कांग्रेस की कठिनाइयां और गुंजाइशें

चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के रविवार को निकले नतीजों में कांग्रेस के हिन्दी पट्टी राज्यों में हुए पराभव से यह साफ है कि उसकी आगे की राह पहले के मुकाबले कहीं अधिक कठिन हो चली है;

Update: 2023-12-05 02:25 GMT

चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के रविवार को निकले नतीजों में कांग्रेस के हिन्दी पट्टी राज्यों में हुए पराभव से यह साफ है कि उसकी आगे की राह पहले के मुकाबले कहीं अधिक कठिन हो चली है। नवम्बर में विभिन्न चरणों में हुए चुनावों के बाद इनके परिणाम जब निकले तो उसकी छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सरकारें छिन चुकी थीं और जिस मध्यप्रदेश को वह भारतीय जनता पार्टी से झटक लेने की मानसिकता में थी, वह भी हाथ नहीं आया। यह सच है कि भारत राष्ट्र समिति को हरा कर दक्षिण भारत का तेलंगाना उसकी झोली में आया है जो एक बड़ी उपलब्धि तो है पर आसन्न लोकसभा चुनाव (2024) के मद्देनज़र जो बड़ी छलांग लगाने की वह सोच रही थी, उसमें बड़ी रुकावट तीन राज्यों की पराजय है जिसने कांग्रेस के लिये आगे की सियासी राह को बहुत कठिन कर दिया है। फिर भी ऐसा नहीं कि वह खेल में कभी लौट ही नहीं सकेगी।

कांग्रेस की दिक्कतों एवं सम्भावनाओं पर विचार करते समय पहले उसकी कठिनाइयों पर चर्चा कर ली जाये। उसका सबसे बड़ा अवरोध तो यही है कि उसके बारे में भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उनके अन्य सहयोगी संगठनों द्वारा बनाई गई अवधारणाएं एवं परिकल्पनाएं इस कदर प्रगाढ़ रूप से लोगों के मन में बिठा दी गई हैं, कि उनका निराकरण सहज रूप से होता सम्भव नहीं लगता। देश की सबसे पुरानी पार्टी एवं उसके नेताओं के बारे में जो जहरखुरानी की गई है उसके चलते जनता का एक बड़ा हिस्सा, खासकर नयी पीढ़ी उसे भ्रष्टाचार व वंश परम्परा का पोषण करने वाली पार्टी मानती है। राममंदिर आंदोलन के बाद से उसे अधर्मी एवं हिन्दू विरोधी दल के रूप में भी स्थापित किया गया है।

2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जब से भारतीय जनता पार्टी केन्द्र में काबिज हुई है और आज जब केन्द्र के साथ उसकी बड़ी संख्या में राज्य सरकारें बन चुकी हैं, कांग्रेस के प्रति नफरत व नकारात्मकता का भाव सर्वत्र फैला दिया गया है। इसी का यह परिणाम है कि उसकी मुद्दा आधारित राजनीति को इन तीनों राज्यों में स्वीकार्यता नहीं मिल पाई। पिछले करीब एक दशक से भाजपा द्वारा हिन्दुओं व गैर हिन्दुओं के बीच जो अलगाव पैदा किया गया है, उसे मिटाने के लिये जब कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा निकालते हैं, तो उसके असर को खत्म करने के भी पुरजोर प्रयास भाजपा व उसके अनुषांगिक संगठन करते दिखाई देते हैं। एक तरह से कांग्रेस की समावेशी विचारधारा को खारिज कराने के सारे प्रयास किये गये हैं। इन तीन राज्यों में तो यही दिखाई दिया है। कम से कम छत्तीसगढ़ व राजस्थान में तो धु्रवीकरण का मुद्दा मतदाताओं के सिर पर चढ़कर बोला। इसी प्रकार लोगों के मन में कांग्रेस व उसके नेताओं के प्रति भ्रष्टाचारी होने की अवधारणा भी मिटाये नहीं मिट रही है।

अपनी विचारधारा के प्रति लोगों को कैसे सहमत किया जाये, यह अब भी कांग्रेस की समझ से परे है। जिस राहुल के पीछे लाखों की भीड़ चलती रही और जिस कांग्रेस की प्रचार सभाओं में जनता की विशाल भागीदारी हुआ करती थी, उसी के द्वारा शासित राज्य की सरकारें भी उससे छीन जायें तो इसे अजूबा ही कहा जाएगा। ऐसे में मध्यप्रदेश को हासिल करना तो दूर की बात है।

इसके ठीक विपरीत तेलंगाना भी उदाहरण है जहां के लोगों ने भावनात्मक मुद्दों की बजाय यथार्थवादी मुद्दों को तरजीह देते हुए उसे शानदार जीत दिलाई। उसके पहले कर्नाटक में उसके द्वारा भ्रष्टाचार, वंश परम्परा के संवाहक तथा कट्टर साम्प्रदायिकता का पर्याय बन चुकी भाजपा को हराने का भी दृष्टांत भी है। और पहले जाएं तो हिमाचल प्रदेश भी है। ये तीनों राज्य बताते हैं कि अभी कांग्रेस के लिये सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। अगर वह संगठित तरीके से जनता के बीच जाये, चुनाव पूरी मुस्तैदी से लड़े और लोगों को समझाये तो कहानी बदली जा सकती है। तेलंगाना, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के बारे में कहा जा सकता है कि हिन्दी पट्टी से उसकी दूरी के कारण इन राज्यों की मानसिकता अलहदा है जो भावनात्मक मुद्दों को लेकर वैसी उद्वेलित नहीं होती, जिस प्रकार से हिन्दीभाषी व उनसे जुड़े कुछ अन्य इलाके हैं। दरअसल इस प्रखंड का नैरेटिव ही भाजपा-संघ की राजनैतिक व सामाजिक विचारधारा का अंश है। दुर्भाग्य से यही केन्द्रीय विमर्श भी बन गया है या यों कहा जाये कि बना दिया गया है।

इन सारी परिस्थितियों व भाजपा द्वारा बुने गये जाल को देखते हुए कांग्रेस का अन्य दलों से मिलकर बना गठबन्धन ही एकमात्र उपाय है जो भाजपा को मात दे सकता है। चुनावी बिसात पर होती उसकी पराजयों की भरपायी 'इंडियाÓ (इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्लूज़िव एलाएंस- जिसकी बुधवार को दिल्ली में बैठक होगी) के जरिये और उसकी मदद से नयी जमीन हासिल करके हो सकती है। यह अच्छी बात है कि अपनी स्थापना के करीब छह माह बाद भी और कांग्रेस को तीन राज्यों में मिली हार के बावजूद यह गठजोड़ न केवल अक्षुण्ण है वरन अब भी मिलकर आगे बढ़ना चाहता है। 28 दलों को मिलकर बने इंडिया की असली ताकत यह समझ है कि मिलकर ही वे भाजपा को मात दे सकते हैं। यह बात भी गठबन्धन के सामने साफ है कि उनका अस्तित्व तभी बचा रहेगा जब कांग्रेस का न सिर्फ वज़ूद बचा रहे वरन वह मजबूत भी बने। बेशक, कांग्रेस की राह को इन तीन राज्यों की पराजयों ने कठिन बनाया है लेकिन वह याद रखे कि उसका इतिहास गिरकर उठने का भी रहा है।

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