कुछ छोटे और बहुत से बड़े इरादों को लेकर आया है सीएए
सीएए को लागू किया जाना विपक्ष को चेतावनी की घंटी के रूप में लेना चाहिये;
- डॉ. दीपक पाचपोर
सीएए को लागू किया जाना विपक्ष को चेतावनी की घंटी के रूप में लेना चाहिये। यदि भाजपा को इस बार भी पूर्ण बहुमत मिलता है तो इसमें कोई शक नहीं कि भारत को एक बड़ा बदलाव देखना होगा। इसकी आशंका लगभग तभी से व्यक्त की जा रही है जब भाजपा को 2014 में सरकार बनाने का मौका मिला था। यदि अगले कार्यकाल में उसे बड़ा बहुमत मिला तथा उसकी सरकार बनती है तो संविधान में किसी भी तरह के बदलाव के लिये तैयार रहना होगा- लोकतांत्रिक प्रणाली के बदले एकदलीय व्यवस्था से लेकर राष्ट्रपति शासन व्यवस्था- कुछ भी लागू हो सकती है।
ऐसे वक्त में जब देश आम चुनावों की दहलीज पर है, भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट- सीएए), 2019 को सोमवार को अधिसूचित कर अपने कई इरादों को जाहिर कर दिया है। भाजपा के एकमात्र चेहरे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि में लगातार गिरावट तथा उनकी सरकार की सभी मोर्चों पर नाकामियां दर्ज होने के बाद सीएए लाना यही बतलाता है कि 10 वर्षों तक सरकार चलाने के बाद भी पार्टी का एकमात्र हथियार अब भी धु्रवीकरण ही है। इतना ही नहीं, सीएए लागू करने के बाद केन्द्र सरकार अगर तीसरा कार्यकाल पाने में सफल हो जाती है तो वह और क्या करने जा रही है- इसका भी संकेत इसी में छिपा हुआ है। मोदी व भाजपा को तीसरी बार सत्ता में लाना देश के लिये कितना खतरनाक हो सकता है- सम्भवत: यह समझ विपक्षी दलों एवं इंडिया गठबन्धन को इससे हो जानी चाहिये। हालांकि देखना यह भी होगा कि सीएए भाजपा ऐसे वक्त पर भी लेकर आई है जब वह इलेक्टोरल बॉंड्स के मामले में सुप्रीम कोर्ट के कठघरे में है जहां से यह संदेश देश भर में चला गया है कि उसने देश के धनिक वर्ग से खूब पैसे बटोरे हैं।
सीएए काफी समय से लम्बित था। 2019 में पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा से यह पारित तो हो गया था परन्तु कोरोना के कारण इसे लागू नहीं किया गया था। इसका मकसद तीन पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं अफगानिस्तान से आने वाले वहां के अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करना है जो उन देशों में धार्मिक रूप से प्रताड़ित हैं। ये सारे ही गैर मुसलिम समुदाय हैं। यह कह देना और इतना ही समझ लेना पर्याप्त नहीं है कि इलेक्टोरल बॉंड्स पर सरकार की हो रही फजीहत से ध्यान बंटाने के लिये भाजपा सरकार सीएए लेकर आई है।
राममंदिर का मुद्दा जिस प्रकार से औंधे मुंह गिरा है, भाजपा को साम्प्रदायिक मुद्दों की ज़रूरत अब भी बनी हुई है जो इसी चुनाव में और उसके बाद भी सामाजिक धु्रवीकरण के विमर्श को जिलाये रखे। इस मामले को केवल यह मानकर भी परे नहीं सरका दिया जाना चाहिये कि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कह दिया है कि 'यह नागरिकता छीनने का नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्कों से आने वाले प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का कानून है' (31 दिसम्बर 2014 के पहले भारत में आ गये थे)। पहले भी जब यह कानून लाया गया था तभी यह साफ हो गया था कि यह भेदभाव पर आधारित है क्योंकि इसमें म्यांमार जैसे देश के रोहिंग्या मुसलमान शामिल नहीं है जो वहां धार्मिक आधार पर प्रताड़ित हो रहे हैं। यह कानून उसी लाइन पर बना है जो भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडे के अनुकूल है। वैसे भी इसे तब मानवीयता के खिलाफ बतलाया गया था और देश की उस नीति के विरूद्ध भी जिसका आजादी के बाद से पालन होता आया है।
2019 में जब यह कानून आया था तब और अब की सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों में बड़ा फर्क आया है। अब मोदी और उनकी पार्टी जो तीसरी मर्तबा सरकार में आने की इच्छुक है, वह देश में बड़े बदलाव लाने के इरादे रखती है। इनमें सर्वोपरि है संविधान को बदलना। इसे पार्टी की ओर से कभी स्पष्ट तौर पर तो नहीं घोषित किया गया है लेकिन संविधान को लेकर जो विचार पार्टी रखती है और कई बार भाजपा से जुड़े लोग यदा कदा जाहिर करते रहते हैं, वह सब इसी दिशा की ओर इंगित करता है।
वैसे भी मोदी का दिया नारा 'अबकी बार 400 के पार' भाजपा की ज़रूरत है जिसके बल पर संविधान को रद्द किया जा सकता है। इस लिहाज से देखें तो सीएए तो प्रवेश द्वार है जिसे पार करने के बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) तथा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जिस एनआरसी को असंवैधानिक करार दिया गया था, उसे नये रंग-रोगन के साथ भाजपा सरकार लागू करने पर आमदा है। मूल रूप से इसे लेकर असम एवं पश्चिम बंगाल में बड़ा असंतोष था (अब भी है)।
भाजपा पहले भी इसे लागू करना चाहती थी पर विभिन्न कारणों से ऐसा वह कर नहीं पायी थी। तीसरी बार मोदी इन्हें लागू करने के लिये ही सत्ता में आना चाहते हैं। नागरिकों पर कई तरह से निगरानियां होने एवं नागरिकता छीनने के हथियार किसी भी सरकार के पास उपलब्ध हो जायेंगे तो नागरिक स्वतंत्रता का क्या होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। पुराने दस्तावेजों के आधार पर लोगों की नागरिकता की शर्त को वे ही लोग पूरा कर सकेंगे जिनका जीवन सुव्यवस्थित व सुविधापूर्ण है। गरीब, दलित, अल्पसंख्यक, प्रवासी मजदूर, किसान, आदिवासियों जैसे वर्गों के लिये अपनी नागरिकता साबित करना मुश्किल हो जायेगा। यह आशंका पहले भी व्यक्त की गयी थी, अब उसका खतरा कहीं साकार रूप में सामने आता दिख रहा है। सीएए को लागू कर भाजपा ने एक तरह से इसका ऐलान कर ही दिया है।
सीएए को लागू किया जाना विपक्ष को चेतावनी की घंटी के रूप में लेना चाहिये। यदि भाजपा को इस बार भी पूर्ण बहुमत मिलता है तो इसमें कोई शक नहीं कि भारत को एक बड़ा बदलाव देखना होगा। इसकी आशंका लगभग तभी से व्यक्त की जा रही है जब भाजपा को 2014 में सरकार बनाने का मौका मिला था। यदि अगले कार्यकाल में उसे बड़ा बहुमत मिला तथा उसकी सरकार बनती है तो संविधान में किसी भी तरह के बदलाव के लिये तैयार रहना होगा- लोकतांत्रिक प्रणाली के बदले एकदलीय व्यवस्था से लेकर राष्ट्रपति शासन व्यवस्था- कुछ भी लागू हो सकती है। एक ऐसा शासन देखने को मिल सकता है जिसमें भाजपा के अलावा सारे दल समाप्त हो सकते हैं और जिस 'कांग्रेस मुक्त' से 'विपक्ष मुक्त भारत' का सपना भाजपा देखती आ रही है- उसे वह पा सकेगी। सम्भावित प्रणाली में वह सब होता दिखेगा जिसकी झाकियां पिछले 10 वर्षों से देशवासी देखते आ रहे हैं। इसमें बहुसंख्यकों का वर्चस्व होगा व अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के समझे जायेंगे। भाजपा के अनुषांगिक संगठन एवं मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस मनुस्मृति का जिक्र बहुत आत्मीयता से करता है तथा उसे लागू होते देखना चाहते हैं, उसमें देर नहीं लगेगी। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा एवं उसके समविचारी संगठनों का भारतीय संविधान में कोई विश्वास नहीं है। विकल्प के रूप में उनके पास मनुस्मृति ही है।
अगर ऐसा है तो एक बार फिर से भारतीय समाज गैरबराबरियों से परिपूर्ण होगा। बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों के बीच ही नहीं वरन हिन्दुओं के बीच अगड़ों व पिछड़ों के बीच खाई गहराएगी। समाज का यह विभाजन ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज दोनों ही होगा। यानी हिन्दू-मुसलिम टकराव के साथ सवर्णों की दलितों-पिछड़ों-अति पिछड़ों के साथ वैमनस्यता और भी बढ़ेगी- जो पहले भी चिंताजनक स्तर पर पहुंच गयी है। महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले निम्नतर माना जायेगा। एक समाजवादी अर्थव्यवस्था के बदले देश में पूंजीवादी अर्थप्रणाली लागू होगी।
देश के सारे अवसरों तथा संसाधनों पर कुछ शक्तिशाली लोगों का ही कब्जा होगा। निर्णय करने के अधिकार भी सीमित हाथों में सिमटकर रह जायेंगे। जिस प्रकार से मोदी के शासनकाल में देखा गया है कि संसद व कार्यपालिका दोनों ही दो व्यक्तियों (मोदी-शाह) के इशारों पर काम करती है- वही स्वीकृत प्रणाली होगी। सीएए के पीछे के ये सारे बड़े इरादे हैं। 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना तो छोटा व तात्कालिक लक्ष्य है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)