी तरह शर्मनिरपेक्ष हो चुका है। पता चला है कि चुनाव आयोग ने जिन 11 दस्तावेजों के आधार पर लोगों को मतदाता बनाने का फैसला किया है, उनमें से तीन में जन्म तिथि या निवास का पता लिखा ही नहीं होता है और दो दस्तावेज बिहार में नहीं बनते हैं।
बिहार में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के प्रमाणपत्र, वन अधिकार प्रमाणपत्र निवासी प्रमाणपत्र पर या तो जन्म की तिथि नहीं होती या निवास का पता नहीं लिखा होता है। ये दो चीजें ही मतदाता बनने के लिए चाहिए। फिर इन तीन में से किसी एक दस्तावेज के आधार पर कोई मतदाता कैसे बन पाएगा? इसके अलावा दो दस्तावेज हैं एनआरसी और फैमिली रजिस्टर। इन दोनों दस्तावेजों का बिहार में अस्तित्व ही नहीं है। चूंकि चुनाव आयोग आधार कार्ड, पैन कार्ड, राशन कार्ड, मनरेगा कार्ड को मान्यता नहीं दे रहा है तो उसने मान्य दस्तावेजों की सूची लंबी करने के लिए इनको भी जोड़ दिया है। जाहिर है कि चुनाव आयोग बिहार की जमीनी हकीकत से पूरी तरह अनजान है। वह अपनी साख और मंशा पर उठने वाले सवालों की चिंता से भी पूरी तरह मुक्त है, क्योंकि उसे मालूम है कि सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ताओं की फौज और सरकारी प्रचार तंत्र का हिस्सा बन चुका मीडिया उसके हर काम को न्यायसंगत ठहराने के लिए हर दम मौजूद है।
कुल मिलाकर बिहार में मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण मतदाताओं के नाम काटने का अभियान है। मतदाता जोड़ने की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले बगैर किसी विशेष अभियान के बिहार में 12 लाख मतदाता नए बने थे। अभी चुनाव आयोग जो कर रहा है वह हरियाणा और महाराष्ट्र से आगे का प्रयोग है। यह प्रयोग आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल, असम और फिर उत्तर प्रदेश में भी दोहराया जाएगा। आगामी लोकसभा चुनाव से पहले कुछ अन्य राज्यों में भी दोहराया जा सकता है, क्योंकि इस प्रयोग से मतदान और मतगणना के दौरान कुछ अतिरिक्त खेल करने की जरूरत नहीं होगी। यह चुनाव से पहले चुनावी जीत सुनिश्चित करने वाला प्रयोग है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)