दलित पिछड़ा निशाना है : मुसलमान तो बहाना है!
शहर में उसे यह समस्या नहीं है। कोई उसकी जाति नहीं जानता। लेकिन अब यह जो शुरूआत की है नाम लिखाने की भारतीय के अलावा और पहचान बताने की वह उसे खाने-पीने का कोई काम नहीं करने देगा;
- शकील अख्तर
शहर में उसे यह समस्या नहीं है। कोई उसकी जाति नहीं जानता। लेकिन अब यह जो शुरूआत की है नाम लिखाने की भारतीय के अलावा और पहचान बताने की वह उसे खाने-पीने का कोई काम नहीं करने देगा। बाकी जगह नौकरी करने पर भी असर पड़ेगा। सरकारी नौकरियां तो खत्म कर दीं। दलित ओबीसी प्राइवेट में ही कर रहा है। या सरकारी दफ्तरों में भी ठेके पर। जहां जाति प्रमाणपत्र की कोई जरूरत नहीं है। कम तनखा और काम ज्यादा वही कर सकता है इसलिए उसे रखा जा रहा है। मगर अब पहचान उनसे भी पूछी जाएगी।
इस समय देश में दो यात्राएं चल रही हैं। एक अमरनाथ यात्रा जो पूरी मुस्लिम आबादी के बीच से होती हुई जाती है। दूसरी कांवड़ यात्रा जो अधिकांश हिन्दू आबादी के बीच से होती हुई निकलती है। जहां बीच-बीच में मिली-जुली आबादी भी है।
अमरनाथ यात्रा सैकड़ों साल पुरानी है। तब भी नहीं रुकी जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था। जम्मू से कश्मीर होकर जाने का ही मार्ग है। एक बार पाक समर्थित हिजबुल मुजाहिदीन ने यात्रा रोकने की धमकी दी थी। आश्चर्यजनक रूप से दूसरा सबसे बड़ा आतंकवादी संगठन जो कश्मीर में आतंकवाद शुरू करने वाला भी माना जाता है जेकेएलएफ (जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) हिजबुल के सामने खड़ा हो गया। जेकेएलएफ ने बाकायदा प्रेस नोट जारी करके कहा कि हम यात्रा को सुरक्षा देंगे। और अगर हिजबुल ने कोई गलती करने की कोशिश की तो उसे इसका गंभीर खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
यात्रा हुई। कश्मीर के मुसलमानों ने यात्रा का जबर्दस्त स्वागत किया। शान से हुई। और अभी भी चल रही है। रक्षाबंधन के दिन 19 अगस्त को खत्म होगी। यह है हमारे देश की मिलीजुली संस्कृति। हिन्दी हैं हमवतन हैं हिन्दोस्तां हमारा।
दूसरी तरफ इस बार कांवड़ यात्रा में खुद सरकार विवाद पैदा कर रही है। आजादी को रोकने के लिए अंग्रेजों ने जो हिन्दू पानी मुस्लिम पानी, हिन्दू चाय मुस्लिम चाय शुरू की थी। वह अब भाजपा सरकार कर रही है। कांवड़ यात्रा रूट पर मुसलमानों से कहा जा रहा है कि अपने खाने-पीने की दुकानों यहां तक की फलों के ठेले पर भी अपना नाम लिख कर टांगों।
जिस विभाजन को खत्म करके नेहरू ने भारत का नवनिर्माण किया था। उसे फिर बांटा जा रहा है। और यह यहां नहीं रुकेगा। मुसलमान की तो पहचान जगजाहिर है। उसके नाम से पता चलता है। और वह कभी छुपाता भी नहीं है। मगर दलित और पिछड़ों के लिए बहुत बड़ी मुश्किल खड़ी होगी। गांव से वह शहर इसीलिए आता है कि गांव में जाति के कारण उसे अलग थलग किया जाता है। प्रताड़ित भी। घोड़ी पर नहीं बैठ सकता। मूंछें नहीं रख सकता। अभी कई जगह तो चप्पल पहनकर घर के सामने से निकलने पर बुरी तरह मारा गया और चप्पल सिर पर रखवाकर जुलूस निकाला गया।
शहर में उसे यह समस्या नहीं है। कोई उसकी जाति नहीं जानता। लेकिन अब यह जो शुरूआत की है नाम लिखाने की भारतीय के अलावा और पहचान बताने की वह उसे खाने-पीने का कोई काम नहीं करने देगा। बाकी जगह नौकरी करने पर भी असर पड़ेगा। सरकारी नौकरियां तो खत्म कर दीं। दलित ओबीसी प्राइवेट में ही कर रहा है। या सरकारी दफ्तरों में भी ठेके पर। जहां जाति प्रमाणपत्र की कोई जरूरत नहीं है। कम तनखा और काम ज्यादा वही कर सकता है इसलिए उसे रखा जा रहा है। मगर अब पहचान उनसे भी पूछी जाएगी।
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई दलित अपनी जाति नाम के साथ कोई ढाबा या खाने-पीने की रेहड़ी, ठेला भी लगा सकता है? मुसलमान तो होटल खोलता है ठेला भी लगाता है। कोई सफाईकर्मी अपनी जाति लिखकर एक छोटा सा खाने-पीने का ठेला भी लगाए तो सोचिए क्या होगा?
मुसलमान के यहां तो जाकर खाते हैं मगर उसके यहां खाना तो दूर ठेला ही उठाकर फेंक दिया जाएगा। सेना में चमार रेजिमेंट की मांग हो रही है। जाट रेजिमेंट, राजपूत रेजिमेंट की तरह। वह होना तो बहुत दूर की बात है। अगर वह अपने नाम से भुट्टा भी बेचने लगे तो वहां से भी उसे उठाकर भगा दिया जाएगा।
गोदी मीडिया यूपी सरकार के इस फैसले का बड़ा समर्थन कर रहा है। पूछ रहा है कि आपत्ति क्या? वह एक रियलटी चेक कर ले। कांवड़ यात्रा मार्ग पर या कहीं भी एक चमड़े का काम करने वाले के नाम से, एक सफाई करने वाले के नाम से चाय-पकौड़े का, दाल-रोटी का या फल की ही सही एक-एक रेहड़ी लगाकर बैठ जाए।
देखें क्या होता है? हां सावधानी के तौर पर डिस्केल्मर यह हम जरूर बता देते हैं कि आसपास पहले बाउंसर का इंतजाम जरूर कर लेना। नहीं तो जो नफरती भीड़ बना दी गई वह रेहड़ी तो फेंकेगी ही, मार-पीट भी करेगी। और उससे आगे भी जा सकती है। इसलिए मीडिया यह प्रयोग करे तो अपने रिस्क पर और बचाव के पूरे साधनों के साथ। पुलिस को भी हम सावधान करना चाहते हैं कि वह भी नफरती भीड़ के सामने होशियारी से आए। यूपी में ही कई जगह पुलिस के बड़े अफसरों पर हमला हुआ है। एक इंसपेक्टर सुबोध कुमार सिंह की तो हत्या ही कर दी थी। और आरोपियों को न केवल जमानत मिल गई बल्कि बीजेपी में पदाधिकारी भी बना दिया गया। छह साल हो गए हैं अभी तक किसी को सज़ा नहीं हुई है।
नफरत देश को कहां ले जाएगी। पता नहीं। आजादी के लिए लड़ने वालों ने इस नफरत से लड़ते हुए ही देश को एक रखा है। लाल किले में आजाद हिंद फौज के क्रान्तिकारियों का ट्रायल शुरू होने वाला था। सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज अंग्रेजों की आंख के कांटे यहीं थे। नेहरू जिसे ये इतना बदनाम करते हैं उन्होंने इन क्रान्तिकारियों का मुकदमा लड़ने के लिए मुद्दत बाद वापस अपना वकालत वाला काला कोट पहना था। गांधी उनसे मिलने गए। तो बातों में मालूम पड़ा कि वहां सुबह हिन्दू चाय-मुसलमान चाय अलग- अलग आती है। गांधी ने पूछा फिर आप क्या करते हो। उन्होंने बताया कि हम एक बर्तन में दोनों मिला लेते हैं। और फिर मिल बांट कर पी लेते हैं। कर्नल ढिल्लन ने अपनी आत्मकथा फ्रम माय बोन्स में लिखा है कि महात्मा गांधी इतने खुश हुए कि बोले अब अंग्रेज ज्यादा दिन यहां नहीं रह सकते।
मगर अब फिर उसी विभाजनकारी दौर को लाने की कोशिश की जा रही है। याद है कोरोना जब शुरू था तो मुसलमानों पर आरोप लगाया गया कि वे थूक जिहाद कर रहे हैं। कई पत्रकारों ने एंकरों ने लिखा बोला कि हमने उन्हें थूकते हुए देखा है। तब्लिगी जमात के कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर कोरोना फैलाने के आरोप लगाए।
हमने उसी समय 2 अप्रैल 2020 को लिखा था कि कोरोना से लड़ो उसमें हिन्दू-मुसलमान न करो। झूठ और नफरत मत फैलाओ। कोरोना से लड़ाई कमजोर होगी। वही हुआ। उस लेख का शीर्षक था-'कोरोना को 'हरा' नहीं बनाओ!' लेकिन पूरी ताकत उसमें लगा दी। इलाज, इंजेक्शन, दवाइयां, अस्पताल, आक्सीजन सब भूल गए। शव पुलॉ से नीचे फेंके गए। नदियों में बहाए गए। मगर हिन्दू-मुसलमान जारी रखा।
क्या हुआ? लाखों मर गए। अब वैक्सिनेशन पर भी सवाल उठ रहे हैं। युवा अचानक गिर कर मर रहे हैं। और फिर अभी पिछले महीने कोर्ट का फैसला आ गया। तब्लिगी जमात पर लगे सब आरोप गलत साबित हुए। सब आरोपियों को बाइज्जत बरी किया गया।
लेकिन झूठ फैलाना था। फैला दिया। अब फिर वैसे ही थूक की और दूसरी घृणित कहानियां चलाई जा रही हैं। अच्छी सरकार लोगों के स्तर को ऊपर ले जाती है। पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, स्वास्थ्य, अच्छे जीवन की बातें होती हैं। नफरती सरकारें थूक और उससे भी अशोभनीय चीजों को चर्चा का केन्द्र बना देती है। पिछले दस साल में जितना शब्द गोबर लिखा और बोला गया है पिछले सौ सालों में भी नहीं।
अभी बांग्लादेश में हुए छात्र पुलिस संघर्ष के बाद पता चला कि सैकड़ों भारतीय छात्र भी वहां से वापस आए हैं। यह हाल कर दिया हमारी शिक्षा व्यवस्था का। भारतीय छात्र पढ़ने छोटे -छोटे देशों में जा रहे हैं।
लड़ाई थी मोदी और योगी की। लोकसभा चुनाव के कमजोर रिजल्ट ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए। कौन बड़ा है? कौन रहेगा? भविष्य किसका है? संघ किसके साथ है? लेकिन जैसा अंग्रेज करते थे हर सवाल का जवाब हिन्दू- मुसलमान में ढूंढने की कोशिश करते थे। असफल हुए। जाना पड़ा। वैसे ही अब ये सरकारें कर रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)