प्रबंधन से ज्यादा जरूरी है आपदा रोकना

अहमदाबाद या उत्तराखंड हादसे से लेकर कोविड के नाम पर तालाबंदी के जरिए देश भर के करोड़ों प्रवासी मजदूरों के जीवन में तबाही लाने जैसे अधिकांश मामलों में मुख्य भूमिका सरकार की दिखती है या उसकी तरफ से दी गई ढील की है;

Update: 2025-06-18 03:02 GMT

- अरविन्द मोहन

अहमदाबाद या उत्तराखंड हादसे से लेकर कोविड के नाम पर तालाबंदी के जरिए देश भर के करोड़ों प्रवासी मजदूरों के जीवन में तबाही लाने जैसे अधिकांश मामलों में मुख्य भूमिका सरकार की दिखती है या उसकी तरफ से दी गई ढील की है। अगर सिंगल इंजन के विमानों को दुर्गम पहाड़ियों वाले उत्तराखंड में ऑटो की तरह पैसेंजर ढोते सब लोग देख लेते हैं तो यह सरकार को क्यों नहीं दिखता।

सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के राहत आयुक्तों और आपदा प्रबंधन के मुखिया लोगों के बीच जब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह आपदा प्रबंधन में भारत को दुनिया का अगुआ और मोदी राज के दस वर्षों में यह उपलब्धि हासिल करने का दावा कर रहे थे तब डरावने विमान हादसे से बिखरे मलबे और मानव अंगों को समेटने और पहचानने का काम पूरा नहीं हुआ था और जिस किसी ने भी प्रत्यक्ष या वीडियो वगैरह के जरिए राहत एजेंसियों के लोगों को लगन और धैर्य से काम करते देखा होगा वह एक बार गृह मंत्री के दावे पर भरोसा कर लेगा। वैसे यह अलग बात है कि इसी अमित शाह ने इसी दुर्घटना को लेकर जैसा कैजुअल बयान दिया था उसकी काफी आलोचना हुई थी।

आपदा प्रबंधन वाले लोगों के काम की मुश्किल इस बात से भी समझी जा सकती थी कि जब शायद ही कोई शव साबुत मिला हो तब टुकड़ों के आधार पर उसकी पहचान करके घरवालों को सही व्यक्ति की लाश सौंपना असंभव बन गया। लगभग आधे शव ही पहचाने जा सके। हजारों हजार रुपए देकर यात्रा करने वाले यात्रियों और आकाश से आने वाली मौत से अनजान डाक्टर बनने का सपना लेकर आगे बढ़ रहे हास्टल वाले बच्चों के परिवार वालों को अगर शव सौंपना संभव न हो तब सफलता-विफलता और दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बनने का दावा क्यों नहीं करना चाहिए यह समझ तो इतने जिम्मेदार नेता में होनी चाहिए।

अब यह दुर्धटना या इसके ठीक बाद हुई उतराखंड में हेलीकाप्टर दुर्घटना या पुणे में पुल टूटने की घटना या बेंगलुरु में भगदड़ या कुम्भ की भगदड़ या हाथरस की भगदड़ या फिर बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओ या कोविड जैसी महामारी के बीच हमारी इन आपदा प्रबंधन एजेंसियों के कामकाज पर नजर डालेंगे तो रिकार्ड फिफ्टी-फिफ्टी का ही मिलेगा। इन पर होने वाले खर्च को जोड़ेंगे तो हिसाब और महंगा लगेगा। इनकी जरूरत और इनकी कार्यकुुशलता की मांग तो लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन गृह मंत्री का यह दावा राजनैतिक लगता है कि एजेंसियों ने मोदी राज में नुकसान को न्यूनतम या कम करने की जगह शून्य करने में सफलता पाई है। वे यह कहने से भी नहीं चूके कि आपदा एक वैश्विक समस्या है क्योंकि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि के चलते इनकाक्रम बढ़ गया है। इस बात में सच्चाई हो सकती है लेकिन सारी आपदाओं को प्रकृति और जलवायु के बदलाओं के मत्थे मढ़ना ठीक नहीं है। असल में उस बदलाव और बिगड़ाव के लिए हमी दोषी हैं, हमारी सरकारों की नीतियां दोषी हैं।

अपने यहां अहमदाबाद या उत्तराखंड हादसे से लेकर कोविड के नाम पर तालाबंदी के जरिए देश भर के करोड़ों प्रवासी मजदूरों के जीवन में तबाही लाने जैसे अधिकांश मामलों में मुख्य भूमिका सरकार की दिखती है या उसकी तरफ से दी गई ढील की है। अगर सिंगल इंजन के विमानों को दुर्गम पहाड़ियों वाले उत्तराखंड में ऑटो की तरह पैसेंजर ढोते सब लोग देख लेते हैं तो यह सरकार को क्यों नहीं दिखता। उसके साथ दलालों और पैसों की लूट करने वाली कंपनियों का रिश्ता क्यों नहीं दिखता। हवाई यातायात ही नहीं, सड़क और रेल परिवहन जितना लूटने लगे है उनमें सुविधाओं और सुरक्षा की उतनी ही कमी क्यों आती जा रही है। सड़े गले पुल पर ट्रैफिक न जाए यह देखना किसका जिम्मा है? लोगों के बड़े जमावड़े की इजाजत देते समय कायदे कानून को क्यों बिसरा दिया जाता है? ऐसी दुर्घटनाएं बार-बार हो रही हैं और एनडीआरएफ के जवानों की बहादुरी और कर्तव्यपरायणता के बावजूद बड़ी संख्या में मौत हो जाती है। ऐसी जगह सरकार किसके पक्ष में होती है यह बताया न भी जाए तो इतना जरूर होता है कि वह नुकसान को कम से कम बताकर अपनी जिम्मेवारी से बचना चाहती है।

इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण पहलगाम कांड और हमारी सैनिक कार्रवाई की गहमागहमी के बीच कोविड से हुई मौतों का आंकड़ा जारी करना है। यह काम गृह मंत्रालय का ही था और जन्म तथा मृत्यु के आंकड़े जारी करने का रूटीन काम भी कई साल बाद किया गया। इस सरकारी आंकड़े से पता चला कि अकेले 2021 में कोविड से मौत के आंकड़े तीन लाख नहीं बीस लाख से ज्यादा है- पहले बताए जाने वाले आंकड़े से लगभग सात गुना। गुजरात जैसे राज्य में आंकड़ों का फासला साठ गुना लगता है तो उत्तर प्रदेश में भी सात के कई गुना ज्यादा। इस बीच कोविड प्रबंधन में दुनिया भर में झण्डा फहराने जैसे न जाने कितने दावे किए गए। इन मौतों को लेकर सारे चैनल और अखबार सरकार की भक्ति में न थे लेकिन हिन्दू की रिपोर्टों को अनदेखा किया गया तो भास्कर को डांटकर चुप करा दिया गया। अंग्रेजी मीडिया की खबरों से सरकार को ज्यादा चिंता नहीं होती। याद कीजिए, दानिश सिद्दीकी द्वारा लाश से पटी सीमापुरी श्मशान की तस्वीरों पर क्या कहा गया या भास्कर को किस तरह माफी मांगने पर मजबूर किया गया। अफ़गान युद्ध में फोटोग्राफी करते वक्त जान गंवाने वाले दानिश को तब शासक दल के प्रवक्ता गिद्ध कहते थे।

ऐसा ही मामला हाल में हुए कुम्भ हादसे में मरने वालों और उनके परिजनों के साथ हुए व्यवहार का है। कुम्भ को सदी का ही नहीं सदा का सर्वश्रेष्ठ आयोजन बताने और इस भगदड़ को दुर्घटना बताने वाले मामले की पोल बीबीसी के कुछ पत्रकारों ने खोली जब साफ हुआ कि मुआवजे किस भेदभावपूर्ण तरीके से बंटे, कम लोगों को दिए गए और अधिकांश को नहीं मिले।

मौत का आंकड़ा भी सरकारी दावे से कई गुना है। कहीं नकदी तो कहीं बैंक ट्रांसफर क्यों किया गया? यह साफ नहीं है। लेकिन इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने हाथरस भगदड़ के मुख्य जिम्मेदार को किस तरह बेदाग बचा लिया यह खबर कुम्भ भगदड़ जितनी चर्चा भी नहीं पा सका। उस बाबा पर प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हुई और पूछताछ भी औपचारिकतावश हुई। कोविड वाले लाकडाउन में तो प्रवासी मजदूरों की दुर्गति किसी बाबा के चलते न होकर सरकार के गलत फैसले से हुई जिसमें मोदी और शाह सभी शामिल थे। इसलिए साफ लगता है कि दावे जो किए जाए, आपदा प्रबंधन एजेंसियों का काम जितना सुधारा हो आपदा लाने वाले ज्यादा गैर जिम्मेदार हुए हैं, नैतिकता गायब हुई है और फैसलों में कामकाज सुधारने और अच्छे प्रबंधन की जगह दूसरी वजहें प्रभावी होती जा रही हैं।

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